Sunday, December 29, 2013

SABBD AUR USKA PRABHAV


                                                        शब्द और उसका प्रभाव
‘‘शब्द एक शक्ति हैं’’। हाँ सामान्य नही- इसे दैवीशक्ति कहा जा सकता है। ये ‘‘शब्द’’ मनुष्य के विचारों के कम्पन से जाग्रत होते है, और विचार सम्बन्धित होते है चेतना या आत्मा से’’।
मनुष्य जो कुछ भी बोलता है उसका प्रभाव कितना गहरा और सजीव होगा यह निर्भर करता है कि मन के कितनी गहरी सच्चाई से वह कहा गया है। अधिकवाचालता, बिना सोचे समझे कुछ भी कह देना, शब्दों की महत्ता को कम कर देता है शब्दों का बोलना यदि ‘‘आत्मिक शक्ति’’ से पूर्ण न हो, तो व्यर्थ और प्रभावहीन है। इसलिए कबीरदास के सहज अनुभूत विचारों को इस दोहे में देखा जा सकता है।
         ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय
         औरन को शीतल करें, आपँहु शीतल होय।।
यही नही, वाणी शब्दों का प्रस्तुतीकरण अगर कहीं आपके बिगड़े काम को अनायास ही बना सकता है तो कभी बने हुये काम को पूरा होते-होते भी बिगाड़ सकता है। खूब सोच समझ कर हृदय रूपी तराजू पर तौल कर ही शब्दों को मुख से बाहर निकालना चाहिए। इस ‘‘राम बाण औषधि’’ और समस्याओं का समाधान करने वाले के रूप में ‘‘शब्द’’ को देखा जा सकता है। कहा भी गया है-
         वाणी एक अमोल है, जो कोई बोले जानि,
         हिये तराजू तौल कर, तब मुख बाहर आनि।।
इसके लिये धैर्य, सावधान और सचेत रहने की जरूरत होती है। प्रायः लोग अपनी धुन में, अहंकार में, जो मन मेें आया बोल देते है, कह जाते हैं। यह नहीं समझ पाते कि इसका क्या प्रभाव सुनने वाले पर पड़ेगा। जीभ तो कुछ सोच समझ नहीं सकती, वह तो सिर्फ बोलना जानती है सोचने का काम तो दिमाग, बुद्धि करती है। जीभ तो कुछ भी उल्टा बोली, उन शब्दों के प्रभाव से उस व्यक्ति को अपमानित होना पड़ता है सिर पर जूते पड़ते है। इसलिए कहा गया है
          जिह्वा ऐसी बाबरी, कह गई सरग-पताल
          आप तो कह भीतर भई, जूती खात कपाल।।
ये तो है सामाजिक व्यवहार और प्रभाव शब्दों का सही उच्चारण, विश्वास, सिन्सीयेरिटी, कविक्शन और इन्टयूशन, से भी कहे गये शब्दों का कम्पन या तीव्रता बमों की तरह विपल्वकारी होता है जो जब फेका जाता है तो बड़ी से बड़ी चट्टानों को भी चूर-चूर कर देता है  विनाशकारी होता है।
      ईश्वर ने हमको इच्छाशक्ति, और विश्वास दिया है एकाग्रता दी है, सामान्य ज्ञान, सूझ-बूझ दी है। हमे इन शक्तियों का प्रयोग शब्द बोलते समय करना चाहिए।
    सद्भावना, प्यार, साकारात्मकता, और दृढ़ता के साथ जब हम किसी शब्द को बोलते है तो वही मन की योग्यता को प्राप्त कर लेता है। एक बिन्दू या शब्द या वर्ण में समाहित शक्ति विस्फोट के समान प्रभावशाली बन जाती है। इस प्रकार सकारात्मक व नकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत शब्द का प्रभाव सृष्टि (या रचना) और नाश दोनों के लिये हो सकता है।



