मन का ठहराव
धीरे-धीरे शाम घिर आई है। मच्छरों की भनभनाहट से बचने के लिये छः बजते-बजते सभी दरवाजे खिड़कियाँ बन्द कर देती हूँ। सोनू और मोनू अभी तक खेल कर वापस नहीं लौटे है जैसे-जैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है मेरे मन की घबराहट भी बढ़ रही है। आजकल दोनों ही लड़के अनकहे हो गये है। कुछ भी कहो सुनते ही नहीं। जिद क्रोध और विद्रोह जैसे नाक पर रखा है। कमरे की बत्ती जलाकर मै बेचैनी से उनका इन्तजार कर रही हूँ किसी काम में मन भी तो नहीं लग रहा हैं रह-रह कर पिछली बाते मेरे दिमाग में घूम रही है
रवि के आफिस से लौटने के पहले से ही मै झुझलाई बैठी रहती। बीमार बच्चे की रें रें, सोनू मोनू का स्कूल में अच्छा न करना, बिजली, पानी की झंझट अलग। सबका मुझे एक ही समाधान दिखाई पड़ता। रवि पर सारा दोष मढ़ कर चीख चिल्ला कर अपन गुस्सा मै उतार देती और सोचती मैने अपना कत्र्तव्य निभा दिया। टी0 वी0 पर महिला स्वतंत्रता के चर्चे, स्त्रियों के अधिकार माँगों के लिये लड़ना और अपने को पति से तुलना कर कम समझना ही मेरा काम था। रवि दिन भर आफिस में खटते हैं तो मैं कौन सी मखमल की सेज पर पड़ी रहती हूँ । एक पाँव पर खड़ी होकर घर संभालती हूँ । रवि का क्या जरा सी तबियत ढीली हुई तो दो दिन की छुट्टी लेकर बैठ जाते है और चाय, काफी, सूप की हुकुमबाजी अलग। सारा घर उठा कर अपनी तीमारदारी में लगा लेते और मैं-- कहीं नौकरी की होती तो अपना कैरियर होता कुछ पैसे मेरे अपने नाम के होते और मेरा भी वही रोब होता जो रवि का। थोड़ा ढ़ाढ़स तो रहता। बच्चे केवल मेरे ही तो नहीं। रवि की भी तो उनके प्रति जिम्मेदारी है। और रवि के साथ जो पल स्वर्ग के समान मधुर और सुखदायी लगने चाहिए थे वे लड़कट कर मुँह फुलाकर बीत जाते मै क्या चाहती थी समझ ही न पाती। रवि को एक आदर्श पिता की तरह होना चाहिए। उसका घर में दबदबा होना चाहिए पिता का रोल सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसी बहस में एक दूसरे से असन्तुष्अ कितने वर्ष खिसकते चले गये बच्चे कब बचपन से किशोरावस्था में जा पहुंचे पता ही न चला। आपस की तू तू मैं मैं की बहस में यह सुध ही न रही कि अपने दायित्वों की पूरी तरह न निभा सकने के कारण कब बच्चों के अनुशासन की डोर ढ़ीली पड़ गई। बच्चे घर को छोड़ कर बाहर दोस्त रेडियों, चैक चैराहे पर खड़े आवारगी में मस्त रहने लगे। और रवि ने भी रोज-रोज की झिक-झिक से परेशान होकर बाहर की पोस्टिंग लेती मुझे तो समझा दिया कि ‘‘यहाँ पर बच्चों के पढ़ने की अच्छी सुविधा है कैरियर का सवाल है एक ही जगह रहना ठीक होगा कोई असुविधा नहीं होगी।’’ राजी! समय बीतते क्या देर लगती है?
