Sunday, November 23, 2014

Anubhav


                                   अनुभव
     मेरे स्कूल की बस शहर के मेन रोड को छोड़ कर एक कच्चे-पक्के चौंड़ी सड़क की ओर घूमजाती है अरैल के महुआरी गाँव की ओर।
      भारत के विकास और समृद्ध के दर को मेट्रोपोलियन शहर की भव्य इमारतों, अट्टालिकाओं, यातायात के साधनों से नही आक जाना चाहिए। सही तस्वीर तो फुटपाथ पर बीत रही जिन्दगी और गाँवों में होने वाले जीवन के लिये संघर्षों के बीच इन्सानियत को जीवित देख कर समझा जाये ंतो शायद सब कुछ ठीक-ठीक समझ में आ सकें।
    यह गाँवों के बीच गुजरती बस उस गाँव के बच्चों के लिये एक सुखद रोमांचक आश्चर्य सा है। इक्का-दुक्का बस चढ़ने वालों को घेर कर अन्य आतुर बच्चों का उत्साहित स्वर- आ गई, आ गई स्कूल ले जाने वाली गाड़ी। और सबको छोड़कर दो बच्चे चढ़ जाते है बस पर छोड़ने आई माताओं में कुछ मैक्सी पहने, उस पर दुपट्टा डाले, कुछ तैयार। तो कुछ पिता पैन्टशर्ट में कोई घुट्टना चढ़ाये ही खड़े रहते है बस स्टाप पर-
      दो बच्चे चढ़ जाते है बस पर। रह जाती है बच्चो की  टोली तालियाँ बजाती। उस विद्यालय के मैनेजमेंट को हैट आॅफ जो गाँवों के उस इलाके में बच्चों के बीच अपने विद्यालय की पहचान ले गये। जहाँ पर शायद कोई किरण भी न थी विषय ज्ञान की जिसे हम विद्यालयी शिक्षा कहते है। नैनी जेल घूम तक की सीधी सड़क पर दौड़ती हमारे स्कूल की बस घूम पड़ती है माधवपुर गाँव की ओर कहीं पर कच्ची मिट्टी के घर कही इटों को मिट्टी से जोड़ते कमरों की तैयारी एक ही लम्बी कतार में बनते कमरे सटे-सटे घर शायद दो-दो कमरों के खपड़ैल या सीमेन्ट सीट से ढ़के कच्चे-पक्के मकान। आठ दस घरों के बाद एक हैन्डपम्प पर बूढ़े बच्चे औरतों, लड़कियों-लड़कों का झुण्ड कोई ब्रश कर रहा है कोई दातून से दातों को रगड़ रहा है, तो कोई घड़े में पानी भरने के लिये लाइन में लगा है। कुछ लोग बगल में ही पानी भर कर कपड़े पछार धो रहे है। मगर ये सारी गतिविधियाँ उस पाँच वर्गगज के सीमा में ही इर्द-गिर्द। धैर्य के साथ शालीनता से न एक दूसरे पर कुदृष्टि ना ही छींटाकशी। न मार न पीट अधनंगे बच्चे, मटमैले कपड़ों में कुछ बुजुर्ग स्त्रियाँ युवतियाँ युवक। शायद यह कम आय वर्ग वालों की बस्ती है। ठेले वाले, सब्जी वाले, मजदूर रेजा, बढ़ई, मिस्त्री या छोटा-मोटा काम कर जीवन यापन करने वालों के परिवार जीवन जीने की जिजीविषा हाडतोड़ परिश्रम, कहीं मिट्टी के लिपे-पुते चूल्हे, दो चार ईटों को जोड़ कर लकडि़या लगा कर कण्डे जलाकर चाय रोटी बनाते लोग स्त्री-पुरूष एक साथ मिलकर काम करते दिखाई पड़ते। असली भारत का 80 प्रतिशत तो यही बसता है महानगरों के ऊँची- ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर, या 20 प्रतिशत उच्चवर्ग के सुविधाभोगी लोगों को देखकर देश को उन्नत, शिक्षित या विकास की ओर तेजी से बढ़ते देशों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
          
      

Sunday, October 26, 2014

SANGHARSHA HI JEEWAN HAI

                                                             संघर्ष ही जीवन है
      सुख-दुख, आनन्द शोक उतर-चढ़ाव, अंधेरे-उजाले की अनुभूति है। यह संघर्ष किसके के लिये? अपने लिये, विश्वव्यापी प्रभु के लिये, माता-पिता पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी परिवार के सुख के लिये? या अपनी मुक्ति के लिये? बड़ा ही गूढ़ रहसयमय प्रश्न है। सुबह होते ही
      परिस्थितियों से जब मनुष्य जीवन पशु पक्षी किसी भी चेतन जगत की क्रियाये टकराती है तो प्रतिक्रयायें अवश्य भावी सत्य है। यह न केवल जीवन के अस्तित्व के लिये जरूरी है अपितु विकास, उन्नत संवेदनाओं, और गूढ़ परम आत्मा के अनुभूति के लिये भी आवश्यक है। कैसे परिष्कृत करती है हमें ये संघर्ष के विभिन्न आयाम। कैसे तीव्र बनाते है अनुभूतियों के रंग। कैसे विकास तो है प्रेम, दया, करूणा, अपनापन, सहयोग की कोमल अंकुर और यही नहीं क्रोध ईष्र्या, प्रतिशोध की भवनायें, ये भी प्रस्फुटित होते है मनोभूमि में। इसे नकारा नही जा सकता।
       सक्रियता, किसी भी उद्देश्य को लेकर हो तभी प्रशंसनीय वाँछनीय है। निष्क्रयता जड़ बना देती है। बुद्धि को कुन्द कर देती है विवेक को सुप्त कर देती है और ये सब मृत्यु के ही तो प्रतीक है। ठहराव के उदाहरण है जहाँ से कोई मार्ग नहीं दिखता है सब निश्चल शान्त और चेतन रहित। क्योंकि रूक जाना मृत्यु हे चलते रहना जीवन।
        संसार गतिशील है परिवर्तन ही सत्य है प्रकृति भी परिवर्तनशील है ऋतुयें बदलती रहती है परिस्थितियाँ बदलती है कभी धूप कभी छाँव तो कभी बादलों का गरजना बिजलियों का तड़कना तो कभी प्रातः काल की सुन्दर लाल किरणें उगते सूरज का आश्वासन आनेवाले दिन का सुप्रभात। मन को ताजगी से भर कर आशाओं से सिंचित कर ऊर्जावान कर देता है। प्रेरित करता है कुछ कर गुजरने के लिये। यही उद्देश्य प्राचीन समय में भी रहा होगा। कुछ भाग्य कुछ कर्म दोनो की ही आवश्यकता है सब संवेदनशील बने यही ईश्वर से प्रार्थना है।                                                     