PATHAKON SE


अपने पाठकों से-
                                                                      मन की बात
     वर्षों से छात्र-छात्राओं के बीच पठन-पाठन से जुड़े रहने के कारण कहानियों, कविताओं, शिक्षण सम्बन्धी समसयाओं तथा उनके व्यवहारिक सुझाव देने में, पढ़ने लिखने में बच्चों और अभिभावकों की आने वाली कठिनाइयों के सरल समाधान देकर उन्हें आगें बढ़ा सकने में सहायता की रूचि ही मेरे लेखन की प्रेरणा रही है।
      बाल आवस्था से संवेदनशील किशोर और किशोर से कर्मठ युवा में विकासित होते बच्चे ने विशेष रूप से प्रभावित किया है। उन्हें बहुत करीब से देखने का मुझे मौका मिला है। मैं स्वयं को उनसे जुड़ा महसूस करती हूँ और उनके बारे में सोचना तथा लिखना मुझे अच्छा लगता है।
      दौड़ती भागती दुनियाँ, एकल होते परिवार हैरान परेशान माता-पिता, गिरते नैतिक मूल्यों, पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण एक ऐसी ‘‘अपसंस्कृति’’ को जन्म दे रहा है जहाँ नई पीढ़ी हतप्रभ है ओर पुरानी दुखी और बेबस (शौक्ड)। क्या करे कैसे सन्तुलन करे जब अपने सिद्धांतों विचारों का व्यवहारिक फल (पक्ष) कार्य रूप में उभर कर सामने आता है तो नई पीढ़ी के 20-25 वर्षों का अन्तराल निकल जाता है और लगता है अरे यह क्या? ऐसा हो जायेगा यह तो कभी सोचा ही न था’’। परिवार की परिभाषा बदल रही है, सोच और दिशा बदल रही है। हर बच्चा, बड़ा, बूढ़ा जवान नितांत अकेला है कन्फ्यूज्ड है मन ही मन डरा हुआ है। समय भाग रहा है, मुठ्ठी के रेत की तरह फिसलती जा हरी है खुशियाँ। यही सब बेचैन कर देती है मुझे और आप ही उठ जाती है कलम। मेरी रचनाओं के विषय अलग-अलग है- परिवार मनोविज्ञान, शिक्षा, बच्चे किशोर बूढ़े रिटायर्ड, पति-पत्नि माता-पिता सभी के पक्षों को छुआ है मैने। हर की सोच और आवश्यताये बदलती रहती है। हर स्तर की हल्की-फुल्की रचनायें।
      भाषा के सम्बन्ध में कही सरल और कही साहित्यक मेरे विदेश में रहने वाले बच्चों के लिये हिन्दी के प्रति रूचि जगाना भी मेरा उद्देश्य है। कुछ अंग्रेजी के प्रचलित रोज दिन के जीवन में प्रयोग आने वाले शब्द भी है तो कही पर अच्छी साहित्यक शुद्ध शब्दों का जो हिन्दी भाषा को अच्छी तरह जानते समझते है और आनन्द ले सकते है।
     हाँ इतना जरूर कहुँगी अगर कभी थोड़ा सा भी समय हो, पाँच मिनट ही सही। कुछ पढ़े जरूर। कोई जरूरी नही कि यही साइट हो।
    और अपने बारे में मै स्वयं लिखूँ? यह उचित नहीं। वह तो लिखेगे आप मेरे पाठक, मेरे बन्धु मेरे अपने। एक बात मै जरूर कहना चाहुगी कि जो मुझसे मिलता है मेरे सम्पर्क में आता है कहीं न कही मैं उसके मन मस्तिष्क को छू जरूर लेती हूँ। विचारों के शान्त झील में एक छोटे से कंकड़ की तरह गिर कर हलचल मचा देती हूँ थोड़ी देर के लिए ही सही। भावों के समुद्र में देश काल से परे सार्वभौमिक सत्य से जुड़कर उसे अपना बहुत आत्मीय बन्धु बना लेने की सामथ्र्य शायद मेरे व्यक्त्वि की पहचान है। बस यही है मेरे बारे मे मैं सबकी और आप सब मेरे है।
     पढि़ये और लिखिये जरूर, निसंकोच इंगलिश या हिन्दी जिसमें स्वयं को सहज महसूस करें भावों और विचारों की अभिव्यक्ति हो हम सब को जोड़ती है।
     समय-समय पर जब भी मेरी नई रचना पढे़ अपने विचार अवश्य दें। आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे विशेष रूप से इन्तजार रहेगा।
     
                               








Sunday, December 15, 2013

SWEEKAR



                        




