Sunday, December 29, 2013

SABBD AUR USKA PRABHAV


                                                        शब्द और उसका प्रभाव
‘‘शब्द एक शक्ति हैं’’। हाँ सामान्य नही- इसे दैवीशक्ति कहा जा सकता है। ये ‘‘शब्द’’ मनुष्य के विचारों के कम्पन से जाग्रत होते है, और विचार सम्बन्धित होते है चेतना या आत्मा से’’।
मनुष्य जो कुछ भी बोलता है उसका प्रभाव कितना गहरा और सजीव होगा यह निर्भर करता है कि मन के कितनी गहरी सच्चाई से वह कहा गया है। अधिकवाचालता, बिना सोचे समझे कुछ भी कह देना, शब्दों की महत्ता को कम कर देता है शब्दों का बोलना यदि ‘‘आत्मिक शक्ति’’ से पूर्ण न हो, तो व्यर्थ और प्रभावहीन है। इसलिए कबीरदास के सहज अनुभूत विचारों को इस दोहे में देखा जा सकता है।
         ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय
         औरन को शीतल करें, आपँहु शीतल होय।।
यही नही, वाणी शब्दों का प्रस्तुतीकरण अगर कहीं आपके बिगड़े काम को अनायास ही बना सकता है तो कभी बने हुये काम को पूरा होते-होते भी बिगाड़ सकता है। खूब सोच समझ कर हृदय रूपी तराजू पर तौल कर ही शब्दों को मुख से बाहर निकालना चाहिए। इस ‘‘राम बाण औषधि’’ और समस्याओं का समाधान करने वाले के रूप में ‘‘शब्द’’ को देखा जा सकता है। कहा भी गया है-
         वाणी एक अमोल है, जो कोई बोले जानि,
         हिये तराजू तौल कर, तब मुख बाहर आनि।।
इसके लिये धैर्य, सावधान और सचेत रहने की जरूरत होती है। प्रायः लोग अपनी धुन में, अहंकार में, जो मन मेें आया बोल देते है, कह जाते हैं। यह नहीं समझ पाते कि इसका क्या प्रभाव सुनने वाले पर पड़ेगा। जीभ तो कुछ सोच समझ नहीं सकती, वह तो सिर्फ बोलना जानती है सोचने का काम तो दिमाग, बुद्धि करती है। जीभ तो कुछ भी उल्टा बोली, उन शब्दों के प्रभाव से उस व्यक्ति को अपमानित होना पड़ता है सिर पर जूते पड़ते है। इसलिए कहा गया है
          जिह्वा ऐसी बाबरी, कह गई सरग-पताल
          आप तो कह भीतर भई, जूती खात कपाल।।
ये तो है सामाजिक व्यवहार और प्रभाव शब्दों का सही उच्चारण, विश्वास, सिन्सीयेरिटी, कविक्शन और इन्टयूशन, से भी कहे गये शब्दों का कम्पन या तीव्रता बमों की तरह विपल्वकारी होता है जो जब फेका जाता है तो बड़ी से बड़ी चट्टानों को भी चूर-चूर कर देता है  विनाशकारी होता है।
      ईश्वर ने हमको इच्छाशक्ति, और विश्वास दिया है एकाग्रता दी है, सामान्य ज्ञान, सूझ-बूझ दी है। हमे इन शक्तियों का प्रयोग शब्द बोलते समय करना चाहिए।
    सद्भावना, प्यार, साकारात्मकता, और दृढ़ता के साथ जब हम किसी शब्द को बोलते है तो वही मन की योग्यता को प्राप्त कर लेता है। एक बिन्दू या शब्द या वर्ण में समाहित शक्ति विस्फोट के समान प्रभावशाली बन जाती है। इस प्रकार सकारात्मक व नकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत शब्द का प्रभाव सृष्टि (या रचना) और नाश दोनों के लिये हो सकता है।



PATHAKON SE


अपने पाठकों से-
                                                                      मन की बात
     वर्षों से छात्र-छात्राओं के बीच पठन-पाठन से जुड़े रहने के कारण कहानियों, कविताओं, शिक्षण सम्बन्धी समसयाओं तथा उनके व्यवहारिक सुझाव देने में, पढ़ने लिखने में बच्चों और अभिभावकों की आने वाली कठिनाइयों के सरल समाधान देकर उन्हें आगें बढ़ा सकने में सहायता की रूचि ही मेरे लेखन की प्रेरणा रही है।
      बाल आवस्था से संवेदनशील किशोर और किशोर से कर्मठ युवा में विकासित होते बच्चे ने विशेष रूप से प्रभावित किया है। उन्हें बहुत करीब से देखने का मुझे मौका मिला है। मैं स्वयं को उनसे जुड़ा महसूस करती हूँ और उनके बारे में सोचना तथा लिखना मुझे अच्छा लगता है।
      दौड़ती भागती दुनियाँ, एकल होते परिवार हैरान परेशान माता-पिता, गिरते नैतिक मूल्यों, पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण एक ऐसी ‘‘अपसंस्कृति’’ को जन्म दे रहा है जहाँ नई पीढ़ी हतप्रभ है ओर पुरानी दुखी और बेबस (शौक्ड)। क्या करे कैसे सन्तुलन करे जब अपने सिद्धांतों विचारों का व्यवहारिक फल (पक्ष) कार्य रूप में उभर कर सामने आता है तो नई पीढ़ी के 20-25 वर्षों का अन्तराल निकल जाता है और लगता है अरे यह क्या? ऐसा हो जायेगा यह तो कभी सोचा ही न था’’। परिवार की परिभाषा बदल रही है, सोच और दिशा बदल रही है। हर बच्चा, बड़ा, बूढ़ा जवान नितांत अकेला है कन्फ्यूज्ड है मन ही मन डरा हुआ है। समय भाग रहा है, मुठ्ठी के रेत की तरह फिसलती जा हरी है खुशियाँ। यही सब बेचैन कर देती है मुझे और आप ही उठ जाती है कलम। मेरी रचनाओं के विषय अलग-अलग है- परिवार मनोविज्ञान, शिक्षा, बच्चे किशोर बूढ़े रिटायर्ड, पति-पत्नि माता-पिता सभी के पक्षों को छुआ है मैने। हर की सोच और आवश्यताये बदलती रहती है। हर स्तर की हल्की-फुल्की रचनायें।
      भाषा के सम्बन्ध में कही सरल और कही साहित्यक मेरे विदेश में रहने वाले बच्चों के लिये हिन्दी के प्रति रूचि जगाना भी मेरा उद्देश्य है। कुछ अंग्रेजी के प्रचलित रोज दिन के जीवन में प्रयोग आने वाले शब्द भी है तो कही पर अच्छी साहित्यक शुद्ध शब्दों का जो हिन्दी भाषा को अच्छी तरह जानते समझते है और आनन्द ले सकते है।
     हाँ इतना जरूर कहुँगी अगर कभी थोड़ा सा भी समय हो, पाँच मिनट ही सही। कुछ पढ़े जरूर। कोई जरूरी नही कि यही साइट हो।
    और अपने बारे में मै स्वयं लिखूँ? यह उचित नहीं। वह तो लिखेगे आप मेरे पाठक, मेरे बन्धु मेरे अपने। एक बात मै जरूर कहना चाहुगी कि जो मुझसे मिलता है मेरे सम्पर्क में आता है कहीं न कही मैं उसके मन मस्तिष्क को छू जरूर लेती हूँ। विचारों के शान्त झील में एक छोटे से कंकड़ की तरह गिर कर हलचल मचा देती हूँ थोड़ी देर के लिए ही सही। भावों के समुद्र में देश काल से परे सार्वभौमिक सत्य से जुड़कर उसे अपना बहुत आत्मीय बन्धु बना लेने की सामथ्र्य शायद मेरे व्यक्त्वि की पहचान है। बस यही है मेरे बारे मे मैं सबकी और आप सब मेरे है।
     पढि़ये और लिखिये जरूर, निसंकोच इंगलिश या हिन्दी जिसमें स्वयं को सहज महसूस करें भावों और विचारों की अभिव्यक्ति हो हम सब को जोड़ती है।
     समय-समय पर जब भी मेरी नई रचना पढे़ अपने विचार अवश्य दें। आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे विशेष रूप से इन्तजार रहेगा।
     
                               








Sunday, December 15, 2013

SWEEKAR



                        




                                                                        स्वीकार

                         नदी का उफान ही था
                         झंझा भरा तूफान ही था
                         रूकने लगा थमने लगा
                          अब सहज स्वीकार्य है
                                                                              प्रकृति का या दैव का
                                                                              यह रूप शिरोधार है
                                                                              सब सहज स्वीकार है
                                                                             

                           समय से बढ़ कर नही कुछ
                           तीव्र कितनी वेदना हो
                            घाव भरने में नही कुछ
                            गहन जितनी साधना हो 
                 
                                                                             संघर्ष देेता गति समय को
                                                                             तोड़ कर हर विघ्र बाधा
                                                                             जोश भरता जीतने का
                                                                            सब सहज स्वीकार है।
                  

VIWASHTA


                                                                      विवशता
       क्या करूँ रानी! सिनेमा की रील की तरह बचपन से अब तक की यादें मुझसे लिपट-लिपट कर मुझे मरने नही देती। बीच-बीच में आप लोगों का समय निकाल कर आजाना, मिलना मेरी उम्र को और भी बढ़ा जाता है। शुभकामनाये तो हरदम आपके साथ है 90 की उम्र। हाथ-पैर चलता रहें किसी के अधीन होकर निर्भर न होना पड़े रानी। बस कब जाना होगा यही सोच-सोच कर हैरान हूँ। कितनी लम्बी उमर लेकर आई हूँ। कौन-सा बड़ा काम बचा है? जिसके लिये भगवान ने रोक रखा है। यही सोचती हूँ। सफेद सन् जैसा कोमल चमकीले बाल अस्त-व्यस्त, इधर-उधर झूलते फैले रहते इसीलिये अबकी बार बहू और बेटियों ने मिलकर, समझा कर बाल कटवा दिये। इन्दिरा गाँधी नहीं-नही शीला दीक्षित मुख्यमंत्री दिल्ली की तरह। इस उम्र में भी भारत की राजधानी दिल्ली की मुख्यमंत्री की तरह कार्य कुशल, संवेदनशील, भव्य साफ-सुथरा चेहरा अनुभवों से दमकता। झुर्रियाँ तो चेहरे पर नही है मगर कमर कमान की तरह झुक गई है सोच और उमंग में वही नयापन। हर पल, समय के साथ बदलने की चाह। किसी भी भाव घटना की तह तक जाकर तर्क- वितर्क समझाने में निपुणता अभी भी वही पुरानी है शरीर थक चला है मगर कल्पनाओं के पंखों के सहारे कहाँ- कहाँ तक घूम आता है मन।
      मैने और मेरी बड़ी बहन जो कलकत्ता से आई है बिना किसी पूर्व सूचना ज्ञानपुर में रहने वाली नानी माँ को आश्चर्य चकित कर देने की इच्छा से अचानक पहुँच कर उन्हे अचम्भित कर देने की ठानी। बचपन का वह नटखटपन मानो हम दोनों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। बड़ा मजा आयेगा। नानी माँ अचानक ही अपने सामने पाकर कया रिएक्ट करेंगी देखने के लिये मन मचल उठा था। हम फिर से बच्चे बन गये थे। बस की दो घण्टे की यात्रा बचपन की बातो, घटनाओं को याद करते दोहराते बतियाते कितनी जल्दी बीत गई कुछ पता ही नही चला।
      कन्डक्टर ने चिल्लाकर याद दिलाया ज्ञानपुर-- ज्ञानपुर--3 कौन उतरने वाले है जल्दी करें। हड़बड़ा कर ड्राइवर, और दूसरे यात्रीगण पीछे मुड़ कर देखने लगें। घबड़ा कर अपने-अपने झोले पकड़े हम एकदूसरे का हाथ पकड़े उतर पड़े। शाम को तो वापस लौटना ही है इसलिये छोटे-छोटे झोले ही काफी थे। 75 वर्ष की बड़ी बहन और अड़सठ वर्षीय मैं एक दूसरे का हाथ इस तरह कस कर पकड़े थे कि कहीं बिछड़ न जायें बस से उतर कर। उम्र का भारीपन असुरझा की भावना को किस कदर बढ़ा देता है यह उसी पल महसूस हुआ।
  घर तक पैदल ही चलना था। मेन रोड से दो फर्लांग। ओह! पाँच वर्षों के बाद आ रहे है नानी घर। कुछ भी तो नहीं बदला। सब कुछ वैसा ही बातो का जो दौर चला तो नानी माँ की आँखों में चमक आ गई। हँसते-गुनगुनाते कभी चुपचाप सोचने से लगती, कभी आँखें नम हो जाती कभी प्यार से सराबोर, कभी उदास कभी खुश कभी खिलखिला पड़ती। 32 वर्ष की आयु से ही वैधव्य की मार झेलती अपनी माँकीसीखों को याद कर, उनका पालन करते हुये जीवन के इस मोड़ पर आ पहुँची थी नानी माँ।
     जानती है रानी! जिस साल आपका जन्म हुआ उसी साल व्याह कर आई थी इस घर में। बहू का आगमन, स्वगत सब लोग हँसते गाते ढ़ोलकक बजाते-नाचते है मगर जब मैं अपने पति को दरवाजे पर उतरी तो हर आँखें रो रही थी। आँखे पोछते सिसकते जेठानी, सास, ददिया सास ने  परछन किया। मैं दूसरी पत्नी थी पहली जनी को मरे बस सिर्फ छः महीने ही हुये थे। बच्चे को जन्म देते समय मर गई थी बेचारी दस साल तक रहा था वैवाहिक जीवन। उन्ही का सिन्धौरा मिला था मुझे। सौत थी मै उनकी। क्या करती। माँने समझाया था- बेटी बिना बाप की हो तुम्हारे ताया शादी कर रहे है। अब यही समझना- वही तुम्हारा घर है। हर तरह से प्यार ही तुम्हे पाना है। ससुराल से झगड़ा कर कभी न आना तुम खुश रखोगी सब तुम्हे अपना लेगें। मै दीन-हीन विधवा तुम्हारी माँ कोई भी सहायता न कर पाऊँगी’’। माँ परिवार की विवशता और किसी अनजाने के हाथों में सौंपते माँकी वे आँखें मुझे आजभी याद है। बहते आँसुओं की धारा मेरे विवाह के अरमान सब बह गये। पति के पहली रात को कहें गये वचन आज तक मेरी कानों में गूँजते रहतें है’’ मैं तो वैरागी हो गया हूँ राधा पहली को कभी न भुला पाऊँगा। बस परिवार के लिये ही शादी की है घर के लोगों को खुश रखना खाना कपड़ा लत्ता किसी प्रकार की कमी न होगी। राधा। बस मेरी प्यार की आशा न करना मैं विंदास परिवार बच्चों के बन्धन में नहीं बधना चाहता। और फिर बस एक ही लक्ष्य पति का प्यार पाना और परिवार को खुश रखना बन गया मेरा लक्ष्य। माँ का चिरौरी करता चेहरा और विवशता बार-बार किसी भी प्रकार के अत्याचार का विरोध करने से रोकता। अपने प्रिय उपन्यासकार शरतचन्द की उपन्यासों की नायिका की तरह मैं भी बन जाऊँगी ऐसा तो कभी सोचा ही न था तुम्हारी नानी ने।
     मगर रानी! भाग्य का लिखा न तो कोई मिटा सकता है और ना ही अपने आँचल से ज्यादा कोई पा सकता है। उत्तरदायित्वों से अनजान, निरीह और भावुक व्यक्ति के अपरिपक्व निर्णयों का खामियाजा भुगतते कितने वर्ष बीत गयें। बेटा सन्तोष और बेटी आये थे परिवार बढ़ा लेकिन असफलताओं का सेहरा मुझे ही बाँधा गया। दुख के थपेड़े सहते आँखों के आँसू सूख गये।
     अपनी जिद क्रोध और असहयोग को हथियार बना कर बेटा तड़पता इस दुनियाँ से चला गया और अपरिपक्व, मस्तिष्क से कमजोर बेटी आज भी जीने को अभिशप्त है। कौन देखोगा उसे। सम्भालेगा उसे अपने आँखों के सामने ही उसे भी विदा करदूँ तो मानो सब उत्तरदायित्व पूरे कर लिये। इस जनम में तो मैने कुछ बुरा नहीं किया ये जरूर पिछले जन्म का ही कुछ लेन-देन है जिसे मैं चुका रही हूँ रानी! बस शायद यही काम छूट रहा है इसी में जान अटकी है बाकी सब हरि की इच्छा!
       क्या खायेगी रानी? मायके आई है दालभरी पराठा और खीर। बहुत पसन्द है न आपको। सब कुछ सहज सामान्य कोई इन्सान ऐसा होता है? नहीं ये तो भगवान का ही कोई निराला रूप है? या स्वयं भगवान?