AUR TOTA UD GAYA

                        
                                                             और तोता उड़ गया-------
       मेरी बहुत-बहुत शुभकामनायें और जीवन के उन्मुक्त आकाश में क्रियाशील होने के लिये आशीष प्यार पिछले छः महीने से तम्हारी देख-रेख, खान-पान, साफ-सफाई, नहलाने-घुलाने के साथ-साथ शारीरिक विकास, पुष्ट होते पंख, नुकीली तेज चांेच और उसमे। चोखपन स्वाद के नये-नये रूप। मजबूत पुष्ट उड़ने के लिये तैयार। पिंजड़े के दो फिट के कारा में बन्द व्याकुल, बेचैनी में कभी लोहे के तार काटना बर्तनों को पटकना उलटना। पानी में रोटी, मिर्चा भिगोना भुट्टे के दाने, आनार के दाने कुतरना तरह-तरह की कसरतें सब तैयारी ही तो थी खुले आकाश में उड़ने की।
        यही नहीं मुझे सिखा गये एक सत्य कटु सत्य मगर प्यारा सा। बच्चे इसी तरह पलते है बढ़ते है और सीखते है पुष्ट होते है व्यवहारिक बनते है जिम्मेदारियाँ  उठाते है परिस्थितियों को समझ आती है और उड़ जाते है अपने मिशन पर खुले कर्म क्षेत्र में। दुख क्यों पीड़ा क्यों। वे उड़ रहें हे खुली हवा पानी धूप बरसात छाव-ताप यही तो जीवन है समय ही जीवन है जीवन को खुद जी पाना भी उपलब्धि है उद्देश्य आशा अरमान है। हर परिवार की आज के वर्तमान युग में सोच होनी चाहिये।
   गम न कर, ऐ मेरे मन
   तैयार कर दिया, समुन्दर पार कर।
   मोतियाँ ला, आसमा से चाँद तारे तोड़ कर।
                           

Sunday, August 24, 2014

A TRIBUTE TO MY BROTHER


                            *A Tribute to my Brother*

                Today 9th August is Rangjee’s Punya Tilhi. Yes I always called him Rangjee though he was three year elder to me but I never said Bhai sahib or dada to him. I do not know how I was used to say ‘Rangjee’; but I have great respect and regard for him Amma and chacha had told me that this name was given to him on the name Rang Nath Mandir’s ‘Rangjee Bhagwan’. Ioved the name as it gave the sweetest feelings
                 He was six footer, well built,  fair complexion, very handsom with shy and sweet smile on his face. He was known as a very successful High court judge. I recall his roles as brother, son father and husband which he carried out to the best extent.  
                 Whenever I was n delima and needed guidance he was always there to admonish. He was very pure hearted and down to earth person full of emotions. Though he was an introward but he was a wealth , library of knowledge and information. Not only that he was very caring and concerned for all relatives poor or rich.
                 I do not know what others think but this is my personal feeling that he    was very close and attached to mother and all sisters.
                After the death of my ‘Babujee’ he was more like a father figure, took all the responsibilities of my ‘MAYKA’. Every Teej, BhaiDuj he never forgot me. 
                 I think in todays modern society everything, festivals, feelings get limited with your own son and daughter. But he was different like a banyan Tree (Bat Vriksh) under whose shelter every one could grow with humanity, love, effection, Patienee  co-operation and empathy. He inculcated all the high values of Babujee. I am proud to say that he embibed the same values in children too.
    Our elders are always around us and there presence can be felt in one form or other   
    
              