                                                                        स्वीकार

                         नदी का उफान ही था
                         झंझा भरा तूफान ही था
                         रूकने लगा थमने लगा
                          अब सहज स्वीकार्य है
                                                                              प्रकृति का या दैव का
                                                                              यह रूप शिरोधार है
                                                                              सब सहज स्वीकार है
                                                                             

                           समय से बढ़ कर नही कुछ
                           तीव्र कितनी वेदना हो
                            घाव भरने में नही कुछ
                            गहन जितनी साधना हो 
                 
                                                                             संघर्ष देेता गति समय को
                                                                             तोड़ कर हर विघ्र बाधा
                                                                             जोश भरता जीतने का
                                                                            सब सहज स्वीकार है।
                  

VIWASHTA


                                                                      विवशता
       क्या करूँ रानी! सिनेमा की रील की तरह बचपन से अब तक की यादें मुझसे लिपट-लिपट कर मुझे मरने नही देती। बीच-बीच में आप लोगों का समय निकाल कर आजाना, मिलना मेरी उम्र को और भी बढ़ा जाता है। शुभकामनाये तो हरदम आपके साथ है 90 की उम्र। हाथ-पैर चलता रहें किसी के अधीन होकर निर्भर न होना पड़े रानी। बस कब जाना होगा यही सोच-सोच कर हैरान हूँ। कितनी लम्बी उमर लेकर आई हूँ। कौन-सा बड़ा काम बचा है? जिसके लिये भगवान ने रोक रखा है। यही सोचती हूँ। सफेद सन् जैसा कोमल चमकीले बाल अस्त-व्यस्त, इधर-उधर झूलते फैले रहते इसीलिये अबकी बार बहू और बेटियों ने मिलकर, समझा कर बाल कटवा दिये। इन्दिरा गाँधी नहीं-नही शीला दीक्षित मुख्यमंत्री दिल्ली की तरह। इस उम्र में भी भारत की राजधानी दिल्ली की मुख्यमंत्री की तरह कार्य कुशल, संवेदनशील, भव्य साफ-सुथरा चेहरा अनुभवों से दमकता। झुर्रियाँ तो चेहरे पर नही है मगर कमर कमान की तरह झुक गई है सोच और उमंग में वही नयापन। हर पल, समय के साथ बदलने की चाह। किसी भी भाव घटना की तह तक जाकर तर्क- वितर्क समझाने में निपुणता अभी भी वही पुरानी है शरीर थक चला है मगर कल्पनाओं के पंखों के सहारे कहाँ- कहाँ तक घूम आता है मन।
      मैने और मेरी बड़ी बहन जो कलकत्ता से आई है बिना किसी पूर्व सूचना ज्ञानपुर में रहने वाली नानी माँ को आश्चर्य चकित कर देने की इच्छा से अचानक पहुँच कर उन्हे अचम्भित कर देने की ठानी। बचपन का वह नटखटपन मानो हम दोनों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। बड़ा मजा आयेगा। नानी माँ अचानक ही अपने सामने पाकर कया रिएक्ट करेंगी देखने के लिये मन मचल उठा था। हम फिर से बच्चे बन गये थे। बस की दो घण्टे की यात्रा बचपन की बातो, घटनाओं को याद करते दोहराते बतियाते कितनी जल्दी बीत गई कुछ पता ही नही चला।
