Wednesday, July 1, 2009

हरियाली के संग जीवन के रंग

घर में पौधे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ के लिए उपयोगी हैं । पेड़ पौधे हमें खुश रखते हैं । और उनकी कोमलता , तथा हरापन हमारे जीवन को सुन्दरता से भर देता है। कुछ सुगंध फैलाने वाले पौधे और उनकी हरियाली हमारे तन मन को विभोर कर देती है । तो कुछ पौधे हमें दिन प्रतिदिन की कठोरता और संघर्ष से भी परिचित करते हैं।

अनुसंधान बताते हैं , की पौधों के बीच रहने और उनमें काम करने से ब्लड प्रेशर कम होता है॥ तनाव घटता है , और आदमी सामान्यत : अच्छा अनुभव करता है । पेड़ पौधे उगाना , चाहे वह सब्जियों के हों या फूलों के, क्रोत्न हो या फर्न , अपनी विशेषताओं और सुन्दरता से लगभग सब लोगों का मन मोह लेते हैं । और एक पल के लिए ही सही खुशी से मुस्कान चेहरे पर आ जाती है।

घर के अंदर रहने वाके पौधे हमें प्रकृति के साथ रहने का अवसर प्रदान करते हैं। जब हम प्यार से उनकी देख भाल करते हैं तो वे बदले में हमें आनंद देते हैं । देख भाल करना , प्यार करना , मनुष्य की स्वाभाविक और सहज भावात्मक आव्यशकता होती है।

कहीं कहीं पर आजकल पौधों को रूगों के उपचार में सहायक मान कर कई वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे हैं । जैसे " अमेरिकन होर्टीकल्चर थेरापी असोशिएशन " । इनके होर्टीकल्चर की योजनाओं में औषधि के छेत्र में वृद्धों , विकलांग , रोगियों की देख भाल , अस्पताल , नर्सिंग होम , में कैंसर के रोगियों की कैमियो थैरेपी के स्वास्थ्य लाभ में सहायता मिल सकती है। अगर व्यक्ति थोडा सा मानसिक सुकून हरियाली और पेड़ पौधों के बीच महसूस करता है तो शीघ्र ही स्वस्थ हो सकता है।

इस विचारधारा को मानने वालों का कहना है की ये पेड़ पौधे किसी न किसी रूप में , प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन इन्द्रियों को स्पर्श करते हैं जो थोड़े क्षतिग्रस्त या संवेदनहीन हो गयें हैं ।

चमक दार और चटकीले फूल या पौधे आंखों को शीतल या उत्तेजित करते हैं । मिट्टी की सोंधी गंध , नमी और हलकी महक हमें सुख शांती अनुभव कराती है। और अच्छी सुखद स्मृतियों को जगाती है ।

पेड़ पौधों को छूना , सहलाना , हमें शांत करता है । जब हम उसके साथ होते हैं पत्तों को पानी से धोतें हैं पदों को नहलाते हैं भिगाते हैं , या सूखे पत्तों को हटा कर उसे सुंदर बनाते हैं तो हमें भीतर से बहुत अच्छा महसूस होता है। कोमल, सौम्य और सुख देने वाला ।

जब कोई बीमार , अस्वस्थ व्यक्ति स्वस्थ होने की प्रक्रिया से गुज़र रहा होता है तब बगीचे में थोड़ी देर के लिए टहलना , थोड़ी देर हरियाली के बीच बैठना , और अपने लोगों के बीच रहना उन्हें जल्दी ठीक होने में सहायक होता है । उनकी निराशा , दुःख , पीडा थोड़ी कम होती है । सहन कर सकने की शक्ति बढ़ती है।

ये सब यदि देखा जाए तो पेड़ पौधों के साथ रहने के सकारात्मक प्रभाव हैं। अपने काम करने के स्थान पर भी हरे भरे पौधों को गमले में रखा जा सकता है । जो सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते है.वातावरण को आरामदेह , आकर्षक , और स्वस्थ बनाते हैं । कार्य क्षमता को और अधिक विकसित करतें हैं

Monday, June 29, 2009

आज की आजादी और टूटते परिवार

बदलते सामजिक और पारिवारिक मूल्यों में यह { वर्तमान} " संक्रमण काल " है जिसकी रूप रेखा अभी निश्चित रूप से मान्य नहीं हो पाई है । नैतिक नियम , परिवार में टोका टोकी , लड़के लड़कियों के समान अधिकार , कार्य , सोच , सबमें आमूल परिवर्तन देखा जा रहा है । परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किए गए व्यवहार या स्वतंत्र विचार को लोग आजादी में "खलल" , "हनन" या "बाधा " कहने लगे हैं । और "प्रेस्टीज इशू" बना लेते हैं । और वह मन मस्तिष्क पर इतना छा जाता है की कुछ स्त्रियाँ या पुरूष कोर्ट का दरवाजा तक खटखटाने पहुँच जाते हैं। आपस में मतभेद बढ़ते हैं । लोग अपने रिश्तों को तार - तार करते हैं । दुर्घटनाएं घटती हैं । परिवार बिखर जातें हैं । या दीवारें दरकतीं हैं । पति पत्नी से , माता ,पिता , बेटे बेटियों सेयहाँ तक की परिवार के अन्य रिश्तों में भी दरार - गाँठ पड़ती है। दूरियाँ बढ़ती हैं । " रिश्ते कानून से नहीं बनाए और जोड़े जाते हैं अपितु समझ बूझ , और कुछ बातों को नज़र अंदाज़ कर भी तकरार कम की जा सकती है । " कभी प्यार से समझा कर , और समझ कर कक दूसरे के हित का ध्यान रख कर भी अपनी आजादी बनाये रखी जा सकती है । और इन सबका मूळ आधार होता है "सहन शक्ति" , दोनों वर्गों की । लड़के लडकियां , बड़े बूढों , छोटों सब में ही "सहन शक्ति और " उदारता " की भावना घट रही है॥ और अंहकार बढ़ रहा है । स्वाभिमान और अंहकार में अंतर है यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए ।
अब मुख्य प्रश्न है की "आजादी क्या है" ? नई पीढी आजादी से क्या समझती है ? उस दिन टीवी के एक चैनल पर सभी बड़े बूढे , किशोर, युवक युवतियां , आजादी पर अपने अपने विचार प्रकट कर रहे थे बड़े उत्साह के साथ -- आजादी --- मैं जो चाहे कर सकता हूँ , पढ़ना , लिखना , खेलना कूदना , जो मेरे मन में आए बिना रोक टोक के । ---"
आजादी - -अब मैं पंछी की तरह आजाद हूँ । कोई बंधन नहीं , अपनी तरह से रहना मेरी मर्जी "----
हर व्यक्ति अपनी अपनी तरह से "आजादी" को परिभाषित कर रहा था । सब में जो सामान्य बात थी वह थी " कोई रोक टोक नहीं " ..बंधन नहीं , अपनी मर्जी का मालिक , केवल मैं ,मेरा मन , मेरी इच्छा । शायद आज इसी को लोग "आजादी " समझने लगे हैं .परन्तु नहीं - - सुखी जीवन का रहस्य यह है -----
अपने साथ साथ , सबके साथ मिल कर स्वयम आगे बढ़ना और दूसरों को भी आगे बढ़ने के लिए वातावरण , जगह [स्पेस] देना । एक दूसरे की सामान्य जरूरतों को समझते हुए मान सम्मान देते हुए मिल जुल कर रहने की इच्छा के साथ काम करना और रहना । ना की अपनी मनमानी करना और रहना .जो दूसरों के लिए अपमानजनक और हानिकारक हो सकता है , मर्यादा में रह कर अपनी इच्छाओं को फूलने फलने देना न की मर्यादाहीन स्वछन्द व्यवहार ।
कौन जाने , कब , कहाँ , कैसे और किसको कोई सद्विचार प्रभावित कर जाए और उसमें आमूल परिवर्तन कर दे ? इसलिए सद्विचारों के बीज तो बिखरने ही चाहिए । ये अपनी जड़ों से उपजे विचार , मान्यताएं हैं जो दूब की तरह गाँठ - गांठ से विकसित होतें हैं , फैलते हैं । जैसे दूब की घांस फ़ैल कर ज़मीन को और वातावरण को हरा भरा बना देती है उसी तरह मन की सही सोच और काम करने के लिए उठे हाथ एक दूसरे को प्रभावित कर सहयोग से सब को आशा पूर्ण और सहृदय बनाता है । आपसी संबंधों को सरल ,सहज , और सकारात्मक
बना सकता है ।
परिवारों में खाने , पीने , पहनने , ओढ़ने , आराम करने हसने बोलने की आजादी के साथ साथ सुख सुविधा पूर्ण जीवन बिताने का अधिकार भी आता है जिसके पूरा नं हो पाने के कारण परिवार टूट रहे हैं । ये तो मूळ भूत ज़रूरतें हैं । और कहा जा रहा है की महिलाओं को कानून का संरक्षण मिल जाने के कारण उनकी सहन शक्ति कम हो रही है .. शिक्षा , आर्थिक सशक्ति करण , सभी छेत्रों में समान अधिकार महिलाओं को असहनशील और जिद्दी ही नहीं अतार्किक भी बना रहा है यह कहना और सोचना भले ही ग़लत न हो किंतु दुर्भाग्य पूर्ण है..