YADON KE GALIYARON MEIN

                                          यादों के गलियारों में
यादों  के गलियारों में
कुछ भूले बिखरे चित्र जड़े
धूल धूसरित समय धूलि से
कुछ धुधलें कुछ चमक रहें---
          इलाहाबाद के जार्जटाउन की पाॅश कालोनी विस्तृत साफ सुथरी चैड़ी सड़के और मेन चैराहे से पाँच घर छोड़ कर बना यह भव्य आकर्षण बंगला हवेली नुमा। बड़ा सा ऊँचा गेट जिसके बाहर दो बड़े नीम छितराये शाखाओं वाले वृक्ष हष्ट-पुष्ट। गर्मियों के दिनों से पहले नीम के झरते पत्तों से पीली पड़ी फाटक से बरामदे तक पहँचती सड़क और फिर उसके बाद पेड़ों का रंगबदलते हरे, कोमल पत्ती की वेशभूषा पकते, टपकते निमकौडि़यो की सुगन्ध से गमकता बंगले का वातावरण। थोड़ा सा आगे अन्दर बढि़ये तो दो ऊँचे लम्बे मजबूत मस्तक उठाये दानों तरफ तने साहसी दरबानों की तरह खड़े अशोक के वृक्ष। 60 साल से तो मैं ही देख रही हँू इनकों। और इन्होंने देखा है हमको हम भाई-बहनों को इस घर के आँगन, लाॅन बगीचे में हँसते-खेलते इठलाते ठहाके लगाते। अम्मा, बाबूजी, चाचा, चाची, भतीजे, भतीजियो से भरे पुरे परिवार को।
            बड़े फाटक को पार कर जैसे ही अन्दर प्रविष्ट होइये, बड़ा-सा गोलाकार लान, उसके चारो-ओर बेला के पौधों की हेज़ एकदम साफ कटी हुई घास, उसे छः इन्च की दूरी पर लिली के पौधे जो एक कतार में लाल सफेद के रंग में यूनिफार्म पहने बच्चों सी सजी क्यारियाँ। लगभग 10-12 फीट की गोलाकर सड़कों के बाद विशाल पोर्टिको और पोर्टिको के दोनों ओर छत पर चढ़ती अंगूर की लतायें। पोर्टिको इतना बड़ा कि कम से कम दो बड़ी कारें ‘‘गाडि़याँ’’ तो  आराम से खड़ी हो जाये। फिर लम्बा बहुत बराम्दा तग कही प्रवेश मिलता घर के अन्दर ही पूरा बड़ा लाॅन हो खुला, सूरज की बिखरती किरणें से गौरैयों का चहचहाना, गिलहरियों का एक इसरे के पीछे भागते हुये सर्र से एक छोटे फलदार अमरूद के पेड़ पर चढ़ जाना।
अम्मा व चाची, घर की औरते बहने भाभियाॅं बाहर के लाॅन में तो शायद ही बैठती मगर अन्दर के इस आँगन की शोभा किसी बाहरी खुली जगह के लाॅन से कम नही। सुबह शाम सब भाई-बहनों का जमावड़ा जम जाता चाय बनती नाश्ता में मठरिया नमकीन पूड़ी और खीर। सबके लिये अलग-अलग कटोरियों मंे सज जाती। हाँ, अभी भी याद है भाईयों की खीर का कटोरा बहनों की कटोरियों से दुगना होता। चाहे कोई कुछ भी कहे, सोचे या समझे यह तो निश्चित था कि खाने-पीने की चीजो में बेटे-बेटी का फरक जरूर दिखाई पड़ ही जाता। थोड़ी बहुत अम्मा से बहस होती मगर फिर सब ठीकठाक मगर भाईयो  के प्यार में कोई कमी न थी। अपने स्कूल की बाते घूमने फिरने की इच्छा, छोटी-मोटी जरूरते थी चीजे बेहिचक भाईयो से कहते लड़ते झगड़ते और अन्त में मगा कर ही दम लेतेे।
      दिन महीने, महीने वर्षों के पंख लगा कर उड़े तो फिर उड़ते ही चले गये। शादी ब्याह के लिये उसी आँगन में 7/7 के नाप के मण्डप के लिये परमानेन्ट जगह बन ही गई। नौकरी बड़े ओहदे भाभियों का आना बहनो का विवाह सब तितर-बितर दूर-दूर सालों में एक आध बार आना होता। शाम रात तक फिर जमघट लगती। अपने-अपने अनुभव बाॅटतें  अपना-अपना दुख-सुख बाटतें। माँ से ही सबसे अधिक घुल-मिल कर बाते होती।