      कन्डक्टर ने चिल्लाकर याद दिलाया ज्ञानपुर-- ज्ञानपुर--3 कौन उतरने वाले है जल्दी करें। हड़बड़ा कर ड्राइवर, और दूसरे यात्रीगण पीछे मुड़ कर देखने लगें। घबड़ा कर अपने-अपने झोले पकड़े हम एकदूसरे का हाथ पकड़े उतर पड़े। शाम को तो वापस लौटना ही है इसलिये छोटे-छोटे झोले ही काफी थे। 75 वर्ष की बड़ी बहन और अड़सठ वर्षीय मैं एक दूसरे का हाथ इस तरह कस कर पकड़े थे कि कहीं बिछड़ न जायें बस से उतर कर। उम्र का भारीपन असुरझा की भावना को किस कदर बढ़ा देता है यह उसी पल महसूस हुआ।
  घर तक पैदल ही चलना था। मेन रोड से दो फर्लांग। ओह! पाँच वर्षों के बाद आ रहे है नानी घर। कुछ भी तो नहीं बदला। सब कुछ वैसा ही बातो का जो दौर चला तो नानी माँ की आँखों में चमक आ गई। हँसते-गुनगुनाते कभी चुपचाप सोचने से लगती, कभी आँखें नम हो जाती कभी प्यार से सराबोर, कभी उदास कभी खुश कभी खिलखिला पड़ती। 32 वर्ष की आयु से ही वैधव्य की मार झेलती अपनी माँकीसीखों को याद कर, उनका पालन करते हुये जीवन के इस मोड़ पर आ पहुँची थी नानी माँ।
     जानती है रानी! जिस साल आपका जन्म हुआ उसी साल व्याह कर आई थी इस घर में। बहू का आगमन, स्वगत सब लोग हँसते गाते ढ़ोलकक बजाते-नाचते है मगर जब मैं अपने पति को दरवाजे पर उतरी तो हर आँखें रो रही थी। आँखे पोछते सिसकते जेठानी, सास, ददिया सास ने  परछन किया। मैं दूसरी पत्नी थी पहली जनी को मरे बस सिर्फ छः महीने ही हुये थे। बच्चे को जन्म देते समय मर गई थी बेचारी दस साल तक रहा था वैवाहिक जीवन। उन्ही का सिन्धौरा मिला था मुझे। सौत थी मै उनकी। क्या करती। माँने समझाया था- बेटी बिना बाप की हो तुम्हारे ताया शादी कर रहे है। अब यही समझना- वही तुम्हारा घर है। हर तरह से प्यार ही तुम्हे पाना है। ससुराल से झगड़ा कर कभी न आना तुम खुश रखोगी सब तुम्हे अपना लेगें। मै दीन-हीन विधवा तुम्हारी माँ कोई भी सहायता न कर पाऊँगी’’। माँ परिवार की विवशता और किसी अनजाने के हाथों में सौंपते माँकी वे आँखें मुझे आजभी याद है। बहते आँसुओं की धारा मेरे विवाह के अरमान सब बह गये। पति के पहली रात को कहें गये वचन आज तक मेरी कानों में गूँजते रहतें है’’ मैं तो वैरागी हो गया हूँ राधा पहली को कभी न भुला पाऊँगा। बस परिवार के लिये ही शादी की है घर के लोगों को खुश रखना खाना कपड़ा लत्ता किसी प्रकार की कमी न होगी। राधा। बस मेरी प्यार की आशा न करना मैं विंदास परिवार बच्चों के बन्धन में नहीं बधना चाहता। और फिर बस एक ही लक्ष्य पति का प्यार पाना और परिवार को खुश रखना बन गया मेरा लक्ष्य। माँ का चिरौरी करता चेहरा और विवशता बार-बार किसी भी प्रकार के अत्याचार का विरोध करने से रोकता। अपने प्रिय उपन्यासकार शरतचन्द की उपन्यासों की नायिका की तरह मैं भी बन जाऊँगी ऐसा तो कभी सोचा ही न था तुम्हारी नानी ने।
     मगर रानी! भाग्य का लिखा न तो कोई मिटा सकता है और ना ही अपने आँचल से ज्यादा कोई पा सकता है। उत्तरदायित्वों से अनजान, निरीह और भावुक व्यक्ति के अपरिपक्व निर्णयों का खामियाजा भुगतते कितने वर्ष बीत गयें। बेटा सन्तोष और बेटी आये थे परिवार बढ़ा लेकिन असफलताओं का सेहरा मुझे ही बाँधा गया। दुख के थपेड़े सहते आँखों के आँसू सूख गये।
     अपनी जिद क्रोध और असहयोग को हथियार बना कर बेटा तड़पता इस दुनियाँ से चला गया और अपरिपक्व, मस्तिष्क से कमजोर बेटी आज भी जीने को अभिशप्त है। कौन देखोगा उसे। सम्भालेगा उसे अपने आँखों के सामने ही उसे भी विदा करदूँ तो मानो सब उत्तरदायित्व पूरे कर लिये। इस जनम में तो मैने कुछ बुरा नहीं किया ये जरूर पिछले जन्म का ही कुछ लेन-देन है जिसे मैं चुका रही हूँ रानी! बस शायद यही काम छूट रहा है इसी में जान अटकी है बाकी सब हरि की इच्छा!
       क्या खायेगी रानी? मायके आई है दालभरी पराठा और खीर। बहुत पसन्द है न आपको। सब कुछ सहज सामान्य कोई इन्सान ऐसा होता है? नहीं ये तो भगवान का ही कोई निराला रूप है? या स्वयं भगवान?