Sunday, December 8, 2013

MAIM JI


                                                                 मैम जी
      कक्षा अष्टम वर्ग के साठ बच्चो में से एक छात्र ने न जाने क्यों कब और कैसे अपने ओर मेरा ध्यान आकृष्ट कर लिया था बहुत सोचने पर भी मुझे कोई कारण समझ में न आता। सामान्य कद का गोरा रंग न मोटा न लतला परन्तु शैतानी से चमकती मटकती आँखें और होठों पर मन्द मोहक सी मुस्कारन कक्षा में प्रवेश करते ही मैम जी, मैम जी आज आपने जो निबन्ध लिखवाने को कहा था मैने लिखा है देखिये ना मैम जी। टेबल पर मेरे पहँचने से पहले ही वह वहाँ खड़ा रहता। हर वाक्य के आगे मैम जी, पीछे मैम जी। बड़ा अजीब सा अनोखा व्यवहार लगता मुझे मगर फिर मन को कही अच्छा जरूर लगता। हर समय सहायता को तत्पर। मेरे लिये सबसे लड़ने को तैयार। काम में चुस्त-दुरूस्त। कुल मिला कर मनमोहक व्यक्तित्व। प्रतिदिन कक्षा मुझे उसके उपस्थिति की आदत सी पड़ गयी थी। अनुशासन के लिये सबको समझाता और हर एक की छुपी-छुपी शैतानियों व हरकतों से मुझे अवगत कराता।
     मैम जी! अजय हिन्दी की कापी डेस्क पर रख कर नीचे गोद में केमिस्ट्री की किताब मैम जी देखिये-देखिये और मैं जोर से पुकार उठती अजय! और वह सकपका कर खड़ा हो जाता क्या कर रहे हों? नो नो मैम कुछ नही हिन्दी मुहावरे याद कर रहा हूँ । केमिस्ट्री कौन पढ़ रहा है? किताब लेकर आओ। और मैम जी को रिपार्ट करने वाला लड़का गंभीर मुद्रा में अपनी किताब में आँखे गड़ाये-------कोई पकड़ ही नही सकता कि यही है वह मैम जी कहने वाला --
      इधर हफ्ता दस दिन से वह क्यों नहीं आ रहा था? बार-बार उसकी छवि आँखों के सामने घूम जाती। बहुत दिनों के बाद पता चला वह मेधावी छात्र ‘राधव’ इलाहाबाद के अनाथाश्रम स्वराज भवन से आता था। अनाथ बच्चा! पढ़ने में अच्छा। किसी ने अडाप्ट कर लिया था। इतना बड़ा। उड़ती खबर मिली थी शहर के नामी वकील का दत्तक पुत्र पागल, भोला, अल्हड़ ‘राघव’ दो साल बाद इसी स्कूल के छात्रावास में नये रूप रंग में राघव को देख कर मैं आश्चर्य चकित रह गई।
      भोलेपन की जगह लेती थी परिपक्वता ने, सरलता बदल चुकी थी गम्भीरता में, चुलबुलापन परिपक्वता में। हल्की हल्की मूँछे, सुडौल होती आकृति गाल भर आये थे। पुष्ट और मांसलता की ओर बढ़ता शरीर, रंग और निखार आया था आत्मविश्वासी, आँखो डाल कर निर्भीक बाते करने का लहजा उसे कुछ विशिष्ट बना रहा था।
        दो साल के अन्तराल के बाद विद्यालय के छात्रावास में उसका आगमन। चर्चा का विषय बना ‘राधव’ कक्षा-10 के फाइनल इयर में अडमिशन लिया था उसने। कहाँ रहा इतने दिन।
         स्टाफ रूम के बाहर खड़ा मेरे बाहर आने का इन्तजार करता हुआ। अरे राधव? कहाँ रहे इतने दिन। कितना बदल गये हो? एक साथ ही इतने सारे मेरे सवालो से घिर कर वह चुपचाप मुझे देखता रहा बोला कुछ भी नहीं। चुप बस चुप। अरे कुछ तो बोलो? क्या बोलू? एक संक्षिप्त सा उत्तर! और झुक कर पैर छू लिये उसनेे।
      ऊपर उठाते हुये उसे हृदय से लगा लिया मैने। उसकी आँखों से आँसू गिर रहे थे फिर।जो वाणी न कह सकी  वह आसुओं ने कह दिया। सुख के या दुख के। सुख के ही होंगे शायद। निशब्द सिर झुकाये आँसू गिरते रहे और फिर अचानक ही घूम कर सीढि़यों की ओर मुड़ गया वह 
        अनमने मन से मै लौट आई स्टाफ रूम में। कौन सी घटनाये, स्मृतियाँ और
परिस्थितियाँ किसको कहाँ किस प्रकार ला पटकती है इसे न आज तक कोई जान पाया है और ना ही जान सकेगा। मैं व्यस्त हो गई अपने रोज की दिनचर्या में। अब मेरा कोई भी पीरियड राघव के क्लास में नहीं होता, ना ही मुलाकात होती न ही उसके विषय में कुछ खास पता चलता।
       कब दिन बीत, महीने बीते और फाइनल एग्जाम बोर्ड के आ गये। एक पत्र मेरे टेबल पर पड़ा था?
प्रिय मैम,        
                  आपने कहा था न मै कुछ कहूँ, बोलू, आज मेरे एग्जाम का आखिरी दिन।
मै रिलैक्स्ड महसूस कर रहा हूँ मुझे नया घर, मेरे पापा मेरी मम्मी, मुझे मिली। अनाथाश्रम की अधेरी गन्दी बदबूदार कोठरी से निकाल कर मैं आ गया श्री अरविन्द कुमार एडवोकेट के विशाल कोठीनुमा बंगले   में सब कुछ सपने सा लग रहा था। क्या ईश्वर मुझपर इतना मेहरबान होगा क्या मेरे जीवन में भी खुशियाँ आयेगी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। दो साल लग गये समझने और संभलने में। बड़े अच्छे लोग हैं एक बहन और एक भाई। माँ और पापा जिन्हें मैं अंकल और आन्टी कहता हूँ कुछ समय तो लगेगा न मैम जी। मै चाहता हूँ उन्होंने जो उपकार मुझ पर किया है मैं एक अच्छा आज्ञाकारी, और अच्छे नम्बर से पास होकर उनके प्रति अपने आभार को प्रकट करते हुये मम्मी पापा कहूँ। तो ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा? मैम जी
मै क्यों आपके करीब अपने आप को महसूस करता हूँ। मेरे लिये प्रार्थना कीजिए, दुआ माँगिये। मैं अपने नये मम्मी पापा के लिये उनके आशा के अनुरूप बन सकूँ वे बहुत अच्छे है मेरे लिये क्या कुछ नहीं किया है? मेरा रोम-रोम ऋणी है मैम जी! मुझे आशीर्वाद दीजिए।
      मेरा मन भर आया। मेरे बच्चे! ईश्वर तुम्हारी सहायता करें। मन ही मन कह कर मै काॅपी करेेक्शन में लग गई।
   
  


MERE CHAMAN, MERE SUMAN



                    मेरे चमन, मेरे सुमन
अलविदा! मेरे चमन, मेरे चमन,
अलविदा! हे बन्धु मेरे, प्रिय स्वजन।
खुश रहें हँसते रहें सब मित्र मेरे
अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन
               यहीं तक था सफर मेरा
               साथ मेरा स्नेह औ सहयोग मेरा
               आप सब फूले फले आगे बढ़े
               अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन।
सुबह होगी, शाम होगी
पूर्ववत सब कुछ रहेगा
बस, मगर इक हम न होंगे
अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन
               मधुर यादों के सहारे ही
               ये दिन बीता करेंगे
               अब न जाने कब मिलेंगे?
               अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन।
                                                स्नेह चन्द्रा
  