       माँ का छोटे भाई के लिये रात के दस बजे तक खाने की थाली लेकर बैठे रहना। पीछे का दरवाजा धीरे से खोल कर भाई का अन्दर आना क्योंकि बाबूजी तो नौ बजते-बजते सोने चले जाते।मसहरी तन जाती बेडरूम की लाइट बुझ जाती नियम व रूटीन के पक्के थे बाबूजी। क्या मजाल कुछ भी बदल जाये। भाई ने नई-नई प्रेक्टिस शुरू की। पहला के की तैयारी, गलत को सही, सही को गलत सिद्ध कर उच्चन्यायालय में वकालत का पेश। कम त्रासद नही था। बड़ी-बड़ी कानून मोटी किताबें तर्क, बहस। पहला केस जीतना और हारना मनुष्य कभी भूल नही सकता। मील का पत्थर बन जाता है वह अनुभव। न दुराव न छिपाव सहज सरल मन की बातें। पहली बार जब पहला केस जीत कर जगराम की मिठाई में चाकलेट की वर्फी का डब्बा कितना एजाॅव किया था हम सबने वह पहली जीत व पहला कैरियर का मुकाम। सब घेर कर बैठ जाते और बातों का सिलसिला कम से कम एक घण्टा तो चलता और अम्मा के कहने पर सभा विखर जाती।


Sunday, July 27, 2014

ANUBHUTI

                                                                   अनुभूति
      मेरे घर के किचन की खिड़की के सामने एक सफेद देशी गुलाब के फूलों का झुरमुट है कलियों और फूलों से गहराया हुआ, जो अपनी भीनी-भीनी सुगन्ध और खूबसूरती, से किचन में काम को करने के उत्साह को दोगुना कर देता है। मस्त होकर काम किया जा सकता है। इधर दो चार दिनों से देख रही हूँ एक युवा बुलबुल का जोड़ा बार-बार उस झुरमुट में आते है फूल हिलने लगते है कलियाँ मुस्कुरा उठती है और वह सारे पत्तियों को हिलाते झुलाते निकल जाता है। दिन भर उनका नियमित आना-जाना तो मैं देख ही रही हूँ। उत्सुकता और कुतूहलवश जब मुझसे नहीं रहा गया तो मै अपनी जासूसी निगाहों से खोजने चली कि आखिर वहाँ है क्या? धीरे-धीरे कदमों से पहुँची तो देखा कि कोमल पत्तों के दोनों पर, दो टहनियों के मिलन स्थान पर एक नन्हा-सा सीधा-साधा आडम्बर विहीन प्यारा-सा टोकरी नुमा घोंसला हल्की-हल्की सींकों से बिना गया ताना-बाना सुन्दर आकार में जिसमें बैठी मुकुटधारी गर्वाेन्नत बुलबुल आह-----कितना आनन्दित कर देने वाला स्वर्गिक दृश्य! इसी के निर्माण के लिये यह युगल पूरे जोर शोर से तिनका जोड़ने में लगा था? वर्षा के पानी की फुहारें पड़ती, सूरज की पहली किरण छन-छन कर आती और दोपहर की तेज धूप को भी अंगूर की लता का वितान बचाता और झूले पर उसको झुलाता। मन खुश हो गया नये जीवन के आने का इतना सुन्दर व भव्य आयोजन। नैसर्गिक दृश्य, आनन्द की गहन अनुभूति न पिंजड़ा, न सुरक्षा के लिये बाह्य आडम्बर सुविधाये, न पहरेदार बस ईश्वर द्वारा प्रदत्त नैसर्गिक सुविधाओं और साधनों में ही जीवन का आनन्द-आनन्द तो आस-पास बिखरा पड़ा है खुशियाँ ढ़ूढ़ रहे है मोबाइल सिनेमा, टी0 वी0 के सीरियल माॅल शाॅपिंग में। यदि तन-मन दोनों स्वस्थ्य है तन के चाहिये थोड़ा-सा आराम और मन को सुकून। आनन्द की विभोरता। सब पक्षियों, प्राणियों के लिये समान रूप से उपलब्ध व सुगम। जिसका जितना आँचल, आवश्यकता, उसी के अनुपात में लेकर संतुष्ट और सुखी, न ईष्र्या न द्वेष।
    मेरे मन! क्या तू इस पाखी की तरह नहीं हो सकता? मस्त, तुष्ट और ईष्र्या विहीन।