Wednesday, June 24, 2009

भूरी बिल्ली

मई का महीना ,चिलचिलाती धूप ,गंगा दशहरा के अवसर पर सन्यासियों का एक जत्त्था चला जा रहा था हरिद्वार की परम पावनी गंगा की ओर ,.रस्ते में कुछ समय के विश्राम के लिए उचित स्थान खोजते हुए उन्हें दिखाई पडा एक सुंदर सा घर , उपवन से घिरा , साफ़ , सुथरा । गृहस्थ जीवन से संतुष्ट शायद किसी दंपत्ति का स्वर्ग । मुखिया सन्यासी ने दरवाजा खटखटाया , गृहस्वामिनी ने द्वार खोला तो पूछा ,"क्या कुछ समय के लिए हम विश्राम कर सकते हैं ? एक घंटे बाद हम चले जायेगें ।
" आइये बैठिये,,इस बरगद की छाया में बने चबूतरे पर आपके लिए व्यवस्था किए देतें हैं । " जक्पन की व्यवस्था बड़े ही आदर सत्कार से किया । संतुष्ट सन्यासी ने सारा घर द्वार , आँगन , बाडी घूम कर देखा। गृहस्वामिनी और परिवार के सहयोग से सब कुछ अति उत्तम था । उसी समय एक भूरी बिल्ली उधर से गुज़री ।
सन्यासी ने कहा "अहा, यह भूरी बिल्ली ,--इस घर में तो लक्ष्मी का वास है । नित नया विकास होगा । धन , संपत्ति बढ़ती रहेगी । ऐसा मैं देख पा रहाहूँ ईश्वर आपकी सब कामनाओं को पूरा करेगा " प्रसन्न दंपत्ति ने सर झुका कर चरण स्पर्ष किए और उनके आर्शीवाद को सर आंखों पर स्वीकार किया । "
परिवार जब भी मिल बैठता - भूरी बिल्ली की प्रशंशा करता । और उसे भाग्यशाली मानता , इस तरह दिन बीतते गए ।। कुछ वर्षों के अन्तराल में उस सुंदर उपवन ने जंगल का रूप धारण कर लिया । परिवार अपने नित प्रति के कर्मों और परिश्रम से विमुख होने लगा .जब " भाग्य में है तो मिलेगा ही " धीरे धीरे आलस्य और अकर्मण्यता अपने पैर पसारने लगी । आगे पीछे घर के पेड़ पौधे घंस फूस उग आई । आगे बेर के पेड़ , और पीछे रेड के वृक्ष सर उठा कर खडे हो गए। किसी ने ध्यान ही न दिया । रोगों ने अपने पैर जमा लिए । घर पर मानो नज़र ही लग गई हो ।
दंपत्ति उस सन्यासी के आने की आस लगाए राह देखते और कहते - भूरी बिल्ली तो हमारे घर में सुख संपत्ति का प्रतीक है । मगर ये क्या हो रहा है ? वे विस्मित थे ।
कुछ वर्षों के बाद व्ही सन्यासी मंडली उधर से गुज़र रही थी । सहसा , यंत्रवत सन्यासी के पैर उस घर के सामने ठहर गए । उस घर की दुर्दशा देख कर उन्हें विश्वास ही न हुआ की यह व्ही जगह है जिसे कुछ वर्ष पूर्व उन्होनें उपवन के रूप में देखा था । उन्हें जिज्ञासा हुई , वह रुके , और दरवाजा खटखटाया ।
ग्रह्स्वामिनी स्वामी जी को देख कर प्रसन्न हुई । " अहो भाग्य , स्वामी जी आ गए '
आदर सत्कार किया और उनके विश्राम के उपरांत पूछ ही दिया " आपने कहा था यह भूरी बिल्ली सुख संपत्ति सब लाएगी ।। " यहाँ लक्ष्मी का वास है। तब से हम लोग इसकी सेवा ही कर रहे हैं मगर ---
सन्यासी बोले " बेटा, मुझे लगता है तुम सदाब अपने अपने कर्तव्यों से विमुख हो गए
"आगे बेर , पीछे रेड का पेड़ , एक भूरा बिलार क्या करेगा भाई" कर्म क्यों छोड़ा ? घर की देख रेख साफ़ सफाई उद्योग परिश्रम प्रयत्न ये हमारे कर्तव्य हैं । इनके साथ ही भाग्य भी कम करता है ।। घर के सामने इतना बड़ा बेर का पेड़ हो गया और पीछे रेड का वृक्ष ? यह तो कम न करने और आलस्य का प्रतीक है । एक अकेली भूरी बिल्ली { भाग्य} क्या करेगी भाई ?
दंपत्ति का विस्मित होना अतार्किक था । भाग्य के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता । हम अपने कर्तव्य ,लगन और परिश्रम से विमुख नहीं हो सकते । शायद दंपत्ति सन्यासी की बातों को नहीं समझ सका .----------- मगर----