Sunday, October 20, 2013

MAIN AUR MERE BABA DADI



                                                                 मैं और मेरे बाबा, दादी
    मैं बातूनी, बात करने में चटर-पटर, मोटा-छोटा भीम, गनपति बप्पा मौरया, कालिया और बहुत से देख-देख कर मैं सब समझ लेती हँू उन चीजों को बोल कार व्यक्त भी कर लेती हँू। अभी-अभी मैने अपना चैथा जन्मदिन मनाया है। कम्प्यूटर चलाना, टेली शाॅपिंग के लियेे माउस क्लिक करना, हर बटन के बारे में जानकारी मुझे है। गेम खेलना, सी0 डी0 लगाना, गााने सुनना मुझे खूब अच्छा लगता है। कितनी नई-नई बाते, नये वर्ड्स जिनका अर्थ (मीनिंग) तो मुझे मालूम नही मगर जब-तब बोल देती हँू और वह फिट भी बैठ जाता है। अरे, बुद्धु, कही के, स्टुपिड, हमला, नौटी, व्यस्त हँू डिस्टर्ब मत करो, मूड नही है, बत्तमीज दिल, जोे भी टी0 वी0 ने सिखाया और सुनाया है वह मुझे बहुत सही से आते है। गाने में बत्तमीज दिल, चक-चक धूम, चुनरिया मेरी, कोलोविरा-कोलोविरा, पनघट पर छेड़ गयों रे मेरे प्यारे गाने है जिन पर मै नाच सकती हँू
      मगर स्कूल में, पढ़ने लिखने में मेरा मन नही नहीं लगता। बहुत समझाये फुसलाये जाने पर, मम्मी-पापा के कने पर बड़ी मेहनत से थोड़ा बहुत लिख लेती हँू। मगर किसी को जमता नहीं। बारबी डाल से खेलना, बिन्दी लिपिस्टक,  नेलपाॅलिश लगाना सजाना मै बहुत मन लगा कर करती हँू। साइकिल चलाना लूडो खेलना, टीचर-टीचर बन कर खेलना, डाॅक्टर बन सबको देखना मुझे बड़ा ही अच्छा लगाता है छोटी बेबी को नहलाना धुलाना, तैयार करना कमरे को ठीक कर सजाना इन्ज्वाय करती हँू।
       मुझे खूब समझ में आता है कब मुझे कहना मान लेना चाहिए और कब जिद कर अपने मन का काम कराया जा सकता है। मौका पड़ने पर मै जमीन पर लोट भी सकती हँू। थैंक यू और साॅरी कहना मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगता। पता नहीं क्यों? सब लोग मुझे इसके लिये बार-बार टोका करते है। अरे ये लोग कितने अजीब है बच्चों को समझते ही नही। मैं तो अभी छोटी हँू ओनली 4 इर्यस (साल)की।
       मेरे स्कूल की छुट्टी है 5 दिन की हाॅलिडे। बाबा, दादी आ रहे है। मम्मी पापा ने बहुत सी चीजे बताई है। बाबा, दादी के पैर छूने है नमस्ते करना है तंग नही करना है। कहानी सुनना है। अपनी पोयम हिन्दी इग्लिश की सुनाना है। चिल्लाना नहीं है। अपने स्कूल की कापी किताबे दिखाना है गुड गर्ल बनना है। ओह गाॅड! कतनी बाते याद करूँ। याद रहेगा क्या? मुझे ये सब?
       वह दिन भी आ गया। बार-बार यही पूछने से कि टेªन कितनी देर में आयेगी। बाबा दादी कब पहुँचेंगे? परेशान कर दिया मैने! और जब कार उन दोनों को लेकर घर पहुँची तो मैं दौड़ कर सामने के कमरे मे छुप गई। खिड़की से झांक कर देखा मेरा प्यारा डाॅगी पूछ हिलाता पोपेम दौड़ कर पूँछ हिलाता सबसे पहले पहँच गया और कूद-कूद कर खूब प्यार करवाया बाबा दादी से। मै परदे के पीछे से देखती रही।
       ये कैसे बाबा दादी? इतने फरक, अलीशा अनवर केतकी के बाबा, दादी से कितने फरक?(डिफरेन्ट)! गोल मटोल मोटे से बाबा, बाल तो सर पर है ही नही? कहाँ चले गये सारे बाल? मम्मी कहती है जो चाकलेट ज्यादा खाते है वो ऐसे ही मोटे हो जाते है और दादी? मुझे तो असीता की दादी याद है उनसे तो यह कही नही मिलती? सलवार कुर्ते में? स्कूल की टीचर की तरह दादी?
       अरे! गौरी कहाँ है भाई? पापिंस तो आ गया? गौरी कहाँ छिप गई? दादी की आवाज मुझे सुनाई पड़ रही है। मैने अपना स्कूल का बैग उठाया और उनके सामने खड़ी हो गयी। मैने पोनी टेल बनाई है हेयर बैण्ड लगाया है। मम्मी ने कहा है स्मार्ट और स्वीट लग रही हूँ काले सफेद रंग का छोटा सा स्कर्ट ट्यूनिक पहने मै सचमुच प्यारी लग रही हूँ। अरे गौरी! मेरी मीठी कैसी है? दादी की मीठी’’ पैर छूना तो मै भूल ही गई। मेरा बैग देखिये कापी में काम किया हे मैने आओ मेरी गोद मे आओ पहले खूब ढ़ेर सा प्यार कर लूँ तब। मै गोद में जा चढ़ी खूब प्यार किया दादी ने। फिर ड्राइंग रूम में बैठ कर मेरी हिन्दी, मैथ और इग्लिश की कापी देखी। कई बार गुड कहा। कहा कितना साफ और सुन्दर लिखा है? मैने बताया मेरा बैग यूरो किड का? मेरे स्कूल का नाम --- है। मेरा दोस्त भी ऊपर रहता है उसका नाम है------
        फिर मम्मी की पुकार पर चाय पीने चली गई। मै चुप देखती रही कितनी अच्छी है दादी, बाबा!
        कब आयेगा मेरा दोस्त अरनव अभी मै सोच ही रही थी कि दरवाजे पर थपथप का शोर मचाता वह आ ही गया। ओह बड़ा मजा आयेगा। आओ--- आओ मै तुम्हे अपने बाबा को दिखाऊँ। देखोगे वो अपने कमरे में फ्लैट है? हाँ तुम्हारे बाबा आये है चलो-चलो मै कमरे में लेकर उसको आ गई। बाबा बिस्तर पर लेटे है मेरा डाॅक्टरी का इक्पिमेन्ट वाला बाॅक्स। हम दोनो ही चिपक गये। चलो बाबा का पेट देखते है ये पेट क्या बोल रहा है।‘‘ मै बहुत मोटा हूँ मैने बहुत चाकलेट खाई है इसीलिये!’’ बाबा आप चाकलेट खाना बन्द कर दीजिए। अरनव ने मोटा इन्जेक्शन सिरिंज निकाला और इन्जेक्शन लगाने की तैयारी करने लगा। तुम इन्जेक्शन लगाओ। मैं आला लगाकर देखती हूँ कि बाबा के सिर पर बाल क्यों नही हे कहाँ चले गये बाल! मैने उनके सिर पर आला लगा कर पूँछा- कौन सा तेल लगाते है? नारियल का लगाया कीजिए। मेरी मम्मी कहती है नारियल का तेल सबसे अच्छा। आपके बाल तो है नही जो हे वह भी रूखे। नारियल तेल जरूरी है। कह कर मैने दाँत दिखाने को कहा- ओ हो ये क्या दाँत तो एक दम पीले! जीवाणु हमला करेंगे पेप्सोडेन्ट लगाइये। बेचारे एक बाबा------और हम दो डाॅक्टर मैं और अरनव!
        चलो भाग कर लौन में चलते है। अभी नहीं-नहीं अरे चलो न, देखो बाहर मिट्टी में शार्क मछली है क्या? बुद्धु मछली कहीं मिट्टी में होती है वहाँ तो क्रोकोडाइल होगी। भागो, मेरी साइकिल पर पीछे बैठों। मुझे तो साइकिल भगानी पड़ेगी यार। आओ साइकिल के पीछे बैठ जाओ। अरनव की पुकार पर मै दौड़ी।
         दादी आप कहाँ है? पार्क चलेगी? नही, क्यो? तो मैं आपको गाना सुनाऊँ? चक चक धूम। डान्स भी देखेंगी? हाँ ये आइडिया आपको अच्छा लगेगा। तो मै शुरू हो जाऊँ? आँखें मटकाती लटके-झटके मेरी मस्ती! दादी अब तो आप यहीं रहेंगी न। वापस नहीं जायेंगी न? मैं आपसे कहानी सुनुँगी। पढ़ूँगी भी, होम वर्क आप करा देना। बहुत मजा आयेगा। आप जो क्लाक लाई है अलार्म लगा कर मैं जल्दी उठ जाऊँगी। रात में बैग ठीक करूँगी और सुबह नाश्ता कर स्कूल के लिये तैयार। यू तो मुझे चुलबुल, नटखट, बुलबुली भी कहती है मगर मुझे अच्छा लगता है मीठी बस मीठी दादी की मीठी।         
                          

Prakriti aur maanav


             
                                                      प्रकृति और मानव
                                                                                 जोड़ें टूटी कड़ी
   प्रकृति में और मनुष्य के जीवन में बहुत सी ऐसी साम्यताये है जो यदि गौर से देखी जाये तो हमारा मार्गदर्शन करने में अहम भूमिका निभा सकती है। यह हमारे निरीक्षण और ओब्जर्वेशन की सूक्ष्मता निर्भर पर करता है। किसी किताब, किसी के समझाने और अनुशासित करने की जरूरत नहीं।
    हिमालय को देखा है आपने- सफेद वर्फ से घिरा शान्त, ठंडा शीतल, दृढ़ मजबूत अडिग, हजारों वर्षों से अपनी गोद में घने वृक्ष, घाटियाँ, झरने, फूल जड़ी-बूटियाँ पत्थर चट्टान को प्यार से समेटे दुलराते, सभालते अपने पुरूषार्थ के बल पर खड़ा है और संदेश दे रहा है-अपने पुरूषार्थ,  पवित्र विचारो, साहस, प्रेम, हृदय की सहृदयता और सहानुभूति के बल पर जीवन में पुरूष (मानव) भी अपना स्थान बना सकता है नदियों की अजस्र धारा, के समान स्नेह और सहानुभूति, और पवित्र सिद्धांतों नैतिक निष्पक्ष निर्णय जीवन को सफल और सुगम बना सकते है। बाधाये कहाँ नही आती? कोई भी मार्ग सरल सीधा नहीं है अतः चलना, और चलना ही है----
   बेंत क्या होता है? वह तेज हवा से सामने झुक जाता है। विपरीत परिस्थियों-समय के अनुकूल होने तक विनम्र और झुक कर रहने की सीख सिखाता है बेंत के झुरमुट। हवा के तीव्र झोकें, सह कर अनुकूल वातावरण बनाने तक धैर्य धारण कर लेना इन्हीं से सीखा जा सकता है।
    और तो और ऋतुओं का बदलना, रात के बाद दिन और दिन के बाद रात का क्रम यह सत्य जाने आनजाने रोज एक बात तो याद दिलाता ही रहता है कि सुख-दुख और दुख के बाद सुख, अधेरे के बाद उजाला, कुछ भी चिर स्थाई नही है। परिवर्तन ही जीवन, गति और स्पन्दन है। उसके बिना सब मृत, स्पन्दनहीन और जड़।
    क्या झोपड़ी क्या महल! जब सोने की लंका नहीं बची तो किसलिये धनसम्पत्ति को जोड़ना। साँई उतना दीजिए जामें कुटुम समाय। सहज बस सन्तोष ही सबसे बड़ा धन है और जीवन का सरल, समान यापन। इसकी उपलब्धि। छल, दम्म द्वेष से दूर ही रह पाना मानव जीवन पाने की सार्थकता है। शान्ति और बिना किसी पश्चाताप के मरण का वरण शायद इस जीवन का लक्ष्य। और क्या चाहिये-सब कुछ धन दौलत कर्म और उसके फल सब यही रह जायेंगे। क्या होगा मृत्यु के पश्चात ये तो अनन्त का रहस्य है। इसे रहस्य ही रहने दिया जाये और जो है, वर्तमान को बिता लिया जाय यही सच्चा कर्मयोग है-साधना है ईश्वर की ओर बढ़ता पहला कदम है।
                                                      

Meri pahli videsh yatra


                                                       मेरी पहली विदेश यात्रा
                                                                                                               एक संस्मरण
     जब नई दिल्ली एयर पोर्ट से हवाई जहाज ने उड़ान भरी तो एक पल के लिये लगा-कुछ छुट रहा है अजीब सी घबराहट बेचैनी शायद आकाश मार्ग का पहला सफर, और उम्र का 62वाँ पड़ाव और बुढ़ापे का जुड़ाव घर आँगन घरती मही फूल उपवन घर के पेड़ों पर लटके फूलों पर दाना चुगते गौरैयों  का झुण्ड, गोलकी श्यामा पक्षियों का कलरव, मछलियों की कदमों की आहट सुनतें ही पानी में तालाब में हलचल। अंगूरों की लता पर बुलबुल कावन घोंसला और सीटी बजाना। सारे के सारे चित्र सिनेमा की रील की तरह आँखों के सामने घूमने लगें। जीवन के अन्तिम समय में जब साँस टूटने लगती है तो बीता हुआ सारा जीवन याद आने लगता है शायद वही स्थिति लग रही थी मानों धरती ही छूट रही हो सारा संसार आकाश छूट रहा हो।
    रन वे पर धीरे-धीरे सरकता जहाज अचानक सर्र से आकाश छूने लगा ‘‘आपकी यात्रा मंगलमय हो की उद्घोषणा---- ओह तो हम आकाश के शून्य में है?
    बड़ा पागल है मन पिछला पिछला छूटा और सपने तिरने लगे आँखों में कैसी होगी विदेश की धरती, हवाये, आकाश बादल लोग रहन-सहन। सुना तो बहुत था जितने लोग उतनी बाते उतने ही अनुभव हर का अपना देखने का नजरिया और सोच पास-पास सट कर बैठे लोग। शान्त चुपचाप, धीरे-धीरे चलते। सब आवश्यकताओं की सुविधाओं से सम्पन्न। मानों मिनी रूप में हमारा दिन प्रतिदिन का संसार।
     छोटी-छोटी सीटे, सामने छोटा सा टी0वी0 उसके नीचे छोटी-सी फोल्डेबल टेबल प्रत्येक यात्री के लगभग। वर्ग गज के क्षेत्रफल में। चलने-फिरने के लिये हाथ पैर सीधा करने के लिये गैलरी लगभग 200 यात्री। बाथरूम की व्यवस्था। सीटिंग व्यवस्था तो हमारे बस की तरह ही था बस फर्क इतना था कि यह एयर बस थी और बाथरूम की, खाने-पीने की व्यवस्था साथ ही थी। स्मार्ट एयर होस्टेस सुन्दर-सुन्दर परियों की तरह ट्राली पर खाना नाश्ता ड्रिंक सर्व करते शालीन सभ्य होंठो पर मुस्कान चिपकाये ये हेल्पर हैट्स आॅफ टू देम हर किसी से वेज और नाॅनवेज की च्वाइस पूछते एक बार तो सोचा इतने सारे ड्रिंक्स पहले तो ट्रायल के लिये चाय ली कुछ जमी नही तो सोचा अबकी काॅफी चखी जाय। मगर यह क्या! एक घूँट  ने ही मुँह का जायका खराब कर दिया। शायद कोई नई ब्रैन्ड रही होगी। तुरन्त ट्रे में रखी अपनी प्रिय कोक ही मुझे संतुष्ट कर सकी। खाना नाश्ता का स्वाद बिल्कुल फरक था मगर नाम था एशियन फूड कुल मिला कर अच्छा फाॅर अ चेंज।
         परिवर्तन का अनुभव होने लगा था।
    हमारा गन्तव्य था डी0सी0 ----और फिर वहाँ से वर्जीनिया निकट का एक उपनगर आठ घण्टे की हवाई यात्रा के बाद पहला ठहराव था पेरिस एयर पोर्ट। वहाँ की सुन्दरता स्वच्छता और भव्यता का प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहाँ से हम बाहर नहीं जा सकते थे। एकदम चमचमाता, समस्त आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न। रोबोट की तरह चुपचाप भाव विहीन चेहरों से चलते-फिरते लोग केवल खटखट ट्राली के हिलने-डुलने की आवाज। अपने-अपने सामानों को स्वयं ही सुन्दर हल्की फुल्की ट्रालियों में ढ़केलते यात्री। शारीरिक                                                       रूप से स्लिम ट्रिम, कुछ लोग दुबले पतले चूसे चुसके आम की तरह कांति विहिन चेहरे तो कुछ हृष्टपुष्ट मगर बहुत कम। शारीरिक मापदन्ड के अनुसार परफेक्ट फुर्तीले मगर रौनक नही तेजहीन अपने में खोये हुये मैं ढ़ूढ़ रही थी उस जीवन की उत्फुल्लता को, उस जिन्दगी को जो मेरे साथ-साथ हँसती खेलती इलाहाबाद से दिल्ली तक घरों, बाजारों रेलवे स्टेशनों यहाँ तक कि रेल के कम्पार्टमेन्ट में बच्चों बड़ो और यात्रियों के चेहरे तथा व्यवहार में झलक रही थी। ऐसा भी कठोर अनुशासन, भावों का नियन्त्रण किस काम का। अति सर्वत्र वर्जयेत। अस्वाभाविक असहज और कृत्रिम।
      मशीन की तरह नियन्त्रित ढ़ंग से पारो बोट की तरह सधे और नपे तुले कदम। चहल-पहल तो कहीं दिखाई ही नही दे रही थी। कभी एक कहानी पढ़ी थी कि एक राजा ने वरदान माँगा था कि वह जिस-जिस चीज को छुयेगा वह सोना हो जायेगी। शायद यहाँ पर लोगों को वरदान था कि यहाँ की धरती पर पैर रखते ही सब कुछ यंत्रवत रोबोट की मुड़ी में आ जायेगा। भौतिकता एश्वर्य की चकाचैंध से किंकित्वयं विमूढ़ तो मै भी थी। ठहराव के समय में मेरे बगल में बैठी एक यात्री अपनी गोद में लेपटाॅप रख कर कानों में म्यूजिक के लिये इयरप्लग लगाये काम में व्यस्त थी और थोड़ी-थोड़ी दूर पर टेलीविजन स्क्रीन पर लगातार आती जाती चित्रावलियाँ थोड़ी देर के लिये अपनी ओर आकर्षित कर लेती।
      अभी अपनी सफर पेरिस तक ही रखते है उसके आगे का सफर वाशिंगटन तक का अगले किश्त में।
  जब दिल्ली से चाल्र्स डी गौल एयर हवाई अड्डे से उड़े तो ऐसा लग रहा था कि हम किसी लोकल एयर बस में बैठे हो क्योंकि आधे से अधिक यात्री तो फ्रेन्च लग रहे थे। यात्रियों की संख्या कम थी आठ घण्टे की यात्रा थी।
                                                                                 