Sunday, June 1, 2014

Apshakun

                                                                    अपशकुन                       
     जब कभी आपका दिन अच्छा बीतता है तो अनायास मन चहक कर सोचने लगता है कि आज किसका मुँह देख कर उठा था कि सब कुछ इतना अच्छा और सफल बीत रहा है। और यदि कहीं सुबह से ही कुछ गड़बड़ होने लगे तो दुखी मन से आह निकल पड़ती है ‘‘न मालूम किस मनहूस का चेहरा देखा था, कौन सा अपशकुन हुआ जो सारा दिन ही बिगड़ गया शकुन और अपशकुन सब मन का भ्रम है। इसी को बताती प्रस्तुत हे एक लघुकथा का व्यंग्य नाट्य रूपान्तर-देखने में छोटी लगे घाव करे गंभीर। विचारों और सोच में उथल-पुथल मचाने वाली, अकबर और बीरबल के माध्यम से उनकी कहानी का नाट्य रूपान्तर अपशकुन।
(कमरे की सजावट- दीवार घड़ी, पलंग पर मखमली पलंगपोश, सिरहाने दोनो तरफ तिपाई पर सुराहीदान, पानी, फूलदान, पलंग के साने पायदान उस पर मखमली जयपूरी जूती। अकबर के गले में मोतियों की माला, कानों में कुण्डल सिल्कन शेरवानी या अचकन, अलीगढ़ी पायजामा पलंग पर लेटे सोने की मुद्रा में लेटे हुये अकबर सुन्दर शान्त शयन कक्ष। परदा खुलता है।
     दीवार की घड़ी ने दस बजाये और उसकी आवाज के साथ ही हड़बड़ कर अकबर उठ बैठे
अकबर (मन ही मन जोर से आँखे मलते हुए अगड़ाई लेकर)
अरे यह क्या। आज तो इतनी देर तक हम सोते ही रह गये? दिन के दस बज गये और पता ही नहीं चला? (चारपाई से उतर कर जूती पहनते है बालों को हाथों से सवारते है) जोर से।
‘‘या खुदा, परवरदिगार! आज मन कुछ उदास और उदास परेशान सा क्यों लग रहा है’’
(उठ कर आगे बढ़ते है सामने मंच की ओर अचानक सामने ही सफाई करने वाले जमादार से आँखे मिलती है।
ज्मादार: (सकपका कर) आदाब बजाता हूँ जहाँपनाह झुककर तीन बार जमीन को छूते हुये सलाम करता है और धीरे-धीरे पीछे खिसकते हुये आँखों से दूर कर मंच से बाहर निकल जाता है।) (नाखुश अकबर जैसे ही वापस पीछे मुुड़ते है कालीन में पैर फँस कर गिरने का अभिनय कर झुझलाते हुए)
अकबर - आज मैने यह किसका चेहरा सुबह-सुबह देख लिया। न जाने यह क्या-क्या दिखायेगा? (अचानक उनका ध्यान अपनी उगलियों पर जाता है आश्चर्य से)
अकबर- अरे मेरी रूबी अगूँूठी! कहाँ गई  (ढ़ूढने का प्रयास करता है)
यह कैसी है दिन की मनहूस शुरूआत!
दूसरा दृृश्य
(कमरे में चुपचाप बैठे हुये, कपड़े बदलते हुये सामने टेबल पर कुछ फल रखे है। अपने ठुढ्ढी को बार-बार सहला रहे है और स्वयं से बात कर रहे है।)
अकबर - नाई ने दाढ़ी बनाते समय उस्तरे से कुछ ज्यादा ही गहरा जख्म (घाव) कर दिया।
(थोड़ा दुखी हो कर चुपचाप फलों की ओर देखते है एक फल को उठा कर काटते है फिर खाते हुयेू अलग रख देते है।
अकबर- छिः कितने बेस्वाद है ये फल! छोड़ कर पुनः टहलते है इधर से उधर
(अचानक दूत का प्रवेश)
दूत- जहा पनाह अत्यन्त दुख की खबर है आपके चचेरे भाई का इन्तकाल हो गया है।‘‘ कह कर एक ओर खड़ा हो जाते है (अकबर सिर पकड़ कर चिल्लाते हुये)
अकबर- दूर हो जाओ मेरी आँखों से, यह तो परेशानियों और दुख का इन्तेहाँ है। बीरबल ------ बीरबल कहाँ है? इसी वक्त बीरबल यहाँ हाजिर हों जाओं ----जाओं  उन्हें मेरे पास भेजों।
(दूत का बाहर निकल जाना और बीरबल का मंच की दूसरी ओर से प्रवेश) बीरबल को देखते ही लगभग चीखते हुये
अकबर- बीरबल! आज का सारा दिन मेरा बड़ा ही मनहूस और परेसानियों से भरा बीता है। हो न हो यह सब उस अभागे का ही बुरा प्रभाव का ही बुरा प्रभाव हो। आज सबसे पहले उस झाड़ू लगाने वाले जमादार को ही मैने देखा और तब से मेरी हर चीज उल्टी-पुल्टी और गलत होती जा रही है। मैं चाहता हूँ उस अपशकुनि मनहूस जमादार को मृत्यु दण्ड दिया जाय। कल सुबह होने से पहले उसका सर धड़ से अलग कर दिया जाये।
बीरबल- जैसी आपकी इच्छा और आज्ञा आलम पनाह! (बीरबल शान्तिपूर्वक कहा और चुपचाप जल्दी से कमरे के बाहर निकल गये।)
(परदा गिरता है नपथ्य से)
जब जमादार को यह पता चलता है कि उसकी मौत इन्तजार कर रही है राजा ने उसे मौत का फरमान सुनाया है (परदा खुलता है। जमादार और बीरबल मंच पर दिखाई देते है।)
जमादार- मेरे प्राणों की रक्षा करें, महाराज मेरे प्राणों की रक्षा करें। मेरी इसमें क्या गलती है? मैने कौन सा अपराध किया है केवल आप ही मुझे जहापनाह के क्रोध से बचा सकते है।
   यदि मैं मर जाऊँगा तो मेरे बाल बच्चों और पत्नी का क्या होगा उन्हें कौन देखेगा? (पैरों को पकड़ कर गिड़गिड़ाता और रोता है)
बीरबल (पैरों से उठाते हुये) अपने आँसुओं को पोंछ डालों। मैं तुम्हो बचाने की पूरी कोशिश करँूगा ।
(परदा गिरता है)
दूसरे दिन राजा का सुबह होने से पहले प्रार्थना करना और खुश तथा शान्त महसूस करना कमरे में शान्त मुद्रा में। खटखटाहट
(बीरबल का प्रवेश)
(बीरबलल को देख कर अचानक राजाज्ञा का याद आना)
अकबर- क्या जमादार के लिये दी गई सजा दी गई? (कुछ दुख के साथ)
बीरबल- सारी तैयारी पूरी हो चुकी है शाह आलम। लेकिन जमादार एक बात को बार-बार कह रहा है मै समझ नही पा रहा हूँ कि क्या किया जाय। मैं कैसे इसका विरोध करूँ जहाँपनाह!
   पहला आदमी जो आपने कल देखा था वह जमादार था आपने उसे अपशकुन समझा और माना और आपका सारा दिन बुरा बीता।
    परन्तु जहाँपनाह, जमादार ने जिस व्यक्ति को सबसे पहले देेखा वह आप थे महाराज! (विनय के साथ झुककर बताते हुये)
     जमादार का मानना है कि आपका चेहरा देखना उसके लिये ज्यादा दुर्भाग्यशाली रहा आपके द्वारा उसका चेहरा देखा जाना वह मौत को गले लगाने जा रहा है उसकी मौत होने वाली है क्योंकि जो सबसे पहला आदमी उसने देखा वह आप ही थे महाराज
   (बीरबल ने अकबर की ओर देखा। वह चुप थे सोच की मुद्रा में गंभीर थे)
बीरबल- देर हो रही है महाराज। क्या मैं मौत देने वाले को अपनी कार्यवाही शुरू करने का आदेश दे दूँ कह दूँ कि अपना काम पूरा करें।
(राजा अकबर अपना हाथ उठा कर रोकते हुये)
अकबर- ठहरो बीरबल मैने अपना विचार और निर्णय बदल दिया है जमादार को जाने दो। वह सही कह रहा है उसके सटीक तर्क ने उसकी जान बचा ली।
     या यह तुम्हारी बुद्धि का कमाल है? आओं बीरबल! ज्यादा भोला बनने की कोशिश मत करो। मै बिल्कुल भी नाराज नहीं हूँ। जमादार से कहो उसके राजा ने उसको माफ कर दिया है।
     तुम्हारी मध्यस्थता के लिये धन्यवाद बीरबल! मैं बहुत खुश हूँ।