Sunday, December 8, 2013

MAIM JI


                                                                 मैम जी
      कक्षा अष्टम वर्ग के साठ बच्चो में से एक छात्र ने न जाने क्यों कब और कैसे अपने ओर मेरा ध्यान आकृष्ट कर लिया था बहुत सोचने पर भी मुझे कोई कारण समझ में न आता। सामान्य कद का गोरा रंग न मोटा न लतला परन्तु शैतानी से चमकती मटकती आँखें और होठों पर मन्द मोहक सी मुस्कारन कक्षा में प्रवेश करते ही मैम जी, मैम जी आज आपने जो निबन्ध लिखवाने को कहा था मैने लिखा है देखिये ना मैम जी। टेबल पर मेरे पहँचने से पहले ही वह वहाँ खड़ा रहता। हर वाक्य के आगे मैम जी, पीछे मैम जी। बड़ा अजीब सा अनोखा व्यवहार लगता मुझे मगर फिर मन को कही अच्छा जरूर लगता। हर समय सहायता को तत्पर। मेरे लिये सबसे लड़ने को तैयार। काम में चुस्त-दुरूस्त। कुल मिला कर मनमोहक व्यक्तित्व। प्रतिदिन कक्षा मुझे उसके उपस्थिति की आदत सी पड़ गयी थी। अनुशासन के लिये सबको समझाता और हर एक की छुपी-छुपी शैतानियों व हरकतों से मुझे अवगत कराता।
     मैम जी! अजय हिन्दी की कापी डेस्क पर रख कर नीचे गोद में केमिस्ट्री की किताब मैम जी देखिये-देखिये और मैं जोर से पुकार उठती अजय! और वह सकपका कर खड़ा हो जाता क्या कर रहे हों? नो नो मैम कुछ नही हिन्दी मुहावरे याद कर रहा हूँ । केमिस्ट्री कौन पढ़ रहा है? किताब लेकर आओ। और मैम जी को रिपार्ट करने वाला लड़का गंभीर मुद्रा में अपनी किताब में आँखे गड़ाये-------कोई पकड़ ही नही सकता कि यही है वह मैम जी कहने वाला --
      इधर हफ्ता दस दिन से वह क्यों नहीं आ रहा था? बार-बार उसकी छवि आँखों के सामने घूम जाती। बहुत दिनों के बाद पता चला वह मेधावी छात्र ‘राधव’ इलाहाबाद के अनाथाश्रम स्वराज भवन से आता था। अनाथ बच्चा! पढ़ने में अच्छा। किसी ने अडाप्ट कर लिया था। इतना बड़ा। उड़ती खबर मिली थी शहर के नामी वकील का दत्तक पुत्र पागल, भोला, अल्हड़ ‘राघव’ दो साल बाद इसी स्कूल के छात्रावास में नये रूप रंग में राघव को देख कर मैं आश्चर्य चकित रह गई।
      भोलेपन की जगह लेती थी परिपक्वता ने, सरलता बदल चुकी थी गम्भीरता में, चुलबुलापन परिपक्वता में। हल्की हल्की मूँछे, सुडौल होती आकृति गाल भर आये थे। पुष्ट और मांसलता की ओर बढ़ता शरीर, रंग और निखार आया था आत्मविश्वासी, आँखो डाल कर निर्भीक बाते करने का लहजा उसे कुछ विशिष्ट बना रहा था।
        दो साल के अन्तराल के बाद विद्यालय के छात्रावास में उसका आगमन। चर्चा का विषय बना ‘राधव’ कक्षा-10 के फाइनल इयर में अडमिशन लिया था उसने। कहाँ रहा इतने दिन।
         स्टाफ रूम के बाहर खड़ा मेरे बाहर आने का इन्तजार करता हुआ। अरे राधव? कहाँ रहे इतने दिन। कितना बदल गये हो? एक साथ ही इतने सारे मेरे सवालो से घिर कर वह चुपचाप मुझे देखता रहा बोला कुछ भी नहीं। चुप बस चुप। अरे कुछ तो बोलो? क्या बोलू? एक संक्षिप्त सा उत्तर! और झुक कर पैर छू लिये उसनेे।