Sunday, June 21, 2009

टंगी जिंदगी

" पापा, चाय कमरे में ही ले आऊँ? या आप सामने वाली बालकनी में आएगें ."मैंने किचेन में अदरख कूट कर चाय में डालते हुए ज़ोर से कहा । " सुबह हो गई क्या? खोलो , खोल दो खिड़कियाँ , सरका दो परदे , बानी ,मेरा दम घुट रहा है। । साँस नहीं आ रही है।" पापा जी की परेशानी भरी आवाज़ से मैं चौंक गई।
अस्सी वर्षीय पापा को मम्मी के न रहने पर हम लोग बरेली वाले पुश्तैनी घर से अपने यहाँ दिल्ली ले आए । सब कुछ ठीक ही था । फ़िर भी अकेले कैसे छोड़ दिया जाए । चुस्त , दुरुस्त , खाने पीने के शौकीन , तने खडे , कहीं पर भी झुके नहीं । याददाश्त इतनी तेज़ की छोटी छोटी बात या घटनाओं को फ़िल्म सरीखी सुना दें । हिसाब की ताब में माहिर , अपनी बात समझाने और मनवाने के जिद्दी और हठीले । पापा जी का अपना ही एक अनोखा व्यक्तित्व है।
दिली के पाश इलाके में बहुमंजिली इमारत , गगनचुम्बी , और भव्य । उसी में हमारा फ्लैट , तीन बेडरूम , सुख सुविधाओं और सुरक्षा से सम्पन्न , सुंदर , आकर्षक। सातवाँ तल्ला । नीचे पार्क , फ़व्वारे ,स्वीमिंगपूल , बच्चों के खेलने के लिए झूले न कोई डर न कोई परेशानी । साफ़ सुथरा , दो दो लिफ्ट अच्छा पड़ोस मगर पापा, पापा को तो बीएस एक ही धुन --मेरा घर - मेरी धरती , मेरी मिट्टी की सोंधी महक , मेरे लोग ।
बानी , कहाँ हो तुम ? तुम्हारे आफिस का समय हो रहा होगा । मैं बालकनी में आ जाता हुईं " गज़ब का है तुम्हारा घर ? हर कमरा एसी से कूल एकदम शिमला । न रात का पता नं दिन का । एक कमरे से टहलते दूसरे कमरे में । कभी टीवी , कभी कम्प्यूटर , या फ़िर कुछ किताबें पढ़ना । लिखना क्या ? अब तो चिठी - पत्री का ज़माना ही न रहा । फोन पर ही बहुत है। किसको टाइम है ?उनकी बातें सोच ही रही थी की पापा की आवाज़ फ़िर सु नाई पडी । " रोहित कब लौटेगा टूर से ? महीने में पन्द्रह दिन तो बाहर ही रहता है । और तुम कब तक आओगी ?
६ बजे आफिस छूटेगा पापा, आते आते आठ बज ही जाएगा पापा । नौकर से आप खाना बनवा लीजिएगा .क्या पसंद करिएगा आप ? निकाल कर रख जाऊँगी " मैंने प्यार से दुलराते हुए कहा। "{ ठीक है , ठीक है , मेरे लिए परेशान न हो बेटा , " बात करते करते मैं बाथरूम में घुस गई .ठंढे पानी के फुहारों के बीच भी मन घूमता रहा पापा के इर्द गिर्दा । क्यों सब बूढे होते लोग इतने "रिजिड" और सिनिकल " हो जाते हैं । ? पापा तो इतने "रैशनल" इंटेलिजेंट" , और समझदार हैं कितने सहज भाव से कह जाते हैं" जहाँ आदमी पलता बढ़ता है वहां के उसी वातावरण में वह घुल मिल जाता है। अपने को सुरक्षित समझता है। और बडे होने पर "ओल्ड होनेपर " चेजं इन एनी थिंग इज अ स्लो एंड टाइम टेकिंग पेनफुल प्रोसेस , वेरी पेनफुल " कितनी सुंदर कविता की लाइनें ----" जीवन की सौ सुख सुविधा में मेरा मन बनवास दिया सा " । कितना सुंदर । " हैत्ट्स ऑफ तू यु पापा " पापा आपका मन अब इस उमर में भी इतना कोमल और भावुक है कैसे ?
नहाते नहाते अचानक पानी की फुहारें बंद हो गईं । विचारों को एक झटका लगा । " अरे यह क्या? आज टंकी में पानी भरना भूल गई ? ऑफ़ मैं भी कितनी पागल हूँ । बात रूम से ही चिल्लाई " प्लीज़ पापा , पानी का स्विच चला दीजिये " । मन भटकने लगा । टूटी कडी फ़िर से जोडी । बडा सा घर , बरेली वाला, आँगन , लान , नौकर चाकर , मम्मी , पापा , भाई बहन । चहल पहल सबका मिल जुल कर मन लग जाता । काम भी बंट जाता , तीज त्यौहार का अपना मज़ा । क्यों ये एकल परिवार ?मैं , मेरा पति , मेरा बच्चा , सुख सुविधा ,पैसा ,घर का आनंद भोगने के लिए समय भी तो होना चाहिए । किस के लिए ये भाग दौड़ ."आनंद " है कहाँ ?
अपने सर पर चपत मार कर मैंने ख़ुद को एलर्ट '"किया । " छोड़ो ये सब बेसिर पैर की बातें । मेरे आफिस में आज "इंस्पेक्शन " है । उसका क्या होगा ? थोड़ा सा कम पेंडिग है " बालों में लगाते लगाते " ॐ नमः शिवाय का ग्यारह बार उच्चारण किया । हे भगवान् सब ठीक रखो " की मंगल कामना के साथ घडी देखी तयार होने में आधा घंटा लगा था । कमरे से बाहर आई .तो पापा जी टेबल पर अखबार देख रहे थे । " मैं चलूं पापाजी , आपके लिए चाय थर्मस और नाश्ता टेबल पर लगा दिया है । देखिये -- खा लीजिएगा। जल्दी से मैंने पैर छुए और लिफ्ट में जा खडी हुई ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया। घर छूट रहा था। आफिस , बॉस , इंस्पेक्शन आखों के सामने नाच रहे थे । मगर मन सोच रहा था- आँखों पर चश्मा चढ़ाये पेपर हाथ में लिए पापा शायद रोज़ की तरह दरवाज़े तक आये होंगे। फिर बालकोनी में खड़े हो गए होंगे। सामने उनके भाग रही होगी ज़िन्दगी- अपार्टमेंटों में हलचल, गाड़ियां धडा धड निकल रही होंगी कैम्पस से। लेकिन पापा-पापा की दिनचर्या तंगी थी उसी बल्कान्य में ठहरी थी, लटकी थी, त्रिशंकु की तरह। न धरती पर न आकाश में उस अपार्टमेन्ट की बालकनी में। पता नहीं क्यूँ मेरा मन उदास हो गया.

Sunday, June 14, 2009

सोचना ज़रूरी है .

अज्ञात शक्तियों पर विश्वास करने से कहीं बेहतर है हम अपने द्वारा किए गए कर्म , बाहुओं की शक्ति को पहचाने और उसका उपयोग करे । यदि मनुष्य साहसी निर्भीक और विचारों में मजबूत , नैतिकता की दृष्टि से सही हो तो आने वाली सारी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं । फूंक फूंक कर कदम रखने वाले मंजिलें तय नहीं करते। निर्बल, संकोची , डरपोक और नाज़ुक आदमियों से किसी को सहानुभूति नहीं होती .दीन हीन और दया का पात्र बनने से अच्छा है ईर्ष्या का पात्र होना .संघर्षों से गुज़र कर सोने की तरह तप कर चमक जाना , संतुलित ,गंभीर व्यक्तित्व का निखरना .

Saturday, June 13, 2009

अहा, गगन में चाँद उगा है .

अहा, गगन में चाँद उगा है।
दिन भर की हर तपन थकन को दूर किया है।
हरख ,हरख मन डोल रहा है ।
अहा, गगन में चाँद उगा है।
शीतल , उज्जवल , पावन, कोमल,
झर झर झरी चांदनी भू पर।
पीडा , ज्वाला ,कम्पन , क्रंदन,
सब को शांत किया है ।
अहा गगन में चाँद उगा है।
जहाँ तहाँ छिटके हैं तारे ,
आशाओं के अंकुर सारे
,झिलमिल झिलमिल बिखरे पथ पर ।
जीवन को आश्वस्त किया है
अहा गगन में चाँद उगा है.