                                                               पर्दा गिरता है                                                                                                                                                                                                            

Pachtawa

                                                                      पछतावा                                   
      मन बहुत घबरा रहा है। डा0 की रिपोर्ट आ गई है कुछ अच्छा संकेत नहीं है। बरामदे में बैठी चुपचाप अस्त होते हुयेे सूर्य को देख रही हँू। आकाश में पश्चिम दिशा में लालिमा लिये शान्त वातावरण और पक्षियों का कलरव करते हुये घोसलों पर वापस लौटना खगों की पंक्तियों का एक समूह परिवार की तरह आकाश में उड़ते गन्तव्य की ओर अग्रसर तभी नजर पड़ी एक अकेली चिडि़या पर शायद थोड़ा छूट गई थी। निस्सीम आकाश और और अकेली एक छोटी-सी चिडि़या पंख थक रहे थे अपनों से बिछड़ती आसरे के वृक्ष को खोजती।
     कही यह मैं ही तो नही? मै और मेरी इकलौती बेटी। दिल काँप उठा। व्याकुल होकर बरामदे में टहलने लगी। ओह कुछ टूट रहा है मन डूब रहा है लगता है अब समय नही है। मेरा तो सूरज डूब रहा है। मगर मेरी बेटी तारा उसका क्या होगा कहाँ रहेगी? कैसे? पार होगा उसका जीवन। आर्थिक रूप से समृद्ध भी तो नहीं। 3000 की टीचरी नर्सरी की शिक्षिका। सुख-सुविधाओं में पाली। पानी का एक गिलास तक नही उठवाया। और अब तो आदत भी बिगड़ गई है। अपने आप सोचने, निर्णय लेने की क्षमता तो मैने ही समाप्त कर दी।मैं ही उसके लिये सब सोचती रही। कितना पढ़ना है कौन सा विषय लेना है कैसे जाना है नौकरी नही करने देना है बस-घर, कार, टी0वी0 घर का कमरा और इण्टर नेट। क्रिकेट देखने का शौक पागलो की हद तक। अमिताभ बच्चन फेवरेट उनके ट्विटर फेस बुक पर रहना गिने चुने मित्र न घर पर दोस्तो का आना जाना। बस में ओह मेरी तारा अगर उसकी शादी हो गई और वह पति के घर चली गई तो मरेा क्या होगा। मै तो उसके साथ कभी नही जा सकती। पति की अचानक हार्ट अटैक से मृत्यु के बाद विदेश में बस गये बेटे-बहू के पास जाने का तो प्रश्न ही नही उठता बस तारा हो तारा ही रहेगी साथ यही सोच कर मै रिश्ते की बात तो चलाती इश्तहार देती दरवने दिखाने का उत्साह व नाटक देखाती बक्सी के बक्से कपडे़ खरीद कर जमा करती दिया नई-नई डिजाइनों के गहने से लाकर भी भर दिया ताकि उसे यही लगे की मै उसकी शादी और घर बसाने के लिये चिन्तित हूँ लड़के ढ़ूढ़ रही हूँ और बीच-बीच मे यह भी कहती हूँ कि अगर तुम्हेू कोई पसन्द हो तो बताओं कर दूँगी। मगर किसी से मिलने-जुलने पर सख्त पाबन्दी मेरी ही लगी रहती। किसी का फोन आता तो दूसरे कमरे में दरवाजे से सटकर सुनती कसी लड़के का तो नही। और परेशान हो जाती कि अगर किसी को पसन्द कर लिया शादी की जिद कर बैठी तो-----? हर तरह से असुरक्षित मैं कुण्डली मिलाने घर परिवार को देखने के कार्यों को तेजी कर देती। लेकिन मै जानती थी यह मेरी सान्तवना थी तारा के लिये, मेरा कनर्सन दिखाने का।
          40 की उम्र पार हो गई। अब क्या शादी होगी। समय निकल गया। अब तो समझौते की होगी शादी। बच्चो और परिवार बढ़ाने का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा। जब से मेरी बीमारी की रिपोर्ट आई है उसे भी गुम-सुम चुप देख रही हैं। उसके मन मं क्या चल रहा होग मैं सोच पा रही हूँ पैसा तो बैंक से भरपूर है पर न रहने पर जायेगी कहाँ जायेीगी? रहेगी कहाँ? भाई-भाभी के जीवन में अनचाहे बोझ की तरह। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। हाय मेरी तारा। मेरी बच्ची मैने यह क्या किया? एक भाई वह भी इतनी दूर। जब तक हाथ पैर चलेंगे तब तक तो ठीक मगर कही कुछ वृद्धावस्था की बीमारी? 
   कब तारा पीछे आकर खड़ी हो गई गले में हाथ डाल कर बोली क्यों उदास हो माँ मैं जानती हूँ तुम क्या सोच रही हो मत चिन्ता करो। मै ठीक हूँ काम करती हूँ घर तो तुमने मेरे लिये कर ही दिया है। बीमार पड़ुँगी तो आस पड़ोस कोई न कोई हास्पीटल पहुँचा ही देगा। क्या अकेले कोई रहता नहीं। अकेले तो होना ही है सब अकेले है माँ। मुझमें साहस है मैं जी लूँगी। चलो तुमको दवा खिला दूँ।

Tumhara Path Ujjawl Hai

                                                              तुम्हारा पथ उज्जवल है            
हम तो बीते, रीते, रीते
काँटे चुनते, राह बनाते
धीरे-धीरे आ पहुँचे--
अब इस पड़ाव पर
आने वालों! बढ़ते आओ,
                                 निर्भय होकर, पुलकित होकर
                                पद चिन्हों का आश्रय लेकर
                                और उन्हें कुछ सुगम बनाकर
                                तन-मन हर्षित है, आलोकित,
                                और तुम्हारा पथ उज्जवल है।
मार्ग अगर है टेढ़ा-मेढ़ा
ऊँचा-नीचा फिर अति ऊँचा
स्ंकरा, पतला चौड़ा फैला
या------ अति गहरा
शिथिल हुये तुम थक जाते हो
                                ठहरो, पल भर कुछ सुस्तालों
                                देखो मनोरम चिन्ताहारक हारक
                                दृश्य चतुर्दिक बहते झरनों की
                                किलकारी, पशु, पक्षी कलरव
                                कोलाहल, कही छाँव में--
                                सोचो प्यारों, पलभर सोचों
नई ऊर्जा भरकर खुद में
नई मानसिकता का आसव
दृढ़ हो भय डर कैसा अरे
 आत्मा विश्वासी मानव हो
तुम वीर साहसी------
और तुम्हारा पथ उज्जवल है।
                               जगह-जगह सेकेत बनाते
                               चलते-चलते चलना जीवन
                               जूझ-जूझ कर जीना जीवन
                               औरो के हित जीना जीवन
                               मेरा तो गन्तव्य यहीं तक
आगे हमसे राह बनाना
काम तुम्हारा लक्ष्य तुम्हारा 
इसी तरह चलता जायेगा
जीवन पथ बढ़ता जायेगा
                              और-और कुछ और---
                              हजारों वर्ष बनेगे
                              हम न रहेंगे तुम न रहोगे
                              आना जाना लगा रहेगा
                              पथ का कोई अन्त न होगा
महाजनों का नाम रहेगा
पदचिन्हों का शेष रहेगा
इसी लिये कुछ ऐसा करदो
रह जाये बस नाम तुम्हारा
नाम तुम्हारा, पथ उज्जवल है
                                                  स्नेह चन्द्रा
                 

Sunday, April 20, 2014

BODHI VRIKSH



                                         Bodhi Vriksh           
                                                                                                         “A mini Baniyan Tree”
        This Baniyan tree has given me so many thoughts to think and rethink. It is a source of enlightment One thing which comes in my mind is its long down down going roots in the soil and again coming up to make the tree huge, Providing shelter for all kinds of birds and shade to all the living beings. Man has got the capacity and ability to grow him self in a proper way to serve society. Baniyan tree i the symbol of Great Budha  Spreds Maximum goodness in the society with his special qualities and richness.
        Thank you for making me the member of SGI society Practical life has changed my whole Perception towards life. I want to share one thing that earlier I had a “Bodhi Vriksh” in a smaller shape of mini tree. It is still with me.
        When I used to feel depressed confused impatient  and disturbed I used to sit near, beside it and  think about BUDHA and his philosophy. How he would have enlightened him self.
        Now when I came in touch with SGI my attitude has changed. In day to days life I am Practicing it with small incidents. I feel I am able to change my actions feeling according to HIM. Thank to SGI group. Thanks a lot, I am grateful.