Sunday, September 29, 2013

Campus gossip


                                                                 कैम्पस-गासिप
     कितना नीरस है एक स्कूल टीचर का कार्यक्रम। बरसों लगाता एक ही सा बोरिंग पाठ्यक्रम, करेक्शन । सुबह नौ बजे से दोपहर तक की घण्टियों में बँटी जिन्दगी। वही क्लास, वही बच्चों के साथ दिन की शुरूआत ऐसम्बली, प्रार्थना,न्यूज रीडिंग, और अन्त में जनगणमन। बच्चों की अटेंडेन्स कुछ डाँटडपट, उपदेश, अनुशासन की बाते और भविष्य सुधारने के एक लेक्चर के बाद पाठों का पढ़ाना शुरू।
     मगर हाँ, शैक्षिक सत्र के शुरू होने के साथ साल में दो बार कुछ दिनों के लिये नई हलचल, नये बैच के स्टूडेन्ट्स, नई रूटीन, और फिर जनवरी फरवरी का महीना, साल का अन्त होते-होते कुछ फुरसत के पल।
     फरवरी का महीना विद्यालय में-दशम व द्वदश वर्ग के छात्रों का फेयरवल, टेस्ट, प्रीटेस्ट की कापियों का करेक्शन रिजल्ट फिर एक ब्रेक बस एक दो दिन का, इन दिनों स्टाफ रूम का रंग ही बदला हुआ दिखाई देता, कापियों का ढ़ेर के पीछे छिपे टिचर्स के चेहरे अब बाल सूर्य की तरह दमकते चंचल चुहुल करते, चहकते एक दूसरे को छोड़ते रिलैक्स्ड दिखाई पड़ता चिर प्रतिक्षित फुरसत के कुछ पल छिन मस्ती से भरे।
      हाँ तो अब बताओं। नये सेशन अप्रैल में क्या-क्या होने वाला है? इस फाइनल बैच में तो छुट्टी मिली। भज्जी क्या कहते हो?’’ क्या कहें? तुम्हें क्या यार! तुम तो मैनेजमेन्ट के तुरूप के पत्ते हो! ताश के जोकर! जहाँ चाहो जैसे चाहो फिट हो जाओगे बस-बस तुम्हारा फ्यूचर नेक्स्ट सेशन में पक्का, बिल्कुल पक्का, कौन सा सब्जेक्ट है जो तुम पढ़ा नहीं सकते? फिजिक्स, केमेस्ट्री, बायो, मैथ यहाँ तक कि इको और कामर्स पर भी तुम्हारी पूरी पकड़ है। जैक आॅफ आल ट्रेड का मुहावरा तुम्ही पर तो फिट बैठता है। मिस्टर बनर्जी ठहा कर हँस पड़े। मेज पर जोर से मुक्का है मारते हुये बोले-तो हो जाये पार्टी इसी बात पर।
     और पप्पे जी। आपका बायो डिपार्टमेन्ट! तो कुछ गरदिश में दीख रहा है। बाय द वे कितने स्टूडेन्ट थे अबकी 12वीं में चार-- बस--- केवल चार। कोई बात नहीं इस साल से नया कम्पलसरी सब्जेक्ट जो आ गया है एनवायरमेन्टल इसलिये पूरा का पूरा क्लास जनरल पढ़ना पड़ेगा और या तो फिर क्लास 1 से 12 बायो आपके नाम हो जायेगा। आपकी नौकरी पक्की! ऐशकरोजी ऐश, पप्पे जी! मिस्टर खान ने अपनी केमेस्ट्री खत्म की गहरा सावला रंग अनएजूमिंग सी पर्सनेलिटी छोटा कद, दूबला पतला शरीर। है लेकिन कोई न कोई गजब का आकर्षण इनमें साहित्य और विज्ञान का सुन्दर और संतुलित काम्बीनेशन! बतो मेें कुछ हास्य और व्यंग का पुट वाक् चातुर्य और बहुमुखी रूचियाँ। किसी सब्जेक्ट पर भी बाते कर लीजिए। फुलकान्फीडेन्स चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया‘‘।छोटे बड़े आबाल वृद्ध सबकी सद्भावना प्राप्त और स्नेह दुलार से भरपूर शिष्ट पापाजी के नाम से लोकप्रिय किसी को चाकलेट टाफी देकर प्रसन्न करते, तो किसी को दोहे शायरी या कविताओं की पंक्तियों से रिझाते देखे जा सकते है व्यंग और चुटकुले तो उनकी पाकेट में ही रहते। ये है हमारे मिस्टर वर्मा।
       छोटा कद गेहुआ रंग गोल चेहरा कमानीदार सुनहला चश्मा स्लिम-ट्रिम       कद काठी छोटी पतली मँूछें। खली पीरियड में अपने स्वयं के रोलर से सिगरेट बनाकर पीते या कभी-कभी पर्सनेलिटी को गंभीर और गरिमामय बनाने के प्रयास में पाइप से धुआ उड़ाते दार्शनिक और स्टूडियस’’ होने का आभास देते लोगों में बाबू मोशाय के नाम से लोकप्रिय मिस्टर भट्टी की अपनी खासियत है। लड़को के बीच के छोटे -मोटे झगड़े निपटाते सुलह कराते समझाते देखे जा सकते है।           
      प्रसिद्ध माडल जान अब्राहम से साम्यता रखने वाले मिस्टर झा का पोनर इम्प्रेशन पतली लम्बी छः फीट की काया गौरवर्ण पतली म ूछे सुबदर श्वेत चमचमाती दन्त पंक्ति पतला लम्बा चेहरा तीखी सुतवानाक, बोलने में कुशल मन्दहास्य कुछ लजाया शरमाया आकर्षक व्यक्त्वि, किसी भी कार्यक्रम के कुशल संचालक (आयंकर) कम्प्यूटर जगत के जाने माने ज्ञाता। कुलमिला कर तीखे व्यक्तित्व वाले मिस्टर झा सर, चाल इतनी तेज की कि बगल से तेज हवा का झोका सर्र से निकल गया हो।
 गोलमटोल गोलगप्पे से चेहरा, धनी  मूँछें बालों का एक गुच्छा अलसाया सा चैड़ा उन्नत ललाट पर झूलता गुरूगंभीर आवाज, धीरे-धीरे सोच-सोच कर बोलने पर विशिष्ट लहजा, सधे कदमों से चलना उठना, बैठना और काम न होने पर हाथ पीछेे कमर पर बाँधे स्टाफ रूम मे ही चहलकदमी करते रहना मैथ्स के मिस्टर नागर के व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। उई माँ तो पागल हो जाऊँगी के परेशान स्वर स्टाफ रूम में अक्सर ही गँूजते रहते। क्या लिखा है लगता है हिन्दी का लिटरेरी ट्रान्सलेशन आई विल ड्रिंक हिज ब्लड मै उसका खून पी जाऊँगा। शेक्सपीयर तो अपनी यह दुरदशा देख कर शायद किसी नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेंगे। ‘‘ही वाज ब्वाइलिंग विथ ऐंगल’’वह गुस्से में उबल रहा था। ‘‘आई वान्ट टू टच योर लेग’’ ‘‘व्हाट अ हरिबुल लाइन?’’ मेरी तरफ देख कर हाथ पैर पटकती वह चिल्लाने लगती। मै स्टाफ रूम की खिड़की से कूद जाऊँगी क्या? किस बुरी घड़ी में मैने इंगलिश में एम0 ए0 कर ट्रेनिंग ली की मुझे ऐसे बच्चे पढ़ाने पड़ रहे है। कितनी भी मेहनत करा, समझाते-समझातेे गला सूख जाता है मगर फिर वही ढ़ाक के तीन पात। उनकी आँखों से आँसू टपकने वाले होते है। बेचारी मिस खन्ना।
        कभी गम्भीर, कभी मन्द-मन्द मुस्कराते, और अपनी ही कही बात पर जोर से ठहाका लगाते। चाहे और किसी को हँसी आये या नहीं मगर खुद ही हँस कर दूसरो का ट्यूब लाइट बताने का लहजा थोड़ी देर के लिये सबको शरमिन्दा कर देता। बड़ी कक्षा के छात्राओं से बेहद दोस्ताना व्यवहार और लोकप्रियता-सस्ती चिप्पड़ लोकप्रियता के प्रतीक मिस्टर दूबे जिसे सब मिस्टर डूबे’’ के नाम से सम्बोधित करते। कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते कोई न कोई काण्ड कर ही देते और आग बबूला होकर क्लास से बाहर निकल आते। छोटे-मोटे गोरे इतने कि गुस्से में लाल आग का गोला ही लगते। स्टाफरूम में कापी किताब पटक कर नये जमाने के छात्रों के लिये अपशब्द कहते झनकते पटकते और फिर शान्त हो जाते। स्तब्ध शान्त अन्य शिक्षक अनकी ओर हतप्रभ देखते ही रह जाते मौन बिल्कुल मौन।
        दुबली-पतली नाजुकता की परिभाषा रंग बिरंगी गुडि़या सी सजधज, गले की आवाासज को दबाकर बनावटी-सी शी्रल्ड आवाज, प्रत्येक को नाम से सम्बोधित कर गुड माॅर्निंग मिस्टर शर्मा या फिर कोई और नाम। पर होता है सबका व्यक्तिगत सम्बोधन प्रशांसा करने लायक कलात्मक शौक विशेषकर स्वयं को प्रस्तुतिकरण। भव्य सुन्दर गौरवर्ण किन्तु भावहीन चेहरा। सब कुछ यान्त्रिक संवेदनाशून्य व्यवहार। सबके प्रति कोई न कोई व्यंग भरा कमेन्ट। कभी-कभी स्टाफ में प्रवेश कर वातावरण को गंभीर बना जाती मिस रूबी। कोई व्यक्तित्व इतना बोझिल भी हो  सकता है यह सोचने को विवश करता है।
        अनुशासन की छड़ी तेजतर्रार, स्पष्टवादी छोटी-सी फिरकनी की तरह इधर-उधर दौड़ती, फुर्ती इतनी की फ्रन्टियर मेल का खिताब पा चुकी गंभीर तनाव ग्रस्त चेहरा। मुस्कान तो कभी भूले भटके ही इधर का रास्ता नापती है और खुदा न खास्ता भटक गई तो अन्दर का हृदस मोम की तरह कोमल हेल्पफुल । फिल्मों के मस्ती भरे रोमान्टिक गीतों को गुनगुनाता चहकता चेहरा देखा जा सकता है। किन्तु ये पल दुर्लभ ही होते है। मिसेज महाजन का जबाब नही।
          लम्बा चैड़ा आकार, छः फीटी काया, तीखी धूप सा गोरारंग चैड़ा माथा  लम्बी कमर तक झूलती केशराशि कुल मिला कर झाँसी की रानी खेल कूद में राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली स्पोर्ट्स वुमेन का आपना ही स्थान है स्टाफ रूम में जिसके प्रवेश करते लगता है भूकम्प  एक झटका और डोलने लगती है धरती। कुर्सी पर बैठे लोग उछलपड़ते है जगहें बदल जाती है हलच लमच जाती है। धराप्रवाह व्यंग, धक्का मुक्की छेड़ छाड़। खुशनुमा माहौल। सभी क्या लेडिज क्या जेन्ट्स सब मधुर रस में सराबोर हो जाते। मानों होली के रंगों की पिचकारी चलरही हो रंग अबीर गुलाल आस-पास छलक बरस रहे है। टिफिन को लेकर छीना झपटी, धूम-धूम कर हा किसी के टिफिन को सूघते खाते। बस एक ही लाइन याद आती है’’ होली खेले मिस राधा- होली खेले मिस राधा (स्टाफ रूम)
   आनन्द मन की अनुभूति है वह बाहर से नही आती जब अन्दर बाहर का वातावरण सहज हो तो खुशियाँ छलक पड़ती हैं। संतोष और अपनेपन का अहसास ही इसका मूल कारण होता है। काम करने की जगह हो अपनेपन के साथ जोड़ कर कार्य की गुणवत्ता और करने के जोश को बदला जा सकता है। और इन्ही दिनों की मस्ती, पूरे साल रह-रह कर मन को चहका कर प्रेरित करती रहती है। काम में डूबा हर शिक्षक सोच-सोचकर  मन ही मन मुस्करा उठता है और जुट जाता है कापी करेक्शन तथा नोट की तैयारी में। नये पाठों के लिये। कमर कस लेता है कि अबकी कुछ नया होकर रहेगा। आकाश में एक नया तारा चमकेगा। स्कूल हमेशा की तरह कोई नया कीर्तिमान स्थपित करेगा।                 

