Sunday, August 11, 2013

Vikas-Ek Mithya

                                
                                  
                             विकास-एक मिथ्या
      बड़ी ऊँची-ऊँची अट्टलिकायें
      चमकते, दमकते, फिसलनभरे संगमरमर के फर्श,
      मिट्टी की सोंधी महक को तरसते
      अपने सच्चे वजूद को, उसकी खुशबू को खोजते,
हम कहाँ थे कहाँ आ गये है?
फर्श से अर्श पर,
जमीं से आसमां पर
ऊँचाइयों को नापते-नापते जड़ों से
कट ही गये हैं।
    हवा में लटकते, त्रिशंकु से भटकते
    न धरती पर न आसमां में
    न जाने कहाँ खो से गये है
    अपने वजूद को खोजते-खोजते भटक से गये है।
    न ठंडी हवाये, न सूरज की रोशनी
    न वर्षा की बूँदे न मेघों की गरजन
न पंक्षी, न फूलों की सिहरन
फ्लैटनुमा घरों में बँध से गये है
न जाने क्यों हम कहाँ से कहाँ आ गये हैं
ये कैसा विकास? ये कैसा सुन्दरीकरण
कैसी फिजाये?
न मशीन ही रह गये है,
न इन्सान बन सके है।
मिट्टी की सोंधी महक को खोजते,
 अपने पन के प्यार को तरसते
हम ये कहाँ से कहाँ आ गये है।

Sunday, August 4, 2013

Vish ras Bhara

                         
                           
                             
                                                     विष रस भरा कनक घट जैसे
       सोने का चमकता घड़ा और तेज प्रकाश की किरणें आँखहों को चैधियाना तो जरूरी है न? यह केवल सूक्ति ही नहीं वरन् किसी भी आकर्षक कपटी व्यक्तित्व की सच्ची परिभाषा है रूप आकार है जिसमें एक-एक ऐसे धूर्त, चालाक राजनीतिक उठा पटक करने वाले व्यक्तित्व को सीमित कर दिया गया है।
        जब-जब मै उस सौन्दर्य शालिनीशिष्टाचार मधुर वाणी की से युक्त व्यक्तित्व को बाहर से देखती हूँ तो मननचाह कर भी बरबस उसी की ओर खिचता चला जाता है। पब्लिक रिलेशन में बढ़ चढकर सर्वोत्तम, सामान्य जनता को मोहने वाली बाते, कुछ खट्टी कुछ मीठी और उसमें मुस्काराहटों, छेड़-छाड़ का तड़का। एक खूबसूरत बला। तो आस-पास मँडरा-मँडरा कर साहचर्य का सुख प्राप्त करने वालो का हुजूम स्वतः ही लग जाता है। खिलखिलाहट मानों दूर कही घण्टियाँ बज रही हो और इठला-मिठला कर अपने घर परिवार बच्चों पति की अन्तरंग बातों को सुना-सुना कर कुछ नमक मिर्च लगा कर हँस-हँस कर लोट पोट कर देने वाली अदा से लोगों का ध्यान अपनी कमियों से हटा कर दूसरी ओर खीच देने का कौशल। अन्दाज कुछ ऐसा कि पुरूष सहयोगी सहपाठी उनके सानिध्य का मजा लेकर चुपचाप खिसक लेता शिष्टता दिखाते हुए आपस में आँखों ही आँखों से इशारा करते। और रह जाती कभी कनक छड़ी सी कामिनी कभी कनकघट सा जादूभरा दृश्य।
       और फिर जब तक  सोने के आवरण को पा कर घट का रसपान करने का समय आता अन्तरंगता बढ़ती तब तक दूरियाँ घटती । तब पता चलता कि विष रस की ज्वाला, विष की तीव्रता का प्रभाव कितना दाहक तिल-तिल कर मारने वाला स्लो प्वाइजन  साँप काटे तो पानी भी मिल जाय मगर इस व्यक्तित्व का मारा ----   सावधान! कहीं आपके आस-पास तो नहीं?