MAHAK UTHI

                              महक उठी
                     महक उठी फूलों की डाली
                     गमक रही फूलों की क्यारी
                     करण पूछों, मै बतलाऊ --
                     झूम-झूम मुसकाई बोली
                     महक उठी फूलों की डाली
                     नई कली किलकारी उसकी
                     पत्तों के झूलों में झूली
                     भौरें तितलियाँ मचल-मचल कर
                     कोमल किरणे गीत सुना कर
                     चूम-चूम मुख सब दुख भूली
                     महक उठी फूलो की डाली
                     खिले बड़े फूलों ने हँसकर
                     दुलराया, सहलाया जी भर
                     आशीषों की उन पर डाली
                     चूमचाट कर भर दी झोली

EHASAS

                                                                        एहसास
      यह मन ही तो है जिसके इर्द-गिर्द, वातावरण से प्रभावित होकर हमारे जीवन की हर क्रिया-प्रतिक्रिया संचालित होती है मन अगर खुश है, आशान्वित है तो सारा संसार, संघर्ष और सुख-दुख के थपेड़े सहन करने की असीम ऊर्जा आ जाती है और मन पर निराशा और संशय के बादल छाये हो तो सब कुछ वैसा ही निष्क्रिय उदास और गहन पीड़ा से भरा हुआ लगता है। आलस्य घिर आता है हिम्मत छूट जाती हे जीवन के डोर की पकड़ ढ़ीली होने लगती है।
       ऊर्जा, स्फूर्ति और अदम्य साहस के स्त्रोत है, प्यार संवेदना और सुरक्षा की भावना। प्यार का एक मीठा बोल, सान्त्वना का एक कोमल स्पर्श और साथ-साथ सदैव बने रहने का विश्वास्त आश्वासन। कितने आश्चर्यजनक परिवर्तन साहस ही नही दुससाहस, संघर्षों से जूझ कर जीतने की जिजीविषा। सफलता-सफलता-सफलता। पीछे मुड़कर न देखने की आवश्यकता। प्रशस्त और उज्जवल पथ। यह सब अहसास ही तो है केवल अहसास।
जिन्दगी खूबसूरत और बेहद खूबसूरत नजर आती
जब अहसास होता है कि
कोई मुझे प्यार करता है
कल्पनाओं के पंख लग जाते है
मन हर ऊँचाइयों को छूना चाहता है
निस्सीम गगन में उड़ना चाहता है
जब अहसास होता है कि
कोई मेरे लिये दिल से सोचता है
मंजिले साफ, बिल्कुल साफ नजर आती है
दीवानगी हद से गुजर जाती है
कदमों की चाल में निखार आ जाता है
जब अहसास होता हे कि
गर लड़खड़ाऊँ, कोई थाम लेगा
गले से लगा कर कोई प्यार देगा
जिन्दगी, खूबसूरत बेहद खूबसूरत
नजर आती है, नजर आती है।                    

Sunday, April 6, 2014

DO AKHEN

                                          दो आँखें                    
शायद ये आँखें रिमोट की है
रूप रंग आकार से परे
एक अहश्य पाप कर्म से उपजे
अवसाद की, आत्माग्लानि से
कसकते मन की आँखे जो
पीठ पर चिपक गई है?
                            हर वक्त हर साँस हर कदम पर हावी
                            ये आत्माग्लानि की आँखें
                            देख रही है घूर रही है कचोट रही हैं
                            एक ऐसी फाँस गड़ी है जो मन प्राण
                            छटपटा रहे है, प्राण कंठ तक आकर
                            भी नही जा रहे है सब कुछ ईश्वर के हाथ
जन्म मृत्यु चाह कर भी नही मिलती
कठपुतली-सा नाच रहा, नाच रहा जीवन है 
छपाक से किसी ने कुछ फेंका रिमोट से
पीठ पर चिपक गई है दो आँखे------
                            विश्वास के निरीह भोले ‘‘फ़ाख्ते’’ को
                            निर्ममता से टेंटुआ दबाकर मार डाला गया है
                            वहशीयत ने एक बार फिर अपना वहशीपन
                            दिखाया है
                            बाप बेटी, बहू ससुर और इन्सानी रिश्ते खतरे में
                            है
हज्जाम में सब नंगे है किसी कोई इन्सानियत का जामा (लिबास) पहनाये
रात के अन्धेरे में हर पुरूष एक सा है, दिन में सबके चेहरे निष्पाप है
आदर्शों के पुतले है, भगवान के चेले है सत्संग में गुरू के तख्ते पर विराजमान है
न्याय अन्याय पाप निष्पाप देखते-देखते
किसी ने शायद कुछ फेका रिमोट से और
पीठ पर चिपक गई दो आँखें
कही से अचानक छपाक से 
कुछ फेंका रिमोट से
और पीठ पर चिपका गई दो आँखे।
  
कदम कुछ आगे बढ़े
हाथ उठे ओंठ मुस्कुराये
एक हलचल सी हुई मन में
कुछ चटका कुछ दरका
और रेगने लगी सर्पिल, अंगोर सी आँखें
पीठ पर चिपक गई हैं दो आँखें

पीठ पर चिपक गई है दो आँखें
बहती बयार की सिहरन
फूलों के प्यार की थपकन
जैसे ही घोलने लगी रंग
दहक उठी अंगार सी आँखें

पीठ पर चिपक गई दो आँखें
कही से अचानक किसी ने कुछ
फेका रिमोट से, पीठ पर चिपक गई दो आँखें।

अंगार से पीठ पर फफोले से उभर आये
तपन से, जलन से, तनमन फुकने लगा

प्रियतम के विश्वास घात का विष चढ़ने लगा
सब कुछ स्याह, निर्जीव सा जीवन घिसटने लगा
किसी ने रिमोट से कुछ फेंका
और पीठ पर चिपक गई दो आँखें  
  
  
  
  
  