Friday, June 12, 2009

जीवन - संध्या में

स्नेह का ये स्रोत उमडा,
कब किधर से कुछ न जाना ।
कठिन जीवन सिक्त होगा
धार इसकी मत सुखाना
राह लम्बी, भार गुरुतर
झेलने कंटक पडेगें -,
फ़िर भ्रमर बंदी बनेगें ,
फ़िर पवन झोंके चलेगें ,

फ़िर खिलेगें फूल प्यारे ,
फ़िर सजेगें नील
नभ में चाँद तारे
,झर झर झरेगी चांदनी
,बस मगर इक हम न होंगें .
गर कहीं कुछ मन दुखा हो
गर कहीं कुछ टूटता हो ,
जब कभी मन डूबता हो ,
याद करना वे सुखद दिन ।
बीतते सुख से चलेगें ,
रस भरे हर पल लगेगें ।
बस मगर इक हम न होंगें ।
बस मगर इक हम न होंगें

Tuesday, June 9, 2009

टेलीविजन और छोटे बच्चे

दूरदर्शन आज मनोरंजन का सबसे बड़ा और लोकप्रिय साधन है । छोटे बड़े सभी बिना किसी प्रयास के अपना समय बिता लेते है । और बार बार सकारात्मक सोच के साथ बचपन से ही माता पिता बच्चों को टेलीविजन से जोड़ने का प्रयास करते है किंतु "अति सर्वत्र वर्जयेत " बहुत अधिक समय तक टेलीविजन देखना विशेषकर छोटे बच्चों के लिए हानि कारक हो सकता है। शुरू शुरू में तो सब को अच्छा लगता है की वह टेलीविजन से पूरी तरह अवगत है स्वयम हीउसका प्रयोग कर सकता है । किंतु ध्यान देने की जरूरत है।




यहाँ मैं दो वर्ष से छ वर्ष तक के बच्चों की ही बात करूंगी । इस उम्र के बच्चे बिना टेलिविज़न देखे भी रह सकते हैं क्योंकि ये वर्ष उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी हैं। यह कहे जाने पर अभिवावक असंतोष प्रकट करते है । और कहते हैं की समय बदल गया है। जमाने के साथ चलनाचाहिए । हमाराबेटा पिछड़ जाएगा। " उनका यह सोचना प्रत्यक्ष रूप में तो सही लगता है लेकिन आगे चल बुरे प्रभाव भी दिखाई detein हैं । फ़िर स्थिति हमारे नियंत्रण के बाहर हो जाती है .यह इन नन्हें बच्चों के इन वर्षों शोर मचने वाला यंत्र ही साबित होता है । एक दूसरे के प्रति मेल जोल , आस पास के वातावरण के हर पल का आनंद लेना भूल जाता है । उसके प्रति प्रतिक्रियाएं व्यक्त नहीं कर पाता । हमारे बच्चों को " सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए लेकिन उसकी भी एक सीमा है । क्योंकि टेलीविजन के कार्य क्रमों का प्रभाव हमारे शारीरिक, मानसिक, और सामजिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। इसके बहुत से नकारात्मक प्रभाव हैं । जिसमे की मोटापा प्रमुख है। रिसर्च बताता है की जो टेलीविजन ज्यादा देखते हैं उनके "ओवेर - वेट " होने की संभावना अधिक होती है। क्योंकि वे अपना अधिक समय उसके सामने बैठ कर बिताते हैं। विज्ञापनों को देखते हैं जिसमें आकर्षक तरीके से "हाई- कैलोरी फूड " आदि रहतें हैं बच्चे ऐसे खानों के लिए जिद करते हैं .मैगी , पिज्जा कोकाकोला आदि.,कई माताएं बच्चों को बहला फुसला कर खाना खिलाने के लिए टीवी पर "कामिक" , फ़िल्म आदि लगा देती हैं .और उन्हें "मोटीवेट" करती हैं । यही नहीं बच्चे स्मोकिंग, सेक्सुअल रिस्क " खाने पीने में अनियमितता और "अबुजेज़ "सीखते हैं।


अनुसंधान यह बताते हैं की टीवी प्रोग्राम में दिखाई जाने वाली हिंसा बच्चों में डर , उत्तेज़ना , आक्रामकता , और विद्रोही व्यवहार को बढावा देती है। कम नींद का होना, पढाई में ध्यान न लगना और एकाग्रता की समस्या अक्सर बच्चों में आ जाती है। वे असंवेदनशील हो जाते हैं। बच्चे जब हिंसा से अपना मनोरंजन करते हैं तो वे कठोर , निर्दयी संवेदना शून्य हो जाते हैं। और किसी भी प्रकार के दबाव को सहन नहीं कर सकते । और हमारे स्कूलों , समाज और समुदायों को और अधिक हानिकारक बनाते हैं।


थोड़े से बड़े बच्चों के लिए शैक्षिक प्रोग्राम बेहतर हैं, लेकिन दो वर्ष से कम बच्चों के लिए नहीं । क्योंकि उनका कोई सकारात्मक प्रभाव उन पर नहीं देखा जा सकता । उनका मस्तिष्क पूरी तरह से इतना विकसित नहीं होता की वे स्क्रीन से कुछ सीख सकें यहाँ तक की "बेबी- वीडियो " भी उनके सामान्य और समुचित विकास में देरी कर सकते हैं.वास्तव में हानि पहुँचा सकतें हैं।


दूसरा पक्ष या तर्क दिया जा सकता है की क्या टीवी कासब बुरा या ग़लत ही प्रभाव होता है ? कुछ भी अच्छा प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता ?अगर देखा जाए तो दो वर्ष से बड़े बच्चों के लिए टीवी के शिक्षा संबंधी प्रोग्राम उनके भाषा संबंधी कुशलता को बेहतर करने में सहायक हो सकतें हैं लेकिन उसके लिए ज़रूरी है की "इंटर -आक्टिव शोज़ " को चुना जाए , ये प्रोग्राम शिक्षा के अनुभवी व्यक्तियों के द्वारा तैयार किया जाता है जो एकदम सही से जानते है की कौन सी विकसित की जाने वाली "स्किल्स " हैं और किस उम्र के लिए हैं । वे इन प्रोग्रम्स को देखने वाले छोटे दर्शकों ,बच्चों से सोच समझ कर की गई प्रतिक्रियाएं मांगते हैं। इसलिए जानकारियाँ केवल एकतरफा बच्चों के ऊपर से निकल जाने वाली नहीं होती.अपितु उम्र के अनुसार अहिंसात्मक वीडियो गेम्स बच्चों की समस्यायों का समाधान करने में सहायक हो सकतें हैं ।


यदि बच्चों को काल्पनिक , क्रियात्मक ,और शारीरिक क्रियाओं से भर पूर खेल खेलने को दिए जाएँ तो उन्हें टीवी देखेने की ज़रूरत ही न पड़े । यह व्यवस्था दो से छ वर्ष के बच्चों के लिए की जा सकती है । खेलना , बच्चों से मिलना, पार्क में, लूडो , कैरम। फूटबाल, छुपा छुपी , आदि छोटे छोटे खेलों में उन्हें व्यस्त रख कर टीवी से दूर रखा जा सकता है।


मूवी को आजकल रेटिंग किया जाता है की बच्चों के लिए उपयुक्त है या नहीं । मगर यह बहुत भरोसे का नहीं होता है। क्योंकि सब कुछ व्यापारिक हो चुका है


सबसे अच्छा तो यह होगा की अभिवावक स्वयम सोंचें , समझें और देख कर यह निश्चित करें की वीडियो गेम, टीवी, सिनेमा में से कौन सा सबसे प्रभावशाली माध्यम जो उनके बच्चों के वातावारण संबंधी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है ? उन्हें विशेष रूप से ख्याल रखना होगा , सतर्क व सावधान होना होगा की उनका बच्चा किसका इस्तेमाल कर रहा है । वे उतनी ही चिंता इसकी भी करें जितनी बच्चे के खाने पीने रहने - सहने की रखतें हैं । बच्चों को सही माध्यम को चुनना भी सिखाना चाहिए केवल फैशन "ट्रेंड " को देख कर नहीं.

Monday, June 8, 2009

कौन है जिम्मेदार ?