Sunday, September 22, 2013

Nari shoshan se mukti kaise


                                                          नारी शोषण से मुक्ति कैसे
    नारी शोषण जहाँ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है वहाँ न ही इस पहलू पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है और न ही निराकरण का कोई ठोस कदम उठाया जा रहा है। केवल लेशमात्र के लिये पटना, बम्बई दिल्ली आदि बड़े शहरों में दिखाने जा रहे है नारे लगाये जा रहे है प्रदर्शन किये जा रहे है। पर क्या एक प्रतिशत भी सफलता प्राप्त हो सकी है। जितना विरोध प्रदर्शन में नारो की आवाज बुलंद हो रही है उतना ही जाने-अनजाने में शोषण का रूप गर्हित और विकृत हो बढ़ता जा रहा है।
      शायद लोगो को शोषण का सही अर्थ ही स्पष्ट नहीं है और इसी धूमिलता के कारण उससे मुक्त होने में समर्थ नहीं हो पा रही है। क्योंकि जब तक कारण नहीं जान लेते निराकणरण का प्रश्न ही नहीं उठता जब तक हम शोषण के विभिन्न रूपों और मूल कारणों को नही समझ लेते मुक्ति के हमारे सारे प्रयास असफल रहेंगे आइये हम देखे कि मुख्यतः शोषण हमें समाज के किन-किन क्षेत्रों में दृष्टिगत होता है। वे है सामाजिक पारिवारिक एवं आर्थिक क्षेत्र।
       प्रतिदिन किसी न समाचार पत्र में बलात्कार सम्बन्धी दुर्घटना का विवरण देखने को मिलता है यदि 100 में से कोई एक व्यक्ति सामान्य स्तर से थोड़ा ऊँचा उठ कर उस लड़की से विवाह कर समाज में सम्मानित सामान्य जीवन बिताना चाहता है तो समाज उसकी आलोचना कर जीना दूभर कर देता है चूँकि उससे लड़की का कोई दोष नहीं अतः महिलाओं को उसकी आलोचना कर उसे गिरने की चेष्टा न कर उदार हृदय होकर उसे वही सम्मान दे जो अपनी बहू बेटी को देती है तो आदर्श की प्रेरणा से उठा हुआ व्यक्ति भी सहज हो सकेगा। समाज की महिलाओं को ही उसे स्वीकार करना होगा सहज बनाना होगा उँगलियाँ उठाने के बजाय उसकी सहायता करनी होगी।
      बहुत आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कुछ क्षणों के लिये विश्वास नहीं होगा ऐसा लगेगा किसी न गरम सीसा पिघला कर कानों में डाल दिया जब आप यह सुनेगी कि अधिकतर महिलायें ही महिलाओं का शोषण करती है सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर 75 प्रतिशत नारी ही नारी की शोषक है बाकी 25 प्रतिशत ही पुरूष वर्ग। जरा मन को टटोल कर देखें निष्पक्ष होकर सोचे क्या बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्रियाँ ही बालिकाओं के मन में तुलना कर उन्हें हीन और कुंठित नही बनाती।
        दहेज प्रथा के द्वारा महिलाओं का शोषण भी कम भयंकारी और आतंककारी नही है। जितनी भी दहेज से सम्बन्धित दुर्घटनाये, आत्महत्यायें घटी है। क्या उन मौंतो में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सास और ननन्दों का हाथ नहीं। क्या उन परिवारों की महिलाओं ने अपने आचार व्यवहार से उस घर में आने वाली वधू को कुयें में छलांग लगा कर, मिट्टी का तेल छिड़कर आग लगाने, गले में फाँसी का फंदा डाल कर मर जाने को विवश नहीं किया? नई नवेली वधू को सामाजिक प्रतिबन्धों की दुहाई लगाकर घुट-घुट कर मरने के लिये बाध्य करने वाला कौन है? महिला या पुरूष? अपना सबकुछ छोड़कर नये घर में प्रेमस्नेह की आशा लगा कर आने वाली लड़की के आचार व्यवहार प्रतिदिन की दिनचर्या के लेखे-जोखे को नमक मिर्च लगाकर बढ़ा चढ़ाकर आॅफिस से थके मांदे पति को अवगत कराने वाला कौन है? स्त्री या पुरूष? अपने ही बेटे और बेटी के लालन पोषण में अन्तर रखने वाला कौन है माता या पिता? पिता तो एक बार दोनों को बराबर समझ लेता है कुंठा से ग्रसित नहीं होता पर स्त्री माँ। अन्तर की गहरी दीवार तो वही खड़ी करती है।तो महिलाये यदि शोषण से मुक्त होना चाहती है तो मेरा यही अनुरोध है कि हम महिलायें उदार हृदय बने। संकीर्ण आलोचनात्मक वृत्ति को छोड़कर एक दूसरे को आगे बढ़ाने, सुखी देखने की कोशिश करें तभी शोषण से मुक्त हो सकती है। अपनी हीनता और संकीर्णता की मनोवृत्ति के बेडि़यों को काटना होगा।
      आर्थिक कमी के कारण भी बहत सी स्त्रियों का कार्य क्षेत्र में नौकरी आदिमे शोषण होता है। कम पैसा देकर उसकी आवश्यकता और गरीबी का फायदा उठाकर ए एम्प्लोयर एक्सप्लोयट (शोषण) करते है। आज कल फैशनपरस्ती दिखावें, बाहरी पोम्प और शो में रखी जाने वाली लड़कियाँ जब बड़ी होती हे तो सेक्रेट्री रिसेप्निष्ट स्टेनो आदि आकर्षक बेतनो वाले पदो के प्रलोभनो से आकर्षित  होकर ऊँचा नीचा समझे बिना ऐसे जाल में फँस जाती है कि पुरूषो की लोलुपदृष्टि से बच पाना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है और एक बार दलदल में फँसी जितना वह निकलने की कोशिश करती है धँसती ही जाती है।
       अतः अच्छे बुरे का ज्ञान, अपना भला बुरा सोच सकने की शक्ति, स्पष्ट वादिता है आदि लड़कियों में बचपन से ही अंकुरित करना होगा। भले ही आपा उसे एक बार परिपक्वता कह दे या ऐसा लगे कि यह स सब जान समझकर बूढ़ी काकी या प्री-मेच्योर बनायी जा रही है तो यह समय की माँग है तभी वह लड़की अपनी जागरूकता, स्पष्ट वादिता, सही सूझ-बूझ के कारण बड़ी होने पर किसी के अन्धशोषण का प्रतिकार कर अपनी रक्षा स्वयं कर सकने में समर्थ होगी।
       महिला वर्ष, वूमेन्स लिब, नारी स्वतन्त्रय आदि के आन्दोलनों से अधिकारों के प्रति सचेत, आपादमस्तक कान बनी महिला साधारण से साधारण घटना को लेकर, उसे शोषण का ही एक रूप मान कर विद्रोह करने के लिये तत्पर हो जाती है वास्तविकता तो यह हे कि कई बार शोषण न होते हुए भी हम उसको शोषण मान बैठते है जो सही नही है। आवश्यकता है खुले विचारों से सोचने समझने की।

 

soch


                                                                       सोच   
      पिता को नाराज कर रोहन अपने बच्चों और के साथ इस नये पाश  इलाके के बंगले में रहने चला आया सारे प्यार आदर त्याद के बन्धन तोड़ कर। पाँच वर्ष की आयु में माँ के गुजर जाने के बाद पापा का बस एक ही उद्देश्य था कि उसकी माँ के सपने को पूरा कर रोहन को बड़ा डाक्टर बनाये। उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। हर क्षण पल माँ को भूले नही और रोहन को भी याद दिलाते रहे कि उसे डाक्टर ही बनना हे कोई कोर कसर नही छोड़ी। वही पुराना घर, गलियाँ आस-पास के वातावरण से बचाते छिपाते वे अपने लक्ष्य में सफल हुये। बड़े घर में ब्याह कर दुल्हन रोहन के लिे लाये बच्चे हुये बगिया खिल गई। और एक दिन रोहन ने कहा वह ‘‘रूपा’’ उसकी बीवी चाहती है कि घर बदल कर नये पाश कालोनी में रहना चाहिये। बच्चो की संगत सही नही है। गन्दी पुरानी गली, छोटे विचारों वालो की संगति!
       अचानक ही क्रोधित पिता बोले क्या? बाप दादा का घर छोड़कर दूसरे घर में तुम यही पढ़कर इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचे हो यही अब खराब और गन्दी जगह लगने लगी। नही यह नही हो सकता। तुम बीबी के गुलाम हो गये हो क्या। होश में बात करो। समझाने की बहुत कोशिश की रोहन ने। मगर पिता की एक ही रट थी। तुम्हारी माँ के सपने को मैने यही रह कर कितनी तकलीफे सह कर पूरा किया है और तुम------
    रोहन के मुँह से निकला पापा मेरी माँ भी तो आपकी पत्नी ही थी। आपने अपनी पत्नी के सपने को पूरा करने के लिये क्या नहीं सहा? मेरी पत्नी तो सिर्फ एक मकान बदलने की बात कर रही है क्योंकि बच्चो के लिये यहाँ का माहौल अब ठीक नहीं है।
      बड़े जब कोई काम स्वयं कर उसे सही सिद्ध करते है तो छोटों के वही करने पर उन्हे एतराज क्यों? यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया है। जो रिश्ता बेटे की माँ के साथ पिता का था वही बेटे का अपनी बच्चों की माँ के साथ ही तो है।                                                  

Sunday, September 15, 2013

Mn ka thahrav


                                                                           मन का ठहराव
धीरे-धीरे शाम घिर आई है। मच्छरों की भनभनाहट से बचने के लिये छः बजते-बजते सभी दरवाजे खिड़कियाँ बन्द कर देती हूँ। सोनू और मोनू अभी तक खेल कर वापस नहीं लौटे है जैसे-जैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है मेरे मन की घबराहट भी बढ़ रही है। आजकल दोनों ही लड़के अनकहे हो गये है। कुछ भी कहो सुनते ही नहीं। जिद क्रोध और विद्रोह जैसे नाक पर रखा है। कमरे की बत्ती जलाकर मै बेचैनी से उनका इन्तजार कर रही हूँ किसी काम में मन भी तो नहीं लग रहा हैं रह-रह कर पिछली बाते मेरे दिमाग में घूम रही है
       रवि के आफिस से लौटने के पहले से ही मै झुझलाई बैठी रहती। बीमार बच्चे की रें रें, सोनू मोनू का स्कूल में अच्छा न करना, बिजली, पानी की झंझट अलग। सबका मुझे एक ही समाधान दिखाई  पड़ता। रवि पर सारा दोष मढ़ कर चीख चिल्ला कर अपन गुस्सा मै उतार देती और सोचती मैने अपना कत्र्तव्य निभा दिया। टी0 वी0 पर महिला स्वतंत्रता के चर्चे, स्त्रियों के अधिकार माँगों के लिये लड़ना और अपने को पति से तुलना कर कम समझना ही मेरा काम था। रवि दिन भर आफिस में खटते हैं तो मैं कौन सी मखमल की सेज पर पड़ी रहती हूँ । एक पाँव पर खड़ी होकर घर संभालती हूँ । रवि का क्या जरा सी तबियत ढीली हुई तो दो दिन की छुट्टी  लेकर बैठ जाते है और चाय, काफी, सूप की हुकुमबाजी अलग। सारा घर उठा कर अपनी तीमारदारी में लगा लेते और मैं-- कहीं नौकरी की होती तो अपना कैरियर होता कुछ पैसे मेरे अपने नाम के होते और मेरा भी वही रोब होता जो रवि का। थोड़ा ढ़ाढ़स तो रहता। बच्चे केवल मेरे ही तो नहीं। रवि की भी तो उनके प्रति जिम्मेदारी है। और रवि के साथ जो पल स्वर्ग के समान मधुर और सुखदायी लगने चाहिए थे वे लड़कट कर मुँह फुलाकर बीत जाते मै क्या चाहती थी समझ ही न पाती। रवि को एक आदर्श पिता की तरह होना चाहिए। उसका घर में दबदबा होना चाहिए पिता का रोल सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसी बहस में एक दूसरे से असन्तुष्अ कितने वर्ष खिसकते चले गये बच्चे कब बचपन से किशोरावस्था में जा पहुंचे पता ही न चला। आपस की तू तू मैं मैं की बहस में यह सुध ही न रही कि अपने दायित्वों की पूरी तरह न निभा सकने के कारण कब बच्चों के अनुशासन की डोर ढ़ीली पड़ गई। बच्चे घर को छोड़ कर बाहर दोस्त  रेडियों, चैक चैराहे पर खड़े आवारगी में मस्त रहने लगे। और रवि ने भी रोज-रोज की झिक-झिक से परेशान होकर बाहर की पोस्टिंग लेती मुझे तो समझा दिया कि ‘‘यहाँ पर बच्चों के पढ़ने की अच्छी सुविधा है कैरियर का सवाल है एक ही जगह रहना ठीक होगा कोई असुविधा नहीं होगी।’’ राजी! समय बीतते क्या देर लगती है?
     रवि  ने तो एक सुन् दर सुविधा पूर्ण घर बनवा कर मेरे लिये जीते जी एक कब्र बनवा दी, हाँ मुझे तब वह अपनी कब्र ही लगा था। रवि कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे बाहर की चवेजपदह जो थी। कुछ उड़े उड़े से, बहके-बहके से खूब खुश। घर में गाय  का खूँटा एक जगह  बाँध दिया और उसकी रस्सी के आस-पास तक ही बच्चों का दायरा कैरियर की सीढियाँ चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गये रवि काम-- काम-- काम-- उत्तदायित्व --और बड़े उत्तरदायित्व घर पत्नी, बच्चे कब सब नगण्य हो उठे। महीने दो महीने पर घर आने का सिलसिला जीवन का अंग बन गया। मैं रवि से दूर बहुत दूर होती चली गई। उनका घर आना मुझे मेहमान के घर आने सा लगता अपनापन था भी कहाँ  जो था वह भी मै अपनी ही तरह से जीवन जीने लगी अपना पन खत्म हो चला। मै अपने अहं में डूबी क्रोध बराबरी के हिस्का हिस्की में रवि के प्यार, उनके धैर्य, तथा कसक को तब समझ ही न पायी पाँच वर्ष का लम्बा अन्तराल ----- कैसे दिन बीतते चले गये। अब मेरी आँखे खुली विचारों में एक नया मोढ़ आया जीवन में जोर की ठोकर सोनू, मोनू का अजीब-सा व्यवहार खोये-खोये से रहना, अपने को बहुत असुरक्षित सा महसूस करना उनके मित्रो का परिवेश कालेज की गतिविधियाँ उन सब ने मुझे बाह्य कर दिया अपने बीते हुये उन पलों को फिर से बहुत करीब से देखने के लिये। हाँ रवि बहुत हिम्मत कर तुम्हे पत्र लिख रही हूँ । मुझे समझने की कोशिश करना
     रवि मेरे,
            ऐसा लगता जब तुम यहाँ थे तुम्हारी एक-एक अव्यक्त उपस्थिति हमेशा व्याप्त रहती थी भले ही तुम बच्चों के साथ पढ़ाने के लिये न बैठते, पहाड़े न रटवाते, साइन्स और गणित के प्रॉब्लम सोल्ब न करते मगर तुम्हारे घर सोनू मोनू के रहने मात्र से एक अनुशासन का भाव, प्रभाव रहता। उन्हें लगता कि शाम को पापा आने वाले है। उन्हें उदण्डता अच्छी न लगेगी। भले ही तुमने उन्हे कभी डाँटा न हो फटकारा न हो लेकिन आदर मिश्रित भय रहता था उनकी आँखों में तुम्हारे लिये। जिसे मैं अब तुम्हारे बाहर जाने के बाद महसूस करती हूँ जब तक तुम यहाँ थे मैने कभी नहीं समझा
            अब कब सुबह होती है कैसे दिन बीतता है कुछ पता ही नहीं चलता। तुम्हारे घर पर न रहने से लगता है कोई काम ही नहीं है न खाना बनाने की रूचि न घर को सजाने सवारने का उत्साह न स्वयं ही सजे धजे रहने की ललक। सब कुछ अचानक मर सा गया है बाहरी दुनियाँ, आस-पास किसी का कुछ अता पता नहीं कहाँ आओ कहाँ जाओं जैसे जीवन ही ठहर गया हो ऐसा लगता हे मेरे मन का आत्मविश्वास ही खत्म हो गया है। शायद मेरे मन के दीपक की बाती तुम ही थे मेरे सूरज तुम्ही थे जिसकी रोशनी पाकर मै चमकती चन्दा की तरह। चाँद भी शायद नहीं जानता कि सूरज की रोशनी पाकर ही वह शान्त स्निग्ध मधुर चाँदनी बिखेरता है मैं समझ ही न पाई कि आज के युग में समानता का दरजा पाकर भी आर्थि रूप् से स्वतन्त्र हो कर भी सुखसुविधाओ से घिर कर शायद भी स्त्री के मन का कोई कोना खाली ही रह जाता है जीवन साथी के बिना अकेला हो जाता है। शायद मैं बहक रही थी। अब मै समझ गई हूँ दोनों का सहयोग ही घर को चला सकता है तलाश रहती है घर के अन्दर का दायरा मेरा अपना है अनुशासन प्यार सहयोग ये गुण  घर में माँ से परिवार को मिलते है और साहस, आत्मविश्वास संयम सहनशक्ति अनेक विषम परिस्थितियों में रह सकने की कठोर क्षमता बच्चा अपने पिता से सीखता है पिता का रहना मात्र ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठ परिश्रम जीवन के आदर्श कही न कही बच्चों के कोमल मन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है।
नौकरी करने की ललक घर को बन्धन मानकर बाहर सुख संतोष ढ़ूढ़ने की व्याकुलता मानकर अर्थहीन सा लगता है पढ़ लिख कर नौकरी करना ही जीवन का उद्देश्य नही, विचारों का उन्नयन और आवश्यकता पड़ने पर सहारा बन सकना’’ तुम्हारे ये विचार विल्कुल ठीक थे। मन का ठहराव, धैर्य जीवन के कुछ निश्चित आदर्श बहुत जरूरी है। तुम लौट आओ रवि, मैं पल-पल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। 
                                                                                                                             तुम्हारी 
                                                                                                                                  रेनू                                                                                       