LAKSHYA

                                                                      लक्ष्य                       
चलें, गाँव की ओर,
गाँवों में ही भारत बसता
भारत माँ का रूप विहसँता              
गाँवों की उन्नति से ही तो
खुशियाँ, नाचेगी चहुँओर
                                                                            आदि कलायें, शिल्प ज्ञान जो
                                                                            दिव्य धरोहर, अपनी है वो
                                                                            करे आलोकित जग कण-कण को
                                                                            नाच उठे मन मोर,
अपनी संस्कृति, अपनी भाषा
अपनी धरती अपनी आशा
नये पुराने हिल-मिल विकसें
सोन भरे सब ओर------
                                                                           हिम्मत मेहनत नारा अपना
                                                                             स्वास्थ्य सफाई पहला सपना
                                                                              रोग-शोक सब दूर भगाये
                                                                              सोन झरे सब ओर
                                                                              चले गाँव की ओर------
                                                                  

Sunday, March 30, 2014

MAID-THE MESSIAHA



                                                          MAID-THE MESSIAH                     
       Wheel of time (Kal chakra) is moving and rotating. The maids of the house have secured their special place and respect in the family by percivirience of their work and loyalty
      In the parties of higher societies and interaction in middle class societies with other maids they get to know ideas with other maids to extract and extort from their master (mem sahib) Mem sahib thinks that she is taking maximum advantage and work out of them but never understand that they are sitting on an ivory tower thinking that, but reality is that slowly-slowly these maids have become so dominiating in day to days life that without them master’s own working has become shakey.
    We are now a days more dependent on them therefore treat them as an true family member in our day to days life they have become more like a guide, well wisher, friend, helper, care taker combined all in one.
     Today’s scenario in different from earlier days we should accept it graciously and gracefully. Earlier they use to be more economicaly dependent on the masters but with changing envoirment and open economic capacity  their purchasing power has tremendously increased and they are more equipid with latesh gadgds and appliences not only that their wisdom and understands power, quick sense (6th sense in bargaing) direct and indirect profit in terms of money and other facilities and amenties they have become more calculative. They are progressive may not have degrees or college education but still----
          If you are lucky to have that type of helper in the house be thankful to god. Appreciate then, love then and care for them. They are not more the maids only but pivot of your precious family around which day today’s life revolves. 

                                                                         Good luck

GHAR KA BHEDI

                                                                   घर का भेदी
      जाडे़ के दिनों में मार्निग वाक्  का नियमित समय सुबह 5ः30 का न होकर कब और कैसे सात बजे का हो गया कुछ पता ही न चलाए, शायद कोहरा और ठंड की वजह से, तेजी से कदम बढ़ाते-बढ़ाते जगह-जगह पर कुछ घर में काम करने वालियों का झुण्ड मीटिंग करते हुये दिखा। छोटी-बड़ी बूढ़ी युवतियाँ हर तरह की वेशभूषा, हर रंग की सजधज सड़क पर अभी आवागमन शुरू नहीं हुआ था बस यही कुछ लोग दिख रहे थे और जोर-जोर से बातचीत सुनाई पड़ रही थी।
    मुझे याद आ गई दीपावली के अवसर पर उत्तर भारत में मनाई जाने वाली भाई दूज के अवसर पर कही जाने वाली एक लोक कथा जिसमें एक कुएँ  के जगत पर हर घर में जलाई जाने वाली दिये इकठ्ठे होती है अपने-अपने घर के मालिक-मालकिन की, परिवार के दुख-सुख की बाते एक दूसरे से शेयर करती है। शायद ऐसा ही कुछ यहाँ भी था। सभी कामवालियाँ अपने-अपने घरों का कच्चा चिट्टा खोलने में मगन थी। उपहास व्यंग्यों के, अपशब्द, प्रशंसा सभी प्रकार के शब्दों के बाण चल रहे थे।
     मेरी चाल स्वतः ही धीमी हो गई। तरह-तरह की बातें, सुनाई पड़ रही थी ये जब हर घर की ब्रॉडकास्टिंग  रेडियो स्टेशन है। जो चीजे, बाते कोई नहीं जानता वो ये जानती है और जगह जाहिर करती है अतः प्रत्येक परिवार को अपनी प्राइवेसी बनाये रखने के लिये अपने व्यवहार बात चीत संतुलित ही रखने  चाहिए इसी में भलाई है।

SAMAYA

                                                                समय                   
समय बड़ा बलवान
समय बड़ा अधिकारी शासक?
देनी पड़ती हर को कीमत
समय भाँगता जो भी, सब नत मस्तक।
                                                               समय, समय का खेल बना
                                                               जगजीवन, वन उपवन, जड़ चेतन
                                                               बच्चे हुये जवान, जवान बूढ़े फिर जर्जर
                                                               कहाँ रोक पाया? कोई यह परिवर्तन
जो अधखिली कली थी
आज फूल बन विहँस रही
जो फूल खिला था उपवन में
वह आज सूख कर, विवश पड़ा
                                                              यह न रूकेगा यह न डरेगा
                                                              कल आज हुआ आज फिर कल होगा
                                                              इसी तरह चलता जायेगा समय विकल
                                                              सरक-सरक कर सरक जायेगा
जगमूक देखता रह जायेगा
जग मूक देखता रह जायेगा
समय बड़ा बलवान बड़ा अधिकारी शासक
देनी पड़ती हर को कीमत                                  

Sunday, March 23, 2014

DO KABOOTAR

                                                                 दो कबूतर                     
 छत की ऊँची मुँडेर पर
 ये जो बैठे है दो कबूतर
 ऊपर से नीचे, दाये से बाये
 तीखी निगाहों, कुछ खोजते जमीं पर
                                                        छत की ऊँची मुँडेर पर
                                                        ये जो बैठे है दो कबूतर
                                                        सोचते से, घूरते से लगते है
                                                        जैसे कोई फिलाॅसफर
सुबह से शाम, रात से सुबह
भागती, दौड़ती क्यों है जिन्दगी?
कोई रूकता क्यों नही, कोई?
ठहरता क्यों नहीं? संतोष,
क्यों नहीं है आराम क्यों नहीं है?
                                                           किस चीज का है चक्कर
                                                            मन शान्त क्यों नहीं है?
                                                            छत की ऊँची मुँडेर पर
                                                            ये जो बैठे है दो कबूतर
                                                             जैसे हो कोई फिलाॅसफर