परिवर्तन सृष्टि का नियम है । चलते रहना जीवन और रुक जाना मृत्यु । समाज के विकास में भी यही नियम है मान्यताएं बदलती है , आव्यशकता अनुसार विचार भी बदलते हैं , सोच और दिशाएँ बदलती हैं । नहीं बदलतें हैं तो शाश्वत नैतिक मूल्य । नैतिक मूल्यों में और उनके व्यावहारिक प्रयोग में निरंतर गिरावट देखी जा रही है । माता , पित्ता, परिवार के सदस्य , विद्यालय , अध्यापक , शिक्षा शास्त्री , हैरान परेशान हैं । मौखिक रूप से हर व्यक्ति अपनेस्तर पर दया , प्रेम, परोपकार, आदर सम्मान सहयोग भाई चारा आदि के संस्कार को देने की कोशिश कर रहे है । लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं । जितना नैतिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है लोग सतर्कता बरत रहें हैं उतने ही भयानक और विपरीत प्रभाव हमें दिखाई पड़ रहे हैं ।
क्या है इसका कारण ? कहाँ हम चूक रहे हैं ? कौन है जिम्मेदार? कौन सी चीजें हमें पतन की और खींच रहीं हैं ? सभी अपने अपने दायित्वों को सही बता कर मीडिया को ही दोषी सिद्ध कर रहे है। क्या सारा दोष मीडिया का ही है? मीडिया भी तो व्ही दिखा रहा है जो पब्लिक देखना चाहती है । कारण मिले तो समाधान भी मिल सकता है ।

Friday, June 5, 2009

पर्यावरण दिवस ----एक छलावा

नगरों, महा नगरों में लगातार ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं
जहाँ आकाश नहीं , शुद्ध वायु नहीं
पानी नहीं , और कहने को भूमि नहीं,
दम घुटा जा रहा है, जीने के लिए ,
तरस रहा है एक बूंद पानी के लिए ,
छटपटा रहा है साँस लेने के लिए ,
जहाँ आकाश नही शुद्ध वायु नहीं ।
सभाएँ हो रहीं हैं , विज्ञापन दिए जा रहे हैं
भाषण पे भाषण हो रहे हैं , रिसर्च जारी है.
"पर्यावरण दिवस" मनाया जा रहा है , फ़िर भी
ऊंची से ऊंची अट्टालिकाएं ------
सब कुछ वैसा ही चल रहाहै
कहीं कोई शांती नहीं , कोई ठहराव नहीं,
हम हैं की भागे जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं ,
और भागे जा रहे हैं ------------

Sunday, May 31, 2009

उल्लू ---एक विवेचना

अबकी जनवरी के महीने में माघ मेला घूमने के लिए , बिहार से हमारे मित्र इलाहबाद आए बहुत अच्छा लगा. अपने जीवन संघर्ष के दिनों के लंगोटिया यार. कुछ आध्यात्मिक प्रवृति के, कुछ मस्त मौला ,हंसमुख , ठहाके लगा कर हर फिक्र को धुंए में उडाने वाले । इतने वर्षों बाद मिल रहे थे , ले कर आए थे दो उल्लुओं का एक जोड़ा , मिट्टी का बना हुआ , सुंदर रंगों से सजा हुआ ,प्यारा कलाकृति का अनूठा नमूना । घर, आँगन , फूल, उपवन सब घूम कर देखा । आनंन्दित हो कर बोले " यार , सब कुछ बहुत अच्छा , इस उल्लू के जोड़े को सजा दो इस बगिया में , अच्छा रहेगा । जानते हो क्यों ? उल्लू बुद्धि और मूर्खता दोनों का प्रतीक है। भारत में मूर्खता तो पाश्चात्य में बुद्धिमानी का।"
उल्लू के समान बुद्धिमान और दूरदर्शी पक्षी कोई दूसरा नहीं। " सच ही तो अपना अपना देखने का नजरिया है । जब जब इसे देखोगे -- अहंकार न होने पायेगा , हर चीज को समझ कर तोलोगे की कहीं मैं मूर्खता तो नहीं कर रहाहूँ । और फ़िर बुद्धिमान उल्लू बन कर ऐश करोगे ऐश , जीवन सुख से बीतेगा यार" ।
और तब से मेरा नियंत्रक , निंदक, आत्म विश्लेषक की भूमिका निभाने वाला वह उल्लू का जोड़ा बगिया में आम्रपाली आम के पेड़ पर विराजमान है। किसी ने ठीक ही कहा है " जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी "

Friday, May 29, 2009

लक्ष्य


आओ , चलें गावं की ओर
ग्रामों में ही भारत बसता ।
ग्रामों की उन्नति से ही तो ,
खुशियाँ , नाचेंगी चहूँ ओर ,
आदि कलाएं , शिल्प ज्ञान जो,
दिव्य धरोहर , अपनी है वो ।
करे आलोकित जग , कण कण को ।
नाच उठे मन मोर ,-----
अपनी सस्कृति अपनी भाषा ,
अपनी धरती अपनी आशा ,
नये ,पुराने हिल मिल विकसें ,

एक शब्द चित्र

एक प्यारी सी भोर जागी,
सूरज का टीका , ऊषा की लाली.
कलियो के कंगन , फूलों की बाली।
एक प्यारी सी भोर जागी।
झरनों का झरझर ,नदियों का कलकल,
आकाश में पंछियों की अवली,
पत्तों की सिहरन ,भ्रमरों की गुनगुन .
एक प्यारी सी भोर जागी.

Thursday, May 28, 2009

शुभ कामनाएं

हम रहें या न रहें , शुभ कामना हरदम तुम्हारे साथ है ।
मंजिलें मिलती रहें, मुश्किलें आसान हों ।
जिंदगी की हर खुशी तुम पर मेहरबान हो ,
शुभ कामना हरदम तुम्हारे साथ है।
जब कभी ऐसा लगे तुम हो अकेले ,
कोशिशें नाकाम हो और न कोई द्वार खोले ,
टूटना मत , रूठना मत , धार हिम्मत जूझ पड़ना .
सफलता मिलती रहेगी , प्यार औ आशीष तो हरदम तुम्हारे साथ है।
आ जाय यदि बाधा कहीं ,और न सूझे राह , दुष्कर
घिर गये यदि संकटों में , लघु प्राण तन में काँपता गर .
ग़लत रस्ते नापना मत , और हिम्मत हारना मत .
शुभ कामना हरदम तुम्हारे साथ है , पल पल तुम्हारे साथ है.