Sunday, September 8, 2013

DEKHEN , SOCHEN AUR SAMJHEN

 
                                           देखें, सोचें और समझें   
     बढ़ती हुई आबादी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा की समस्या भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। कम्पटीशन की युग है हर क्षेत्र में दौड़ है ढ़ेरो स्कूल खुल गये ढेरों शिक्षक एवं शिक्षकायांे मगर माता-पिता की चिन्ता का कोई ओर छोर नहीं। प्रत्येक परिवार की जो होड़ कोशिश रहती है कि वह अपने बच्चे को एक अच्छा से अच्छा नागरिक और सफल सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य समर्थ बना दें। और यही उनके जीवन का उद्देश्य होता है। अगर बच्चे बन गये तो मानो उनका अपना जीवन सफल हो गया नही तो सब बेकार नीरस फीका।
      आधुनिक युग का व्यसत जीवन, मानसिक दबाव, आर्थिक समस्यायें महँगाई, छोटे होते परिवार ये सब विवश कर देते हैं कि माता-पिता दोनों ही नौकरी करें। ऐसे जीवन की भाग दौड़ में बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग कब और कहाँ उपेक्षित हो जाता है वे समझ ही नहीं पाते। या कभी-कभी परिवार का असंतुलित वातावरण, कुण्ठायें ही बच्चों के विकास को अवरूद्ध करने लगती हैं।
    बच्चो के सुन्दर व्यक्त्वि की नींव गहरी और मजबूत हो सद्गुणों का उनमें विकास हो इसकी चिन्ता माता-पिता को सबसे अधिक होती है। जैसे-जैसे परिस्थितियाँ बदल रही हैं मान्यतायें भी बदल रही हैं। आज के व्यस्त माता-पिता सोचते है कि बच्चों को अच्छे महँगे स्कूल में डाल कर उनमें अच्छे गुणों के बीज बो सकते है जो समय पाकर अच्छी तरह हो पुष्पित पल्लवित हो जायेगें।
     और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उन्हे अच्छे विद्यालय शिक्षण, अनुशासन, सर्वागीण विकास करने वाले स्कूलों की तलाश रहती है। और जिस विद्यालय में इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना दीख पड़ती है वह भरसक प्रयास कर बच्चों का भविष्य पूर्ण विश्वास के साथ सौंप देते है और इस तरह से सारी भागदौड़, मानसिक तनाव से मुक्त हो जाते है।
    हम सभी जानते है, और आप हमसे सहमत भी होंगें कि विद्यालय और अभिभावक दोनों का लक्ष्य एक ही है- बच्चों का सही उचित विकास और सही मार्ग दर्शन। यदि दोनों का उद्देश्य एक हो और आपसी सहयोग तथा सही तालमेल हो तो परिणाम निश्चित रूप से अच्छे ही होगें। पदचनज अगर अच्छा है तो वनजचनज अच्छा ही होगा। यह सही है किन्तु जरूरी नहीं क्योंकि बच्चों के व्यक्त्वि के निर्माण और विकास में और भी बहुत सी चीजें का प्रभाव उस पर पड़ता है।
     आपके थोड़े से सहयोग से हम अपने लक्ष्य को पा सकते है।
    जैसा कि सब लोग अच्छी तरह जानते है कि टेलिविजन मीडिया बहुत अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है जो संस्कृति विकसित हो रही है वह बहुत प्रशंसनीय नही है और यह भविष्य के लिये शुभ संकेत नही है यहएक अपशिक्षा है अपसंस्कृति है। गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है। सावधान और सतर्क होने की आवश्यकता है। अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये तैयार रहे।
    10 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु का अन्तराल बहुत ही संवेदनशील और महत्वपूर्ण है यानी हम कह सकते है कि कक्षा-5 से कक्षा-10 तक का समय संगति की आवश्यकता होती है क्योंकि यह समय बच्चों में मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक बदलाव का उत्सुकता कभी-कभी उन्हे भटकाव की ओर ले जा सकता है छोटे होते एकल परिवार माता-पिता का अधिक व्यस्त होना और बच्चों में उनके जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकता है और अन्य चीजो में रूचि  लेने लगता है और अपनी एक नई दुनियाँ बन जाती है, खेलों की, मित्रों की, पढ़ाई से दूर। पढ़ाई के तो विद्यालय में कुछ ही घण्टे होते है और घर में बाकी समय आस-पास का, घर का पास पड़ोस का, खेल कूद का।
     आइये कुछ रचनात्मक सुझावों पर विचार करे ताकि उस पर अमल कर काफी हद तक अपने प्रयासों में सफल हो सकें।
(1) शैक्षिक वातावरण घर पर भी बनायें।
(2) समय पर स्कूल पहुँचने के लिये प्रोत्साहित करे।
(3)े अकारण ही विद्यालय से छुट्टी लेने की आदत न डलवायें बच्चो की गतिविधियों से अवगत रहे उनकी दोस्ती किन और कैसे लोगों से है इसकी जानकारी रखे। उनके दोस्तो के परिवार से भी अच्छा सम्बन्ध रखें। नजर रखे कि खाली समय में उनके क्या कार्यकलाप है।
(4) अपशब्दों का प्रयोग न करें। घर में शान्ति बनायें रखें। परिवार में आपस की बातचीत और व्यवहार में पद की गरिमा का पूर्ण ध्यान रखें। आपस की डाँट डपट लड़ाई झगड़े के माहौल से दूर रहें।                 
(5) जो बाते विद्यालय में बताई जा रही है वैसा ही नैतिक व्यवहार अनुशासन का पालन घर पर भी करें ताकि घर और विद्यालय का नैतिक वातावरण एक सा रहंे।  
(6) बच्चो के साथ दोस्ताना व्यवहार रखें ताकि वे अपनी बाते खुल कर बता सकें छिपाये न।  
(7) आवश्यकता से अधिक पैसा देकर उनकी आदतें न बिगाड़े यह आपके प्यार और देखभाल का प्रतीक है। मगर ये उसे गलत रास्ते पर ले जा सकते है। सामान लाने के लिये पैसा दे तो उसका हिसाब अवश्य लें।
(8) रात का भोजन माता-पिता बच्चों के साथ करें इससे आपसी प्यार और लगाव बढ़ता है।
    वर्तमान में टेलीविजन मीडिया लोगों को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है और गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है वह अपना साकारात्मक उद्देश्य से भटकाकर रचार्थपूर्ति और धन कमाने का माध्यम बनता जा रहा हे फलतः जो संस्कृति विकसित हो रही है वह भविष्य के लिये शुभ संकेत नहीं है यह एक अपशिक्षा है, अपसंस्कृति है सावधान और सर्तक होने की आवश्यकता हे अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये अभिभावको को तैयार रहना है।
     छोटे-छोटे एकल परिवार, माता-पिता का अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अधिक व्यस्त रहना, बच्चों के जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय तक अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकाता है अन्य चीजो में रूचि लेने  लगता है। टेलीविजन की तरह पत्र पत्रिकायें विभिन्न चैनल एक नई दुनियाँ ही उनके सामने खोल देते है। उनके अपने घर में यह सब नहीं है तो बाहर उपलब्ध है। मनभटकता है और एक नई दुनियाँ बन जाती है उनकी अपनी। खेलों की मित्रों की, नई-नई जिज्ञासाओं को पूरा करने की। पढ़ाई से दूर, सही मनोरंजन से हट कर जिसका पता ही अभिभावकों को समय से नहीं लगता।
         किसी भी वस्तु के दो पहलू होते ही हे इससे भयभीत व घबराने के स्थान पर समस्या के सकारात्मक समाधानों की आवश्यकता है। यदि कोई चाहे तो उसकी उपयोगिता को ध्यान में रख कर लाभ उठा सकते है और यदि स्वयं पर नियंत्रण और संयम नहीं विवेक नही तो भविष्य को नष्ट भी कर सकता है। कुछ नया जानने करने में वे कदम उठा ही लेते है जो--------- जब माता-पिता या बच्चों को सब कुछ समझ में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है अभिभावक सब परेशानियों को समझ रहे है। जान रहे है मगर आकर्षण इतना जबरदस्त है कि सुनामी की लहरों की तरह भयंकर ऊँचाईयों में उठ कर घर की सुख शान्ति मन का चैन सब निगल ही लेती है सब कुछ दाँव पर लगा है नित नई घटनायें नयी सूचनायें तरह-तरह के दिल दहला देने वाली वारदातें घट रही है जब तक एक से निपटने का उपाय कोई सोचता हे कोई दूसरी नई विधि खोज ली जाती हैं बस अभी के लिए इतना ही।  
                        
  
                  

Sunday, September 1, 2013

Jeevan Kya Hai


                                                              जीवन क्या है?
  जीवन क्या है? समय सरिता का बहता हुआ प्रवाह नित्य, नूतन नवीन पर समय की झुर्रिया पड़ जाती है और वह शनैः-शनैः शिथिल शुष्क होकर मृतप्रय हो जाता है। ठूँठ नीरस, उम्र की परतो से कुरकुर खोखले खोडरो से मुक्त वृक्ष की तरह मानव जीवन भी वृद्ध हो जाता है। लेकिन उसमें भी आशा का अंकुर कहीं छिपा रहता है। एक मिटा तो दूसरा बीज अंकुरित हुआ उसी के बगल से उसी से सिंचित दूसरे नये जीवन की प्रगति का ही नाम जीवन है। तिल-तिल गल कर बूँद-बूँद गिर कर प्रकाश देती है मोम की यह जीवन वर्तिका, जलती जाती है। मिटती जाती है।
    हर वर्ष आता है और अपने स्मृति चिन्ह छोड़ कर चला जाता है। जीवन की नश्वरता से निराश न हो। असफलता के अंधेरे से घबरा कर आँखें न बन्द कर ले। नश्वरता में भी पुर्नजीवन है। अंकुरण प्रस्फुटित हो रहे है। मिटकर गलकर ही तो एक नये पौधे वृक्ष का निर्माण होता है। बीतते समय के पीछे घने घटाघोप बादलो के बीच मचलती बिजली आशा की किरण पर भरोसा रखें। कब कौन प्राण दायिनी बन जाये कहाँ नही जा सकता।
    वाह! रे निष्ठुर अभिमानी समय दर्प से युक्त, लेकिन कितने निरीह! सब कुछ नष्ट, अस्त व्यस्त, समाप्त करने का झूठा दम्म दिखा कर परास्त करने के नशे में चूर ठहर जा इस वृक्ष को दिखा कर क्या समझना चाहता है? कि रग-रग पर तूने अपने विकट कायल हाथो से इसे ठूठ, नीरस शुष्क और मृतप्राय बना दिया है और मानव जीवन भी तेरे हाथों अन्त में निरीह असहाय और दयनीय हो जाता है यही न!कितना भोला है तू! अरे पागल! एक मिटा तो दूसरा अंकुरित हुआ? तेरे अहंकार की खिल्ली उड़ाता हुआ उसी वृक्ष के रक्त से सिंचित नई कोपलो के हाथ फैलाये तुझे विदा देता हुआ आशा का कोमल अंकुर वृक्ष की जड़ो से सटा धरती को मिट्टी को जकड़ा कोमल अंकुर उसी की अस्थियों रक्त मज्जा से सिंचित बीज का अंकुरण प्रगति का तुम पर विजय का प्रतीक है।
    समय से भयभीत काल से त्रस्त मेरे मन। हिम्मत न हार। असफलता के अंधेरे से घबरा कर अपनी आखे न बन्द कर लें।
    मन मेरे आँसू न बहा। संघर्षों में ही बड़े-बड़े संकल्प जन्म लेते है और असफलता के चट्टानो को चूर-चूर कर देते है।
    उद्यमेन ही सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। परिश्रम से का सिद्ध होते है। मनोरथ से नही।                       

Sunday, August 11, 2013

Vikas-Ek Mithya

                                
                                  
