देखें, सोचें और समझें
बढ़ती हुई आबादी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा की समस्या भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। कम्पटीशन की युग है हर क्षेत्र में दौड़ है ढ़ेरो स्कूल खुल गये ढेरों शिक्षक एवं शिक्षकायांे मगर माता-पिता की चिन्ता का कोई ओर छोर नहीं। प्रत्येक परिवार की जो होड़ कोशिश रहती है कि वह अपने बच्चे को एक अच्छा से अच्छा नागरिक और सफल सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य समर्थ बना दें। और यही उनके जीवन का उद्देश्य होता है। अगर बच्चे बन गये तो मानो उनका अपना जीवन सफल हो गया नही तो सब बेकार नीरस फीका।
आधुनिक युग का व्यसत जीवन, मानसिक दबाव, आर्थिक समस्यायें महँगाई, छोटे होते परिवार ये सब विवश कर देते हैं कि माता-पिता दोनों ही नौकरी करें। ऐसे जीवन की भाग दौड़ में बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग कब और कहाँ उपेक्षित हो जाता है वे समझ ही नहीं पाते। या कभी-कभी परिवार का असंतुलित वातावरण, कुण्ठायें ही बच्चों के विकास को अवरूद्ध करने लगती हैं।
बच्चो के सुन्दर व्यक्त्वि की नींव गहरी और मजबूत हो सद्गुणों का उनमें विकास हो इसकी चिन्ता माता-पिता को सबसे अधिक होती है। जैसे-जैसे परिस्थितियाँ बदल रही हैं मान्यतायें भी बदल रही हैं। आज के व्यस्त माता-पिता सोचते है कि बच्चों को अच्छे महँगे स्कूल में डाल कर उनमें अच्छे गुणों के बीज बो सकते है जो समय पाकर अच्छी तरह हो पुष्पित पल्लवित हो जायेगें।
और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उन्हे अच्छे विद्यालय शिक्षण, अनुशासन, सर्वागीण विकास करने वाले स्कूलों की तलाश रहती है। और जिस विद्यालय में इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना दीख पड़ती है वह भरसक प्रयास कर बच्चों का भविष्य पूर्ण विश्वास के साथ सौंप देते है और इस तरह से सारी भागदौड़, मानसिक तनाव से मुक्त हो जाते है।
हम सभी जानते है, और आप हमसे सहमत भी होंगें कि विद्यालय और अभिभावक दोनों का लक्ष्य एक ही है- बच्चों का सही उचित विकास और सही मार्ग दर्शन। यदि दोनों का उद्देश्य एक हो और आपसी सहयोग तथा सही तालमेल हो तो परिणाम निश्चित रूप से अच्छे ही होगें। पदचनज अगर अच्छा है तो वनजचनज अच्छा ही होगा। यह सही है किन्तु जरूरी नहीं क्योंकि बच्चों के व्यक्त्वि के निर्माण और विकास में और भी बहुत सी चीजें का प्रभाव उस पर पड़ता है।
आपके थोड़े से सहयोग से हम अपने लक्ष्य को पा सकते है।
जैसा कि सब लोग अच्छी तरह जानते है कि टेलिविजन मीडिया बहुत अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है जो संस्कृति विकसित हो रही है वह बहुत प्रशंसनीय नही है और यह भविष्य के लिये शुभ संकेत नही है यहएक अपशिक्षा है अपसंस्कृति है। गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है। सावधान और सतर्क होने की आवश्यकता है। अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये तैयार रहे।
10 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु का अन्तराल बहुत ही संवेदनशील और महत्वपूर्ण है यानी हम कह सकते है कि कक्षा-5 से कक्षा-10 तक का समय संगति की आवश्यकता होती है क्योंकि यह समय बच्चों में मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक बदलाव का उत्सुकता कभी-कभी उन्हे भटकाव की ओर ले जा सकता है छोटे होते एकल परिवार माता-पिता का अधिक व्यस्त होना और बच्चों में उनके जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकता है और अन्य चीजो में रूचि लेने लगता है और अपनी एक नई दुनियाँ बन जाती है, खेलों की, मित्रों की, पढ़ाई से दूर। पढ़ाई के तो विद्यालय में कुछ ही घण्टे होते है और घर में बाकी समय आस-पास का, घर का पास पड़ोस का, खेल कूद का।