Thursday, May 21, 2009

समय का चक्र

यहाँ आकाश नहीं है , यहाँ बाताश नहीं है " । यह       colkata    जैसे    घनी आबादी वाले महानगर के लिए सुना था लेकिन रांची जैसे शांत , छोटे खुली ज़गह में भी ऐसा हो सकता है कभी सोचा नहीं था । ठीक साड्डे नौ बजे मैं स्कूल के लिए निकलती थी। और फाटक बंद करते समय अनायास ही नज़रें उपर उठ जाती । एक तल्ले की बालकनी कीओर , जिसे गमलों से , बडे बडे इनडोर प्लांट्स और लटकने वाले पौट्स से घेर कर बगीचे का सा रूप दे दिया गया था । और उस बालकनी से झांकता एक सौम्य शांत , उदास आंखों वाला चेहरा , पोपला मुख , सन जैसे सफेद बाल , झुर्रियों में झूलता बदन । मेरे फाटक बंद करने की खट , और उनका नित्य प्रति का प्रश्न ""श्रीमती जी , आपके जाने का समय हो गया क्या ? देखिये न मैं भी कम ख़तम कर के बालकनी में ठीक ९ .३० बजे आगई हूँ। "" मैं चुपचाप उनकी ओर देख कर मुस्करा देती हूँ। "शाम को मिलेंगे माता जी "। पिछले कई महीनों से एक दिन के लिए भी यह क्रम टूटा नहीं। चाहे गरमी हो या सरदी , धूप हो या बरसात , आफिस की ड्यूटी की तरह सत्तर वर्षीय माता जी अपनी पूजा , पाठ , ध्यान, भजन , कर बालकनी में बैठ जाती हैं। बस उपर नीचे की बात चीत हम लोंगों का परिचय है , अपनी व्यथा कथा वह अक्सर ही मुझे रोक कर सुना देती हैं। और बार बार ऊपर आकर मिलने का आग्रह करतीं । कई दिनों तक तो मुझे पता ही नहीं चला की वो चलने फिरने से लाचार हाई ब्लड प्रेशर की मरीज़ हैं। बेटा बहू पोते , पोतियों की किल्करिओं के गूंज में भी शायद निर्लिप्त सी न मालूम किन ख्यालों में खोई खोई बस टुकुर टुकुर ताकती रहती हैं । भीड़ में भी अकेली। वह तो गनीमत है की आते जाते लोगों की चहलपहल से मन बहल जाता है। नहीं तो यह ६ फुट की बालकनी का संसार , दम घोंटू वातावारण , खुली हवा नहीं खुला आकाश नहीं। और खुले आकाश में उन्मुक्त पंछी सा उड़ने को तडपता मन , समय की मार ने पंछी के पर काट दिए हैं । बीमारी ने अपंग बना दिया है। चलने फिरने से मजबूर आश्रित मन। मन का पंछी तो उतना ही कर्मठ और मानी है मगर शरीर , पंख बेहद कमज़ोर और शिथिल । दम झूट रहा है तड़प रहा है । खुली हवा नहीं आ रही है। साँस रुक रही है।
""श्रीमती जी आज मैं आपके पास आऊंगी , कितने बजे वापस आती हैं आप? आज कोशिश करूंगी । आपको रोज़ जाते देखती हूँ तो इच्छा होती है । मैं भी आपके साथ चलूं घूमने , बातें करूं । आप बच्चों को पढाते हो? मेरे लिए भी कुछ बताओ न , मन घबराता है बेचैनी होती है। बैठे बैठे ऊब जाती हूँ । आंखों से दिखाई नहीं देता , बीन भी नहीं पाती , " जीवन की शत सुविधाओं में मेरा मन वनवास दिया सा "" अनायास ही मेरा मन भर आता।
बुढापा भी कैसी बेबसी है । अक्सर ही वे मुझे ऊपर बुलाती और फ़िर भावातिरेक में कितनी बातें बता जातीं "कमबख्त बुढापा भी क्या चीज़ है.और उस पर यह मुटापा , जब शुरू में मेरे पति इंजीनियर साहब कहते थे "रानी ज्यादा घी, शक्कर , तली , बघारी न खा । शरीर बिगड़ जावेगा । बुढापा नर्क हो जावेगा । " और मैं गरब इठलाती हुई कहती , अरे , मैंने कौन जीना है आपके पीछे । मोटी सुट्टी रहूँगी हाई ब्लड प्रेशर आपे हो जावेगा और एक सुबह उठोगे तो देखोगे सोते सोते ही चल दी । जगाते ही रह जाओगे । तब मैनूं क्या पता था श्रीमती जी , सब उलट जावेगा । ये सोते रह गये और मैं इनकू जगाते जगाते हार गयी । ये तो मेरा अपना करम अब भुगत रही हूँ । अपनी ही करनी है। कितने नियम शियम के पक्के थे , मेरे साहब , मार्निंग वाक को जाते थे , कितनी जिद करते थे मेरे कु चलने के लिए पर मैं न मालूम किस गरब में कभी न गई ।
अब चल नहीं सकती तो कैसी तड़प होती है बाहर चलने की । हाय - पूजा पाठ में भी दिल न लेगे है। किताबें धरम की कित्ती पढूँ , आँखें जो दूखन लेगें हैं । मेरी तो एक ही बलवती इच्छा है की मैं अपने देश, अपने गाँव चली जाऊं । अब तो मैंने संसार त्याग दिया है । बहू बेटे की ग्रहस्थी से क्या लेना देना । ईश्वर से मन जोड़ना है -- हे राम --राम , तू मेरे कू उठा लेना , अब मेरे लिए क्या जीना है। कंधे पर हाथ रख कर मैं उन्हें बहुत देर तक सांत्वना देती रही थी ।
दिन , सप्ताह और महीने बीतने लेगे । पाँच बजे सुबह उठ कर ही वह अपना भजन कीर्तन शुरू कर देतीं .दो कमरों का छोटा सा फ्लैट और उनका ज़ोर ज़ोर से खट्टरखट्टर बेटे बहू को खिज़ला जाता । कमरे से निकल कर पहले तो बेटा समझाता फ़िर चिल्लाने लगता " अम्मा , तुम धीरे धीरे मन में पूजा नहीं कर सकती ?कोई ज़रूरी है की सारी दुनिया आस पास के लोग तुम्हारा भजन कीर्तन सुने । और फ़िर तुम्हें नींद नहीं आती --- हमें तो आती हैन। कितनी देर में सोये हैं हम । रात भर चोटी मुन्नी ने सोने नहीं दिया । अब तुम् चुप कर बैठो । रोज़ रोज़ का यही किस्सा है "।
अपमानित सी बीजी । माताजी सर झुका कर हाथ में घंटी पकड़े बैठी ही रह गई । अवाक । आंखों से आंसुओं की धार बह चली । कल ही तो बहू ने कहा था " क्या है माता जी , आप कुछ हेल्प तो कर नहीं सकते , उल्टे सीधे काम कर बस परेशान ही करते हो । सब चीज़ में अलग थलग । मिल कर साथ तो कुछ कर ही नहीं सकतीं । "
एक ही कमरे में बैठे बैठे कितने दिन बीत जाते । मन घबराता तो बालकनी और फ़िर कमरा । कुछ देर तक बेटा दरवाज़े पर खड़ा घूरता रहा माताजी को । फ़िर झुंझ ला कर खटाक से अपना दरवाज़ा बन्द्फ़ कर लिया । पति के फोटो के सामने सर झुकाए वह रोते रोते कब गहरी नींद में सो गई किसीको पता हीं न चला । घंटे भर बाद हल्ला हो रहा था । यह क्या ? माता जी तो सोते सोते ही चल बसीं , न कोई कष्ट न कोई पीडा । कितनी भाग्यवान थी । हाँ , कितनी भाग्यवान थीं वह .