      ऊपर उठाते हुये उसे हृदय से लगा लिया मैने। उसकी आँखों से आँसू गिर रहे थे फिर।जो वाणी न कह सकी  वह आसुओं ने कह दिया। सुख के या दुख के। सुख के ही होंगे शायद। निशब्द सिर झुकाये आँसू गिरते रहे और फिर अचानक ही घूम कर सीढि़यों की ओर मुड़ गया वह 
        अनमने मन से मै लौट आई स्टाफ रूम में। कौन सी घटनाये, स्मृतियाँ और
परिस्थितियाँ किसको कहाँ किस प्रकार ला पटकती है इसे न आज तक कोई जान पाया है और ना ही जान सकेगा। मैं व्यस्त हो गई अपने रोज की दिनचर्या में। अब मेरा कोई भी पीरियड राघव के क्लास में नहीं होता, ना ही मुलाकात होती न ही उसके विषय में कुछ खास पता चलता।
       कब दिन बीत, महीने बीते और फाइनल एग्जाम बोर्ड के आ गये। एक पत्र मेरे टेबल पर पड़ा था?
प्रिय मैम,        
                  आपने कहा था न मै कुछ कहूँ, बोलू, आज मेरे एग्जाम का आखिरी दिन।
मै रिलैक्स्ड महसूस कर रहा हूँ मुझे नया घर, मेरे पापा मेरी मम्मी, मुझे मिली। अनाथाश्रम की अधेरी गन्दी बदबूदार कोठरी से निकाल कर मैं आ गया श्री अरविन्द कुमार एडवोकेट के विशाल कोठीनुमा बंगले   में सब कुछ सपने सा लग रहा था। क्या ईश्वर मुझपर इतना मेहरबान होगा क्या मेरे जीवन में भी खुशियाँ आयेगी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। दो साल लग गये समझने और संभलने में। बड़े अच्छे लोग हैं एक बहन और एक भाई। माँ और पापा जिन्हें मैं अंकल और आन्टी कहता हूँ कुछ समय तो लगेगा न मैम जी। मै चाहता हूँ उन्होंने जो उपकार मुझ पर किया है मैं एक अच्छा आज्ञाकारी, और अच्छे नम्बर से पास होकर उनके प्रति अपने आभार को प्रकट करते हुये मम्मी पापा कहूँ। तो ज्यादा अच्छा नहीं रहेगा? मैम जी
मै क्यों आपके करीब अपने आप को महसूस करता हूँ। मेरे लिये प्रार्थना कीजिए, दुआ माँगिये। मैं अपने नये मम्मी पापा के लिये उनके आशा के अनुरूप बन सकूँ वे बहुत अच्छे है मेरे लिये क्या कुछ नहीं किया है? मेरा रोम-रोम ऋणी है मैम जी! मुझे आशीर्वाद दीजिए।
      मेरा मन भर आया। मेरे बच्चे! ईश्वर तुम्हारी सहायता करें। मन ही मन कह कर मै काॅपी करेेक्शन में लग गई।
   
  


MERE CHAMAN, MERE SUMAN



                    मेरे चमन, मेरे सुमन
अलविदा! मेरे चमन, मेरे चमन,
अलविदा! हे बन्धु मेरे, प्रिय स्वजन।
खुश रहें हँसते रहें सब मित्र मेरे
अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन
               यहीं तक था सफर मेरा
               साथ मेरा स्नेह औ सहयोग मेरा
               आप सब फूले फले आगे बढ़े
               अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन।
सुबह होगी, शाम होगी
पूर्ववत सब कुछ रहेगा
बस, मगर इक हम न होंगे
अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन
               मधुर यादों के सहारे ही
               ये दिन बीता करेंगे
               अब न जाने कब मिलेंगे?
               अलविदा! मेरे चमन, मेरे सुमन।
                                                स्नेह चन्द्रा