Friday, March 23, 2012

दिवस परम्परा

गौरैया दिवस

ओह
,यह ' दिवस परम्परा ' मेरी समझ न आई ,

सुबह
सवेरे जब झूले पर मैं गौरिओं को दाना देने आई .
शोर मचाती चीं चीं करती मेरे इर्द गिर्द घिर आईं
कानों को सुख देने वाला मधुर मनोहर शोर नहीं था ,
यह तो कलरव या कल्लोल नहीं था
अरे- अरे यह आज हुआ क्या ?
मैं उन्हें देख घबराई

गौरैयों ने शायद व्याकुल होकर एक सभा बुलवाई
डरी - डरी सी , सहमी- सहमी भोली - भाली औ निरीह सी ,
घर - घर में हर छज्जे , छत में लटक रहे क्यों झूले नभ पर ?
क्या कोई षड्यन्त्र रचा है ? दाने पानी सुंदर मटके रख कर
बुला रहे क्यूँ हमें हरख कर? शहरों की ये नई अदाएं हमें रास न आईं ।
" 'गौरिया का दिवस " मनाकर कहीं और कुछ शामत आई ?
गौरियों ने व्याकुल होकर एक सभा बुलवाई'
ओह यह दिवस परम्परा मेरी समझ न आई'