Tuesday, May 19, 2009

शब्द और उसका प्रभाव

" शब्द एक शक्ति है । हाँ, सामान्य नहीं -, इसे दैविक शक्ति कहा जा सकता है। ये "शब्द" मनुष्य के विचारों के कम्पन से जागृत होते हैं। और विचार सम्बंधित होते हैं चेतना या आत्मा से ""।
मनुष्य जो कुछ भी बोलता है उसका प्रभाव कितना गहरा और सजीव होगा यह निर्भर करता है की मन की कितनी गहरी सच्चाई से वह कहा गया है। अधिक वाचालता , बिना सोचे समझे कुछ भी कह देना , शब्दों की महत्ता को कम कर देता है। शब्दों का बोलना यदि "आत्मिक शक्ति" से पूर्ण न हो व्यर्थ और प्रभावहीनं है । इसीलिए कबीरदास के सहज अनुभूत विचारों को इस दोहे में देखा जा सकता है ।
ऎसी बांनी बोलिए मन का आपा खोय ,
औरन को सीतल करे आपुन सीतल होय ।
यही नहीं , वाणी - शब्दों का प्रस्तुतीकरण अगर कहीं आपके बिगडे काम को अनायास ही बना सकता है । तो कभी बने हुए काम को पुरा होते होते बिगाड़ भी सकताहै। खूब सोच समझ कर हृदय रूपी तराजू पर तौल कर ही शब्दों को मुख से बाहर निकालना चाहिए । इस '"राम बाण"
औषधि " और समस्याओं का समाधान करने वाले के रूप में ""शब्द " को देखा जा सकता है। कहा भी गया है -- ,
बांनी एक अमोल है जो कोई बोले जानी,
हिये तराजू तौल कर तब मुख बाहर आंनी
इसके लिए धीरता , सावधानी , और सचेत रहने की जरूरत होती है । अक्सर लोग अपनी धुन में जो मन में आया बोल देते हैं ,कह देते हैं । यह नहीं समझ पाते की इसका प्रभाव सुनने वाले पर क्या पडेगा । जीभ तो कुछ सोच समझ नहीं सकती , सोचने का काम तो दिमाग , बुद्धी करती है। जीभ तो कुछ भी उल्टा सीधा कह कर मुख के अंदर चली जाती है। और उस बोली , उन शब्दों के प्रभाव से उस व्यक्ति को अपमानित होना पड़ता है। सर पर जूतें पड़ते है। इसीलिए कहा गया है---
जिह्वा ऎसी बावरी कह गई सरग पताल ,
आप तो कह भीतर भयी जूती खात कपाल।
ये तो सामाजिक व्यवहार और प्रभाव । शब्दों का सही उच्चारण विश्वास , इमानदारी, संकल्प , पूर्व ज्ञान से भी कहे गये शब्दों का कम्पन या तीव्रता "बमों " की तरह विप्लवकारी होता है। जो जब फेंका जाता है तो बड़ी से बड़ी चट्टानों को भी चूर चूर कर देता है ।, विनाश कारी होता है।
ईश्वर ने हम को इच्छा शक्ति , और विश्वास दिया है , एकाग्रता दी है। सामान्य ज्ञान , सूझ बूझ दी है । हमे इन शक्तियों का प्रयोग शब्द बोलते समय करना चाहिए ।
सद्भावना , प्यार , सकारात्मकता , और दृढ़ता के साथ जब हम किसी शब्द को बोलते हैं तो वही मंत्र की योग्यता को प्राप्त कर लेता है । एक बिन्दु या शब्द या वर्ण में समाहित शक्ति विस्फोट के समान प्रभावशाली बन जाती है। इस प्रकार सकारात्मक व् नकारात्मक विचारों से ओतप्रोत शब्द का प्रभाव सृष्टि या रचना और नाश दोनों के लिए हो सकता है ।

Monday, May 18, 2009

प्रिय पाठकों ,

मेरे पुनरागमन का आपने स्वागत किया है , और शुभ कामनाएं दी हैं । बहुत बहुत धन्य वाद । यह मात्र औपचारिक नहीं है , वरन ह्रदय से अनुभूत है ।
मुझे इस बात का दुःख है की टाइपिंग में कुछ कुछ वर्तिनी की गलतियाँ हो गयी हैं जिस को मैं सुधार नहीं पायी और वह ब्लॉग पर चला गया । अब विशेष ध्यान रखूगीं ।
समाज में बहुत कुछ बदल रहा है , सोच, विचार, रहन सहन , खान पान , काम करने का तरीका । इन सबके बीच बिना किसी कुंठा के जीवन सहज बीत जाए वही कामना रहती है । " जो जैसा है " उसमें अच्छाई की कल्पना करते रह कर प्रयास करना ही अपना उद्देश्य होना चाहिए । शांती और सुख के लिए साहस और धैर्य दोनों ही आवश्यक है।
आप क्या सोचतें हैं? वर्तमान में असंतोष हमें कर्म कर झूझने की और प्रेरित करता है ? या हमारे जीवन को पलायन की तरफ ले जाता है ? आज का युवा इस विषय पर क्या सोचता है?
शुभ काम नाओं सहित
अनुशी .

बदलती परिभाषा -- आज का वानप्रस्थ

मैं एक शिक्षिका थी , यानी अब कार्य सेवा से मुक्त हो चुकी हूँ । घर में ही रह कर समय बीतता है। अक्सर परिचित अपरिचित लो ग आ ही जाते हैं । बात चीत के दौरान एक दो प्रश्न लोग पूछ ही बैठे ते हैं। आप लोग अकेले ही रहते हैं ? परिवार में कौन कौन रहते हैं आपके ? समय कैसे बीतता है ? प्रश्न है भी सहज और स्वाभाविक । कुतूहल तो होगा ही। मेरे होठों पर मंद मुस्कान बिखर जाती है। थोड़ी अन्म्य्स्क सी हो उठती हूँ ।
कौन से परिवार का परिचय दूँ ? वह जिसमें बेटा , बेटी, बहू , दामाद , उनके बच्चे जो अपने अपने परिवार में खुश देश विदेश में बसे जीवन यापन कर रहे हैं। फोन पर उनके प्यारे प्यारे बच्चों से बातें हो जातीहैं । वेब कैम उन सब को देख कर खुश हो लेती हूँ ।
अथवा उस अनोखे परिवार की जिनके साथ मेरे दिन प्रति दिन का सुख दुःख जुटा है। जिनकी देख रेख में मेरे रात दिन का कार्य क्रम चक्र की तरह घूमता है । कभी रातों की नीद उड़ जाती है तो कभी दिन का चैन । कुछ सदस्य बोलेतें हैं तो कुछ अबोले । किसी के प्यार और संवेदना का कोमल स्पर्ष तन मन को ऊपर से नीचे तक स्नेह से तर बतर कर भिंगो जाता है। तो किसी की आँखें अन्य क्रिया कलाप , बिना बोले ही बहुत कुछ कह जाते हैं। और बीत जाता है एक दिन । सुबह से होती शाम ,विभिन्न रंगों से भरा दिन ।
हाँ , मैं अपने पैंसठ वर्षीय पति के साथ खुले, शांत , फूल पौधों से घिरे एक छोटे से काटेज नुमा घर में रहती हूँ .बच्चे देश विदेश में .घर के पूर्व दिशा में एक छोटा सा पोंड है । उदित होते सूर्य की प्रथम किरणों के स्पर्श से प्रफुल्लित तरंगित जल में विभिन्न रंग बिरंगी मछालिओं का समूह । चारों तरफ पक्षिओं का मधुर कलरव । पहचानती हूँ हर फूल , पौंधों, और पत्तों को .गौरैयों का खिलखिलाता झुंड , सुबह सुबह ही पेड़ के शाखाओं पर लगे झूलों पर झूलने लगताहै। चावल के दानों को खाने के लिए कभी गौरया , कभी पंडुक पक्षी तो कभी गोल मटोल , भूरी , शोर मचाती गोलकी चिडिया ।बडा ही प्यारा लगता है इनका चहकना , और शोर मचाना।
हाँ, मेरा परिवार , उसकी परिभाषा बदल सी गई है। जीवन की इस गोधूली में । रीटायर मेंट आधुनिक समय का " वांन प्रस्थ"आश्रम।
मेरे वर्तमान परिवार का सबसे प्यारा क्यूट सदस्य है लासा आप्सो कुत्ता पौपिंस .सफ़ेद , भूरा , काला कुल मिला कर किर मिची सा रंग । झबरे , घने , बाल नन्हा पौपिंस .शुरू होता है मेरा दिन , उसके नन्हे हाथों को मेरे गले में दाल कर अंगडाई लेने से । गोदी में चढ़ कर प्यार कराने से । पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है कोई इसे कुत्ता न कहे । वह तो प्यारी स्लिम ट्रिम कटे बालों वाली प्यारी बिटिया सी लगती है। क्यूट चुलबुली चौऊ मौऊ । दौड़ दौड़ कर लॉन में छका छका कर खेलना , लुका छिपी का खेल । खेल खेल कर मुझे थका देना । सुहावनी सुबह और इसकी चंचंलता ।
चार बजे भोर में एक अकेली चिडिया का छत की मुंडेर पर बैठ कर सीट्टी बजाना । मैं घडी देखूँ या न देखूं अगर मैं उठ गयी हूँ और सीट्टी सुनायी पड़ रही है तो समझ जाती हूँ की सुबह के चार सवा चार बजे होंगें .और होता भी यही है। और सुभ की व्यस्तता , फूलों की क्यारी ,कौन सी नयी कली खिल गयी । किस नन्हीं कली ने आंखें खोली , उनके चटकदार रंग । बदन को सिहराते मंद मंद हवा के झोंके ,। एक एक को सहलाती दुलराती , शुभ कामनाएं देती मेरे कदम बढ़ जाते हैं। पौंड में तैरती चमकती सतरंगी मछलियों की तरफ । उन्हें पैरों की आहट की पहचान इतनी की निश्चित समय पर खाने के दानों के साथ पौंड के पास पहुँचते ही जाल के उपरी सतह पर हलचल और उनकी क्रिया शीलता देखते ही बनती । दस मिनट तक दानो को खाती मचलती तैरती मछलियाँ । मेरे परिवार ke अहम सदस्यों का समूह ।
किचेन की खिड़की पर पसरी हुई अंगूर की छितराई बेल , अंगूरी पत्तों का आच्छादन , झुरमुट के बीच बुलबुल के जोड़े का नव निर्मित घोंसला और उसमें बैठी बुलबुल। दोनों जब तिनके लेकर दौड़ दौड़ कर उड़ कर , फुदक फुदक कर आते और उस जगह का निरीक्षण करते तो मेरा मन कांप कांप जाता । कितेने अदूरदर्शी हैं ये युगल दम्पत्ती । इतने नीचे खिड़की के पास ? कहीं किसी बिल्ली की नज़र पर गयी तो क्या होगा ? हाय ,कोई इन्हें समझा पता की उन्होंने सही जगह का चुनाव नहीं किया है । मगर कैसे बताऊँ ? मेरी तो जान ही निकलने लगती अगर कभी पड़ोस के घर की बिल्ली मेरे किचेन के आस पास दिखाई पड़ती की कहीं मेरी प्यारी बुलबुली के अंडो पर झपट्टा न मार दे । रातों की नींद उड़ जाती है । हर साँस , हर पल यही प्रर्थना करतीहै "भगवन उसे सुरक्षित रखना "
यही नहीं पास के सटे घर के पतले बरामदे से हमेशा मेरी हर गति विधि को निहारती आँखें , सजग , सचेत , मेरे घर की रखवाली करती । क्या मजाल। , गेट पर खट होऔर वह दौड़ कर न देखें .की कौन आया है? कदम कदम की जानकारी रखती मिसेज़ खन्ना। जिनका ज़िक्र किए बिना मेरा परिवार अधूरा रहेगा ।
जरा सी खांसी बुखार, सरदर्द , सुन कर या देख कर आनन फानन में जोशांदा बना कर मनुहार करती काम वाली बाई गुड्डी । गोल मटोल , गुल गुथना शरीर , नाता कद , गेहुआं रंग , प्यार से झिलमिलाती आँखें । जरूरत पड़ने पर घंटों रुक कर सहायता करने वाली गुड्डी । जो मेरे परिवार की मुख्य सदस्या बन कर असीम सुख शांती देती है । वह भला कौन दे सकता है ? पिछले कई सालों से वही तो अपनी और बहुत अपनी हो गयी है ।
कौन अपना कौन पराया ? परिवार तो वही है जो दुःख सुख और ज़रूरत पर काम आए । खून के रिश्ते भी दूर हो जाते हैं । और जो कभी अनजाने ,अपरिचित थे कब घनिष्ट और परिवार बन जाते हैं पता ही नहीं चलता .स्नेह का स्त्रोत कब कहाँ से उमड़ पड़ता है जो घनिष्ट संबंधों में बदल जाता है । मन कहता है ईश्वर से प्रार्थना करता है " प्रभु , इन्हें न तोड़ना "
चलते रहना और निरंतर परिवर्तन ही जीवन है। गति है । रुक जाना मृत्यु.इसलिए परिभाषाएं
बदलती रहती हैं । बदलते रहेंगे परिवार के रूप और आकार । इस शाश्वत सत्य को स्वीकार कर ही सुखी रहा जा सकता है ।