                             विकास-एक मिथ्या
      बड़ी ऊँची-ऊँची अट्टलिकायें
      चमकते, दमकते, फिसलनभरे संगमरमर के फर्श,
      मिट्टी की सोंधी महक को तरसते
      अपने सच्चे वजूद को, उसकी खुशबू को खोजते,
हम कहाँ थे कहाँ आ गये है?
फर्श से अर्श पर,
जमीं से आसमां पर
ऊँचाइयों को नापते-नापते जड़ों से
कट ही गये हैं।
    हवा में लटकते, त्रिशंकु से भटकते
    न धरती पर न आसमां में
    न जाने कहाँ खो से गये है
    अपने वजूद को खोजते-खोजते भटक से गये है।
    न ठंडी हवाये, न सूरज की रोशनी
    न वर्षा की बूँदे न मेघों की गरजन
न पंक्षी, न फूलों की सिहरन
फ्लैटनुमा घरों में बँध से गये है
न जाने क्यों हम कहाँ से कहाँ आ गये हैं
ये कैसा विकास? ये कैसा सुन्दरीकरण
कैसी फिजाये?
न मशीन ही रह गये है,
न इन्सान बन सके है।
मिट्टी की सोंधी महक को खोजते,
 अपने पन के प्यार को तरसते
हम ये कहाँ से कहाँ आ गये है।

Sunday, August 4, 2013

Vish ras Bhara

                         
                           
                             
                                                     विष रस भरा कनक घट जैसे
       सोने का चमकता घड़ा और तेज प्रकाश की किरणें आँखहों को चैधियाना तो जरूरी है न? यह केवल सूक्ति ही नहीं वरन् किसी भी आकर्षक कपटी व्यक्तित्व की सच्ची परिभाषा है रूप आकार है जिसमें एक-एक ऐसे धूर्त, चालाक राजनीतिक उठा पटक करने वाले व्यक्तित्व को सीमित कर दिया गया है।
        जब-जब मै उस सौन्दर्य शालिनीशिष्टाचार मधुर वाणी की से युक्त व्यक्तित्व को बाहर से देखती हूँ तो मननचाह कर भी बरबस उसी की ओर खिचता चला जाता है। पब्लिक रिलेशन में बढ़ चढकर सर्वोत्तम, सामान्य जनता को मोहने वाली बाते, कुछ खट्टी कुछ मीठी और उसमें मुस्काराहटों, छेड़-छाड़ का तड़का। एक खूबसूरत बला। तो आस-पास मँडरा-मँडरा कर साहचर्य का सुख प्राप्त करने वालो का हुजूम स्वतः ही लग जाता है। खिलखिलाहट मानों दूर कही घण्टियाँ बज रही हो और इठला-मिठला कर अपने घर परिवार बच्चों पति की अन्तरंग बातों को सुना-सुना कर कुछ नमक मिर्च लगा कर हँस-हँस कर लोट पोट कर देने वाली अदा से लोगों का ध्यान अपनी कमियों से हटा कर दूसरी ओर खीच देने का कौशल। अन्दाज कुछ ऐसा कि पुरूष सहयोगी सहपाठी उनके सानिध्य का मजा लेकर चुपचाप खिसक लेता शिष्टता दिखाते हुए आपस में आँखों ही आँखों से इशारा करते। और रह जाती कभी कनक छड़ी सी कामिनी कभी कनकघट सा जादूभरा दृश्य।
       और फिर जब तक  सोने के आवरण को पा कर घट का रसपान करने का समय आता अन्तरंगता बढ़ती तब तक दूरियाँ घटती । तब पता चलता कि विष रस की ज्वाला, विष की तीव्रता का प्रभाव कितना दाहक तिल-तिल कर मारने वाला स्लो प्वाइजन  साँप काटे तो पानी भी मिल जाय मगर इस व्यक्तित्व का मारा ----   सावधान! कहीं आपके आस-पास तो नहीं?

Sunday, July 28, 2013

Prabhu-Sarvyapi

                                             प्रभु-सर्वव्यापी
           मैने तुम्हे देख लिया
           मैने तुम्हे ढ़ूढ़ लिया
           लुका छिप्पी करते हो
           दिखते हो छिपते हो
           छिपते हो दिखते हो
           मैने तुम्हे देख लिया
                                नदियों की लहरो में
                                सूरज की किरणों में
                                फूलों में कलियों में
                                सन्-सन् हवाओं में
                                मैने तुम्हे देख लिया
                                ऋतुओं के जादू में
         बादल में बूँदो में
        धूपों में छाओं में
        भौरों की गुनगुन में
        मैनें तुम्हे देख लिया
        मन की उमंगों में
        तन की तरंगों में
                           दर्द की दुआओं में         
                           प्यार की फुहारों में
                           मैने तुम्हे देख लिया
                           धरती में अम्बर में
                           आशा-निराशा में
                           अन्दर से बाहर तक 
        ऊपर से नीचे तक 
        मैने तुम्हे देख लिया
        सूरज की किरणों में
        फूलों के रंगों में
        चिडि़यों के कलरव में
        कण-कण में
        मैने तुम्हे देख लिया    

Monday, June 24, 2013

PHIR KYUIN


फिर क्यों?       
क्या  बाबू ,क्या अफ़सर , नेता ?
क्यों  करतें  हैं ,मारा -मारी ,
लेकर   कुछ भी  जा  न  सकेंगे
फिर क्यों  इतने   महल अटारी ,
डाक्टर ,टीचर  या व्यापारी -,
एन्जीनियेर भी ,सब नर -नारी .
छीना -झपटी  सब  पर  भारी .
लेकर कुछ भी  जा  न  सकेंगे .
फिर क्यों  इतने  महल अटारी .
सुख -सुविधा तो सही है ,लेकिन ,
जोड़ -तोड़  की नीती   सारी --,
पछतावा ही रह  जाएगा -
फिर  क्यों  इतनी  मारा - मारी ?

Sunday, June 23, 2013

Mashal

                           मशाल  
                      मशाल  जलनी चाहिए
                      लौ न बुझनी चाहिए
                       प्रबल झंझावात हो
                       या कि चक्रवात हो
                      आग  जलनी चाहिए
                      लौ न बुझनी चाहिए।।
                      कब कहाँ  किस नीति से
                      अपनी सुरक्षा हम करें
                      लक्ष्य पर ही ध्यान हो
                       सतर्क सावधान हों
                    खुद भी जिये और जीने दे
                      का भाव साथ में लिये
                       सहानुभूति, प्रेम का
                       विचार साथ में लिये
                       मशाल जलनी चाहिए
                       लौ न बुझनी चाहिए
                        आस रहनी चाहिए
                        लौ न बुझनी चाहिए

Sunday, May 5, 2013

Bada katora

                                                         बड़ा  कटोरा
      ये अचानक कहाँ  जाने की तैयारी कर रहे हो बबलू के बाबा देख नहीं रहे हो कितनी ठंडी हवा चल रही है बीमार पड़ोगे क्या? अपनी पत्नी का टोकना न जाने मुझे क्यों अच्छा नहीं लगा। झुझला कर बोला टोक दिया न! कितनी बार कहा है निकलते समय टोका न करो कल सच्चे भैया की बहूरानी का फोन अन्यथा बहुत बीमार है मुझे ढूढ़ रहे थे मुझे जाना ही होगा। नहीं, नहीं तुमने वहाँ न जाने की कसम खाई थी। भूल गये उस अपमान को किस तरह जलील किया था उन्होंने पैसे का और पद का इतन घमण्ड! नहीं, नहीं आप नहीं जायेंगे मैने एक तीखी नजर पत्नी पर डाली ’’ नहीं मुझे जाना ही होगा बड़े बाबूजी का नमक खाया है। बचपन से लेकर बड़े होने तक सच्चे भैया को सिखाया है पढ़ाया है मै बड़े बाबूजी को भूल नही सकता उनका कर्ज मुझे चुकाना है कह कर मैने जल्दी से झोला उठाया और बस स्टैण्ड की ओर बढ़ चला। बस से बनारस तक पहुचने में तीन घण्टा, फिर वहाँ  से बड़े बाबूजी का बंगला एक घण्टा।मेरी आंखों   के सामने सिनेमा बीते वर्षों के सिनेमा की रील चलने लगी
      बड़े बाबूजी ने मुझे गाँव व से तब अपने यहाँ  बुलवाया था जब मै 18 वर्ष की उम्र का था बारह की परीक्षा देकर आगे कुछ पढ़ने की इच्छा में उनके बंगले पर  पहुं चा था। उन्होंने अपने दो लड़को और दो लड़कियों को पाँच  से सातवीं कक्षा में ट्यूशन पढ़ाने का काम सौंपा था। खुद बड़े बाबूजी शाम को अपने दफतर में आराम कुर्सी पर बैठ मोटी-मोटी काम की किताबें पढ़ते रहते और दरवाजे पर चिक सामने बरामदे में बैठ कर सच्चे भइया और बच्चों को पढ़ाया करता। आठ बजते-बजते छुट्टी पाजाता घर का बाजार का कुछ छुटपुट काम कर खाना भी वही खाता महरा--रसोईघर से खाना परोस देती सब कुछ अच्छा चल रहा था। चालीस वर्षों की सच्ची सेवा सच्चे भइया बच्चे पढ़लिख कर अफसर बन गये शादी हुई बहुयें आई बच्चों नाती पोतों की किलकारी से घर आँगन गूंजा । और फिर बड़े बाबूजी के न रहने का मनहूस दिन और मेरा वापस गाँव  आने का संकल्प 20-30 साल का अन्तराल और फिर अचानक बहू रानी का फोन-हमें आपकी बहुत जरूरत है काका आ जाइये। पता नही क्यों कहना चाहते है बहुत बीमार है पिछली बाते सब भूल जाइये । यह सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया विशाल महलनुमा घर के एक बड़े से बन्द कमरे में आराम कुर्सी पर लेटे शून्य में छत को एक टक निहार रहे थे सच्चे बाबू दिन में भी अंधेरा। इतना बड़ा घर और हवा रोशनी  धूप पानी वर्षा की फुहार खुले वातावरण की इतनी कमी। बाहर तो इतना बड़ा खुला आकाश, उसमें तपती रोशनी की किरणे बिखेरता पीला दमकता सूरज मगर कमरे में उसका प्रवेश निषिध छोटी-छोटी झरोखे नुमा खिड़कियाँ । दुनियाँ  से कट कर कैसे रह सकता है कोई। बड़ा सा आयताकार डाईनिंगरूम। 12 लोगों के बैठने के लिए उसी से मैचिंग डाईनिंग टेबल। चारोां तरफ दीवारों पर अनगिनत फोटो ग्राफ्स। कहीं परिवार के साथ, कहीं पत्नी और कहीं बच्चों के साथ। पेन्टिग्स चप्पा-चप्पा दीवार को सुसज्जित। आलमारी तथा शोकेश में बेशकीमती क्राकरी, सजावटी चीजेंमगर जीवन्तता कहीं नहीं। जैसे किसी म्यूजियम में आकर बैठ गये हों अजीब-सी दहला देने वाली चुप्पी। ड्ाईंगरूम के बड़ा सा हाल हिंसक जन्तओं के शेर का भयानक कालीन पर चिंघाड़ता हाथी, दौड़ते, घोड़े, चमड़े के आवरण से मढ़ा हुआ घोटक का मुख
       यही था वह घर आज से लगभग 15-20 साल पहले। ज्यादा समय भी तो नहीं गुजरा। बाबूजी का पुराना घर छोड़कर असमें आयें हुये। बाबू जी का घर- बड़ा सा आँगन । खिलखिलाती धूप। चहचहाती चिडि़यों गौरैयों का झुण्ड। उस आँगन  गन में एक किनारे अमरूद का फलदार पेड़। दूसरी तरफ टीने के शेड के नीचे बॅंधी दो जरसी गायें। साफ सुथरे नाद, सुबह शाम 15-15 किलो दूध। एक चूल्हे पर दिन भर दूध का औटते रहना। दूध, दही रबड़ी मलाई का अम्बार। दरबार खुला सा रहता। हवा पानी धूप छाँव  आफरात। घर के हर लोगों को उपलब्ध, घर में सब भाई बहनों का, चाचा, चाची, मौसी, मौसा, बुआ, फूफा, घर के ही नहीं आस पड़ोस को भी मिला जुला कर बॅटता।
       कचनार की कलियों की टिकियाँ , कटहल कटहली के कबाब, कोफ्ता, नीबू करौदा, आम पपीता अनार अमरूद का आनन्द। अंगूर की लतर, जूही, चमेली के फूलों की गदराई बेल गमकती महकती तारों से नन्हे सफेद फूलों की महक। हर को खुशी बाँट ते  दुख-सुख को सुनते समझते खुशी और गम के हिन्डोले में फूलते कब दिन बीत जाते बच्चों को कभी डांट  पड़ती तो सामने गोल आकार के बने लान में गोल-गोल चक्कर लगा कर इवनिंग walk के बहाने सुनहले भविष्य के सपने बुनते कितने घण्टों बीत जाते। नौकर बुलाने जाता चलिये आठ बज गये है खाना खाने। और सब रसोईघर में पहुँच हूँ  जाते। मिट्टी का चूल्हा, लकड़ी पर बनती पकाती दाल की सोंधी महक रोटी सब्जी। अम्मा गरम-गरम रोटियाॅं सेकती और पीछे पर बैठकर आलूकी मसालेदार लहसुन मिर्च वाली भुजिया के साथ। भाइयों के लिये टेबल लगाती जब मैने देखाना आम्मा का एक व्यवहार जरूर पक्षपात  पूर्ण रहता  बड़े से कटोरे मे सच्चे बाबू भइया के लिये अलग से बड़े काटोरे में खीर और बहनों के लिये उससे छोटे कटोरियों में खीर। स्कूल से लौटकर आते शाम के नाश्ते में यह भेदभाव देखकर सभी एक बार माॅं से इसके प्रति विरोध जरूर प्रकट करते और हमारी अम्मा साहब जो कम बोलती मुस्करा कर बात टाल जाती। और फिर सब कुछ सहज सामान्य। बाकी दो भाई हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई करते छठे  छमासे -------घर --आते -जाते
        दिन पंख लगा कर उड़ चलें। दिन महीने में महीने सालों में और दशक -दशक वर्षों का समूह। सब बड़े हो गये विवाह बच्चे नौकरिया और बहनों का आना कम होता गया। एक दिन वह भी आया जब माँ  न रहीं। रह गये पिता भाई भाभी और भतीजे। मायका तो जब तक मा माँ रहती है तभी तक रहता  है  माँ का यानी मायका तब क्या पता था माॅ ने अपनी मन्द मुस्कान से मन ही मन बाबूजी को क्या संदेश दिया था कि अपनी अर्जित सम्पत्ति को वह पाॅच भागो में बराबर-बराबर बाॅट गये। कारण चाहे जो भी रहा हों। लिखित रूप में कानूनी कार्यवाही से तीन बहनों और दो भाइयों में बराबर का हिस्सा। तब तक काश संम्पत्ति में बेटियों के अधिकार को काशन नही था। मगर माॅ की बेटियों को आर्थिक स्वतन्त्रता और सम्मान की अधिकारिणी मानने वाली माॅ ने अवसर मिलते ही अपने अन्र्तमन की अदम्य इच्छा को पूरा करवा ही दिया था। मगर वह भाई बचपन से ही बड़े कटोरे की खीर दूध, दही और मलाई वाले भेदभाव को जीवन भर न भुला सकें। और सम्पत्ति का यह विभाजन सदैव जीवन भर उनकी आॅख को किरकिरी बना रहा थोड़ा-थोड़ा छोटा-सा भाग देकर समस्त पर ---- अधिकार जमा कर कुछ वर्षों तक साम्राज्य का उपयोग करने का झूठा दम्भ खा। मगर ईश्वर की लाठी में आताज नहीं होती सुना था देखा नही था। जीवन के अन्तिम वर्षों में इतनी पीड़ा, शारीरिक व मानसिक कष्ट अहम् बहुत बुरा होता है। स्वयं को सही सिद्ध करने में कितने झूठो का सहारा, छल, प्रपंच अपनों से कट-छट कर चुपचाप लेटे उफ-उफ! कर करवटे बदलतें, विशाल कमरा, दो  झूलने वाली कुर्सी, दवाओं से भरी रैक, आलमारी एक छोटी-सी खिड़की। जिस में से मुठ्ठी भर धूप और प्रकाश ही आ सकता है। क्या इसी के लिये इतना सब माया जाल रचा था?
       दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में चिकित्सीय सहारों पर लेटें, मानसिक रूप पूर्ण चैतन्य तार्किक, अनुभूतियों से चैकन्ने आने वाले अतिथियों से कहते मैं भीष्मपितामह हूँ  मैं भीष्म पितामह इस शरशैया पर लेटा शारीरिक कष्ट भोगता जीवन का अन्त देख रहा हूँ । विवश, हताश। इसी जीवन में यही पर अपने पिता के प्रति किये विश्वास घात, दुष्कर्मों का फल मिलता है मै इसका जीता जागता उदाहरण हूँ । मुझे क्षमा करना मेरे प्रिय जनों मुझे क्षमा करना। चाटुकारों  से घिरा, विमूढ़ मुझे क्षमा करना। मुझे क्षमा करना मेरे बच्चों को मेरी गलतियों की सजा न देना।