आइये कुछ रचनात्मक सुझावों पर विचार करे ताकि उस पर अमल कर काफी हद तक अपने प्रयासों में सफल हो सकें।
(1) शैक्षिक वातावरण घर पर भी बनायें।
(2) समय पर स्कूल पहुँचने के लिये प्रोत्साहित करे।
(3)े अकारण ही विद्यालय से छुट्टी लेने की आदत न डलवायें बच्चो की गतिविधियों से अवगत रहे उनकी दोस्ती किन और कैसे लोगों से है इसकी जानकारी रखे। उनके दोस्तो के परिवार से भी अच्छा सम्बन्ध रखें। नजर रखे कि खाली समय में उनके क्या कार्यकलाप है।
(4) अपशब्दों का प्रयोग न करें। घर में शान्ति बनायें रखें। परिवार में आपस की बातचीत और व्यवहार में पद की गरिमा का पूर्ण ध्यान रखें। आपस की डाँट डपट लड़ाई झगड़े के माहौल से दूर रहें।
(5) जो बाते विद्यालय में बताई जा रही है वैसा ही नैतिक व्यवहार अनुशासन का पालन घर पर भी करें ताकि घर और विद्यालय का नैतिक वातावरण एक सा रहंे।
(6) बच्चो के साथ दोस्ताना व्यवहार रखें ताकि वे अपनी बाते खुल कर बता सकें छिपाये न।
(7) आवश्यकता से अधिक पैसा देकर उनकी आदतें न बिगाड़े यह आपके प्यार और देखभाल का प्रतीक है। मगर ये उसे गलत रास्ते पर ले जा सकते है। सामान लाने के लिये पैसा दे तो उसका हिसाब अवश्य लें।
(8) रात का भोजन माता-पिता बच्चों के साथ करें इससे आपसी प्यार और लगाव बढ़ता है।
वर्तमान में टेलीविजन मीडिया लोगों को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है और गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है वह अपना साकारात्मक उद्देश्य से भटकाकर रचार्थपूर्ति और धन कमाने का माध्यम बनता जा रहा हे फलतः जो संस्कृति विकसित हो रही है वह भविष्य के लिये शुभ संकेत नहीं है यह एक अपशिक्षा है, अपसंस्कृति है सावधान और सर्तक होने की आवश्यकता हे अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये अभिभावको को तैयार रहना है।
छोटे-छोटे एकल परिवार, माता-पिता का अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अधिक व्यस्त रहना, बच्चों के जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय तक अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकाता है अन्य चीजो में रूचि लेने लगता है। टेलीविजन की तरह पत्र पत्रिकायें विभिन्न चैनल एक नई दुनियाँ ही उनके सामने खोल देते है। उनके अपने घर में यह सब नहीं है तो बाहर उपलब्ध है। मनभटकता है और एक नई दुनियाँ बन जाती है उनकी अपनी। खेलों की मित्रों की, नई-नई जिज्ञासाओं को पूरा करने की। पढ़ाई से दूर, सही मनोरंजन से हट कर जिसका पता ही अभिभावकों को समय से नहीं लगता।
किसी भी वस्तु के दो पहलू होते ही हे इससे भयभीत व घबराने के स्थान पर समस्या के सकारात्मक समाधानों की आवश्यकता है। यदि कोई चाहे तो उसकी उपयोगिता को ध्यान में रख कर लाभ उठा सकते है और यदि स्वयं पर नियंत्रण और संयम नहीं विवेक नही तो भविष्य को नष्ट भी कर सकता है। कुछ नया जानने करने में वे कदम उठा ही लेते है जो--------- जब माता-पिता या बच्चों को सब कुछ समझ में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है अभिभावक सब परेशानियों को समझ रहे है। जान रहे है मगर आकर्षण इतना जबरदस्त है कि सुनामी की लहरों की तरह भयंकर ऊँचाईयों में उठ कर घर की सुख शान्ति मन का चैन सब निगल ही लेती है सब कुछ दाँव पर लगा है नित नई घटनायें नयी सूचनायें तरह-तरह के दिल दहला देने वाली वारदातें घट रही है जब तक एक से निपटने का उपाय कोई सोचता हे कोई दूसरी नई विधि खोज ली जाती हैं बस अभी के लिए इतना ही।
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