रवि ने तो एक सुन् दर सुविधा पूर्ण घर बनवा कर मेरे लिये जीते जी एक कब्र बनवा दी, हाँ मुझे तब वह अपनी कब्र ही लगा था। रवि कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे बाहर की चवेजपदह जो थी। कुछ उड़े उड़े से, बहके-बहके से खूब खुश। घर में गाय का खूँटा एक जगह बाँध दिया और उसकी रस्सी के आस-पास तक ही बच्चों का दायरा कैरियर की सीढियाँ चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गये रवि काम-- काम-- काम-- उत्तदायित्व --और बड़े उत्तरदायित्व घर पत्नी, बच्चे कब सब नगण्य हो उठे। महीने दो महीने पर घर आने का सिलसिला जीवन का अंग बन गया। मैं रवि से दूर बहुत दूर होती चली गई। उनका घर आना मुझे मेहमान के घर आने सा लगता अपनापन था भी कहाँ जो था वह भी मै अपनी ही तरह से जीवन जीने लगी अपना पन खत्म हो चला। मै अपने अहं में डूबी क्रोध बराबरी के हिस्का हिस्की में रवि के प्यार, उनके धैर्य, तथा कसक को तब समझ ही न पायी पाँच वर्ष का लम्बा अन्तराल ----- कैसे दिन बीतते चले गये। अब मेरी आँखे खुली विचारों में एक नया मोढ़ आया जीवन में जोर की ठोकर सोनू, मोनू का अजीब-सा व्यवहार खोये-खोये से रहना, अपने को बहुत असुरक्षित सा महसूस करना उनके मित्रो का परिवेश कालेज की गतिविधियाँ उन सब ने मुझे बाह्य कर दिया अपने बीते हुये उन पलों को फिर से बहुत करीब से देखने के लिये। हाँ रवि बहुत हिम्मत कर तुम्हे पत्र लिख रही हूँ । मुझे समझने की कोशिश करना
रवि मेरे,
ऐसा लगता जब तुम यहाँ थे तुम्हारी एक-एक अव्यक्त उपस्थिति हमेशा व्याप्त रहती थी भले ही तुम बच्चों के साथ पढ़ाने के लिये न बैठते, पहाड़े न रटवाते, साइन्स और गणित के प्रॉब्लम सोल्ब न करते मगर तुम्हारे घर सोनू मोनू के रहने मात्र से एक अनुशासन का भाव, प्रभाव रहता। उन्हें लगता कि शाम को पापा आने वाले है। उन्हें उदण्डता अच्छी न लगेगी। भले ही तुमने उन्हे कभी डाँटा न हो फटकारा न हो लेकिन आदर मिश्रित भय रहता था उनकी आँखों में तुम्हारे लिये। जिसे मैं अब तुम्हारे बाहर जाने के बाद महसूस करती हूँ जब तक तुम यहाँ थे मैने कभी नहीं समझा
अब कब सुबह होती है कैसे दिन बीतता है कुछ पता ही नहीं चलता। तुम्हारे घर पर न रहने से लगता है कोई काम ही नहीं है न खाना बनाने की रूचि न घर को सजाने सवारने का उत्साह न स्वयं ही सजे धजे रहने की ललक। सब कुछ अचानक मर सा गया है बाहरी दुनियाँ, आस-पास किसी का कुछ अता पता नहीं कहाँ आओ कहाँ जाओं जैसे जीवन ही ठहर गया हो ऐसा लगता हे मेरे मन का आत्मविश्वास ही खत्म हो गया है। शायद मेरे मन के दीपक की बाती तुम ही थे मेरे सूरज तुम्ही थे जिसकी रोशनी पाकर मै चमकती चन्दा की तरह। चाँद भी शायद नहीं जानता कि सूरज की रोशनी पाकर ही वह शान्त स्निग्ध मधुर चाँदनी बिखेरता है मैं समझ ही न पाई कि आज के युग में समानता का दरजा पाकर भी आर्थि रूप् से स्वतन्त्र हो कर भी सुखसुविधाओ से घिर कर शायद भी स्त्री के मन का कोई कोना खाली ही रह जाता है जीवन साथी के बिना अकेला हो जाता है। शायद मैं बहक रही थी। अब मै समझ गई हूँ दोनों का सहयोग ही घर को चला सकता है तलाश रहती है घर के अन्दर का दायरा मेरा अपना है अनुशासन प्यार सहयोग ये गुण घर में माँ से परिवार को मिलते है और साहस, आत्मविश्वास संयम सहनशक्ति अनेक विषम परिस्थितियों में रह सकने की कठोर क्षमता बच्चा अपने पिता से सीखता है पिता का रहना मात्र ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठ परिश्रम जीवन के आदर्श कही न कही बच्चों के कोमल मन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है।
नौकरी करने की ललक घर को बन्धन मानकर बाहर सुख संतोष ढ़ूढ़ने की व्याकुलता मानकर अर्थहीन सा लगता है पढ़ लिख कर नौकरी करना ही जीवन का उद्देश्य नही, विचारों का उन्नयन और आवश्यकता पड़ने पर सहारा बन सकना’’ तुम्हारे ये विचार विल्कुल ठीक थे। मन का ठहराव, धैर्य जीवन के कुछ निश्चित आदर्श बहुत जरूरी है। तुम लौट आओ रवि, मैं पल-पल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
तुम्हारी
रेनू
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