Sunday, April 28, 2013

Pahala Kadam

                                                              पहला कदम
    
      यह उत्तरदायित्व लड़कियों का ही है कि वह स्वयं को जानबूझ कर किसी खतरे में न डालें। वर्तमान में समाज की स्थिति, लोगों की मानसिकता को समझाते हुए लड़कियों, माताओं और बहनों को अपनी समझ बढ़ानी होगी। सोच समझ कर निर्णय लें ऐसी जगह जाने से बचें जहाँ  दूसरों को हावी होनें का मौका मिल जायें और आप या बच्ची अकेले पड़ जाये। सावधनी हटी दुर्घटना घटी। मजे और मजाक से दूर रहे क्योंकि इसी में दुरव्यवहार होता है और हो जाता है। समझदारी से भी मजा और आनन्द लिये जा सकता है। प्रदूषित वातावरण में न जाने में ही समझदारी है कहाँ खतरा है और कहाँ सुरक्षा यह समझ विकसित करना, स्वयं को दूरदर्शिता में सबल बनाना ही महिलाओं के सशक्तीकरण  का पहला कदम है। आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक सुरक्षा के लिये स्वयं को मजबूत बना सकने में ही बुद्धिमानी है। वैसे कानून तो मजबूत और कड़े होने चाहिए लेकिन हम यह भी जानते है कि कानून की न्यायिक प्रक्रिया अत्यधिक लम्बी और लचर है। इसलिए लड़कियों का स्वयं निर्णायक दूरदर्शी और सर्तक होना अनिवार्य है तभी कुछ हो सकता है अन्यथा इसी आशा में कि तभी तो समाज सुधरेगा सिर्फ एक सपना ही रह जायेगा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए माता-पिता लड़कियों के किसी भी निर्णय लेने में अगर मदद करें तो काफी हद तक दुर्घटनाये टल सकती है। माता-पिता यह कर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते कि वे अपने-अपने काम में इतने व्यस्त है कि उन्हे समय ही नहीं मिलता। बच्चों में सही समझ की नींव डालना माता-पिता का पहला नैतिक कर्तव्य है यह उन्हें नहीं भूलना चाहिए। बाद में पछताने से कोई लाभ नहीं।
                                                           समय चूकि पुनि का पछताने
                                                             का वर्षा जब कृषि सुखाने।।

Holi

                                  होली
 आओ, होली खेले
हिल-मिल होली खेलें
खुशियों के रंग बिखेरें
आओं होली खेले-

लाल गुलाल हरा अबीर
नारंगी पीला -अंगूरी
खुशियों के रंग बिखेरे
हिल-मिल होली खेले

क्यों घबराते, क्यों सकुचाते
हाथ बढ़ाते हॅंसते गाते
आकर देखे, मिलकर देखे
गाकर देखे नाच के देखें

पल भर को हमसब दुख भूले
आओं हिल-मिल होली खेलें
खुशियों के रंग बिखेरें-



Sunday, March 31, 2013

Agman

              आगमन                                                                         
नवमी तक तो देवी के अर्चना के फूल उपवन में इक्का-दूक्का ही दिख रहे थे। चढ़ाने के लिये फू लों  की माँग थी। अंधेरे मुँह  ही यू ये फूल , चहरदिवारी से फांद कर भक्तों के द्वारा तोड़ लिये जाते थे। सुना है चोरी से तोड़े गये इन फूलों को जब देवी पर चढ़ाया जाता तब आधा पुण्य और आशीष फूलों की देख-रेख करने वाले व्यक्ति को भी प्राप्त हो जाता है लेकिन दशमी के दो दिनों के बाद ही घर के बगीचे मे एक आनन्दमय उल्लास सा छा गया। गुड़हल के लाल बिन्दों जैसे लटकते फूलों से पेड़ो की झाड़ी भर गयी पीले फूलों वाली लतर गदरा कर खिल गई। पीली आभा चारों ओर फैल कर दिव्य वातावरण बना रही थी। आम के पेड़ों पर असमय ही बौर थे एक मात्र आम को टिकोरा /छोटा फल/ लटक कर शुभ आगमन की सूचना के पट लहरा रहा था। उसके नये कोमल पल्लव पहले ताम्बई, फिर धानी रंग में कुछ अनोखा सौंदर्य बिखेर रहे थे। द्वार पर खड़े दो कदम के पेडों के फूल पीले और हरे लड्डुओं के रूप में हॅंस कर अठखेलिया करते प्रतीत हो रहे थे। लगता था छोटे बच्चों के खेलने के लिये ललचाते टपाटप धरती पर आकर फुदकने लगते। नन्हे मुन्ने बच्चों /कन्याओं की टोली ने/भोजन पर आकर घर आँगन  गुलजार कर दिया। सबने खुश होकर भर पेट खाया। तश्तरियाँ  ली और भोली मुस्कान से चहकते हुए अपने बारे में जानकारी दी। पता नहीं कैसा अजीब सा पवित्र वातावरण दैनिक अनुभूति सी हो रही थी।
कई वर्षों से उदास निराश मन मे अचानक इक जोत सी जगी घर में मेहमान तो आने ही वाला था। बार-बार विचार आने लगे। अब की सब कुछ बदल दो। दस वर्षों से एक ही रंग बदलवा दों। और समय पर पेन्ट भी आ गया और सब मनचाहा होने लगा। नया  बाथरूम, छोटा-सा बेडरूम छोटी-सी पैसेज, मेरी इच्छा है कि किचन का प्रवेश उधर से ही हो। ड्राईंगरूम से नहीं। नीला, हरा, गुलाबी हर कमरे का अलग रंग। बहुत खुशनुमा। कितनी बिलनियों के घर बने, चिडि़यों का झूले पर एक दूसरे को चारा खिलाना, लड़ना झगड़ना चलकना। फाख्ता का सिर उठा कर गर्वीली मुद्रा में चहल-कदमी करना और हाँ  प्यारे गुलाबी रंगों के गुलाब के फूलों की लतर जो नारंगी के पेड़ के साथ गले मिलकर फूलों के सखा बन बैठे है। उपर से मानों आशीषों की वर्षा कर रहे हो। फिशपाम के बड़े गमलों ने श्रीमान जी की प्रेरणा पाकर ग्रील के सामने प्रवेश द्वार पर सामने मण्डप सा बना दिया है मानों कुटिया का प्रवेश द्वार अंगूर की लता का किचन की खिड़की के उपर जाकर छा जाना मन को भा रहा था कटिंग-शटिंग के बाउ कोमल पल्लवो का अंगूरी रंग उमंग की हिलोरे मन में जगा रहा था। घर के अन्दर द्वार पर गणेश जी विराज गये। श्री राम लक्ष्मण सीता एवं हनुमान जी, स्वागत कक्ष को भव्य बनाया। न मालूम कौन सी दिव्यात्मा के आने के शुभ संकेत मिल रहे थे पिछले व महीनों से।
24 सितम्बर अष्टमी के दिन अकाएक दिन के 1ः30 बजे फोन की घण्टी घनघना उठी। गुड न्यूज जिसकी आप आशा कर रही थी। वह आ गया एक नन्ही सी परी जादू की छड़ी, फूलों की लडी, खुशियों की   शायद इसके आगमन के लिये ही इतनी तैयारियाँ  चल रही थी ‘गौरी’ के आगमन के स्वागत का इतना भव्य और आलौकिक आयोजन शुरू हो गई दौड़ धूप, हलचल, गाड़ी चालक नाना नानी बाबा दादी और मामी बुआ की प्यारी दुलारी। बाबा दादी की सुन्दरी-मुन्दरी, सोना-मोना गौरी के आने से गूजने लगा घर आँगन । कमरे की दीवारों की नीली आभा और गौरी के गुलाबी के कपड़ों का काम्बीनेशन में कुछ अधिक ही मोहक लग रहा था।

Sunday, March 24, 2013

Adhikar


                                             अधिकार
बात चाहे संसद की हो या सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए पदों  के आरक्षण की हो अथवा सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार की। पुरूष वर्ग के आँखों  की किरकिरी बेटियाँ , माताये या बहने ही क्यों? मेरी यह समझ में नहीं आता
अभी मैं पुरूषवर्ग के एक प्रतिनिधि भाई के रूप में चरचा करना चाहूँगी क्योंकि इस समय पारिवारिक समस्याओं में यह भी दहेज समस्या की तरह फैलता जा रहा है जिसका न कोई आदि है और न अन्त। जब से इस बिल को मान्यता मिली है कि पिता की सम्पत्ति मे बेटियों का भी अधिकार है और कार्यरूप् में परिणित किया गया है बेटियों का मायका, भाई बहन का सम्बन्ध दाँव पर लगा हुआ है
पिता के रूप में एक पुरूष अपने बेटे-बेटियों को बराबर नहीं तो सम्पत्ति का कुछ भाग देने का मन तो अवश्य बनाने लगा है कहीं  -कही पर लिख कर कानूनी तौर पर मजबूत बनाकर पिताओं ने वसीयत लिखी हे और कहीं पर मौखिक रूप से /कह कर /बॅटवारा किया है या उन्हें दिया है। लेकिन है कि उन्हें यह भी लिखकर भाइयों को दे देना है कि‘हमें इसमें से कुछ नही चाहिए हम अपना अधिकार भाइयों के पक्ष में हमेशा के लिए छोड़ते है। अगर वे ऐसा नही करती तो उनकी पढ़ी लिखी वकील पत्नी भी उनका /पुरूषों/ पक्ष लेती दिखी। सच का सामना’ में पुरूषों  की हवस का व्योरा उनकी अपनी बेटिया पत्निया सहन करती रहीं और यह सब जान कर भी समाज परिवार से जुड़ी रहने को विवश रही? कहने का मतलब है कि सामान्यतः घरों में 20  लड़कियो का जीवन सुरक्षित और सम्मानित है।
महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा ने कहा कि बालिकाओं को बचाया जाना चाहिए क्या इसलिए कि बचाने के बाद आग लगा कर दहेज के लिए जला दिया जाय गर्भवती स्त्रियों को यह भी अधिकार नहीं  िकवह अपनी बच्ची को जन्म देकर उसके सुरक्षित भविष्य को निश्चित कर सके।
पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों, बालिकाओं के लिये कुछ भी स्वतंत्र नहीं। मेरे विचार से यदि स्त्री स्वयं सोच सके कि वह अपनी बच्ची के अस्तित्व और सम्मानित जीवन के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने परिवार के साथ स्वयं खड़ी रहेगी घर परिवार समाज के सामने उसके साथ मिल कर लड़ेगी लेकिन तिल-तिल कर अपनी पढ़ी-लिखी स्वतंत्र एवं उदार विचारों वाली प्यारी दुलारी बेटी को जीवित लाश नहीं बनने देगी। तभी इस संसार में उसकों लायें।
स्त्रियों की पग-पग पर दुर्दशा, जब जन्म देने वाले परिवार के, अपने खून के सगे सम्बन्धियों चाचा, पापा, ताया मामा आदि के बीच रह क रवह सुरक्षित नही है तो बनाये गये सम्बन्ध ससुराल आदि से तो आशा करना भ्रम है।
इससे बेहतर तो यही होगा कि भ्रूण हत्या को कानूनी सर्मथन दे दिया जाये। कम से कम समाज में परिवार में माताओं को अपनी बेटियों को जीते जी मरते तो नहीं देखना पड़ेगा।
कानून की लाचार न्याय व्यवस्था? समाज सरकार कितना भी ढ़ोल बजा ले प्रगति का, उदार मानसिकता का मगर हे वह वहीं का वहीं बर्बर , संवेदनहीन और अनैतिक कितनी बेटियांे की बलि दी जायेगी इस आशा में कि कभी तो स्थिति बदलेगी कभी तो उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा। बस एक ही उपाय है इसका उनको संसार में लाने का पूरा अधिकार जन्म देने वाली माॅं को ही होना चाहिये वह भी वैधनिक।