Sunday, May 17, 2009

एक चना

क्लास में मुहावरों और लोकोक्क्तियों का पठन पाठन चल रहा था । छात्रों की रुची और पार्टिसिपेशन अपने चरम पर था । अचानक ""एक अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता " प्रचलित लोकोक्ति पर छात्र अटक गये ."इसका क्या अर्थ हुआ टीचर जी ? ""एक अकेला आदमी बडे काम को सफल नहीं कर सकता " मैनें कहा ।
"ये गलत है , इसका अर्थ गलत है" क्लास कुछ असहज हो उठी । कुछ खलबली , फुसफुसाहट सी मेरे कानों ने सुनी । चार पाँच लड़कों का समूह जो अक्सर ही साथ उठ ते बैठते थे , कुछ तन कर बैठ गये । मैंने चारों और एक स्टर्न दृष्टि डाली
चालीस - - पैंतालीस की संख्या , किशोर और किशोरीओं का सम्मिलित क्लास । लड़किओं में निर्लिप्त नीरस सा भावः । ऊंह यह क्या शुरू कर दिया लड़कों ने । विरक्ति , झुंझ लाहट -- पल भर लगा ये सब देखेने मैं ।
मेरे दिमाग में एक बिजली सी कौंधी --- भारत के भविष्य , प्रतिष्ठित विद्यालय के द्वादश वर्ग के छात्र , इनमें ही कोई भावी डाक्टर साइंटिस्ट , इंजीनियर एयर फोर्स आफीसर आई .अफ.अस होगा.अपनीअपनी अलग अलग सोच . कोई नेता होगा तो कोई वक्ता कोई गांधी या गौतम ।
समय नहीं था । छात्रों की आकुलता बढ़ती जा रही थी । बोलने की अनुमति के लिए हाथ लपलपा रहे थे । मैं --- मैं-- मैं-- मैम्म --मैंम -- ऐसा लग रहा था समुन्द्र में उफान आ गया हो । घबराहट में मेरे मुहं से निकल गया। "हाँ -- पीछे -- आखीर में जो बैठा है --तुम - चंदन - "वह हडबडा कर इधर उधर देखने लगा। मानो विश्वास ही न हुआ हो की उसे ही कहा जा रहा है । मैंने फ़िर कहा "हाँ--हाँ - चंदन तुम - तुम ही ।" गला फूट रहा था , आवाज़ गंभीर , भारी हिस्स हिस्स करती सी कमर से नीचे खिसकती पैंट को ऊपर खींचते हुए झूम कर उठ खड़ा हुआ ।। सभी लड़कों ने हिकारत भरी नज़रों से पीछे घूम कर देखा और मुस्कुरा उठे ।
चंदन ने मेरी आंखों में सीधे देखा । और बोलने लगा।
दीप से दीप जलाते क्यूँ ?स्वयं सुलगते दूजे को सुल गाते क्यों ? एक ही दीप की लौ से क्या हजारों दीप सुलग नहीं उठते ? एक दहकते अंगारे से क्या भयंकर आग नहीं लग जाती ?
विचारों की कौंध का स्पर्ष क्या हजारों मन मस्तिष्क को झकझोर नहीं देता? स्वामी रामदेव तो एक ही चना है क्या उन्होंने योग से दुनिया में तहलका नहीं मचा दिया ?
गांधी तो अकेले ही चले थे ? हो लिया न संसार उनके साथ ।
विचारों की गहनता का चना , दिल को दिल से छूने वाला यह बीज चना प्रतीक है मैम्म , एक ही चना भी भाद फोड़ता है , दीप से दीप जलाता है और सब कुछ बदल जाता है ।
आप क्या कहेंगी ? दिशा को बदलने का, मन को छूकर मानसिक भूकंप लेन वाला कोई एक नन्हा सा विचारों का अनु बम "{चना" ही होता है.जो जागृति का भाद फोड़ देता है। मैं कहाँ ग़लत हूँ ।

जादू -- जादू-- जादू वाणी का जादू , मैं मुग्ध थी अनेक छात्रों की तरह मेरा एक और छात्र मौलिकता की राह पर चल पड़ा था । मंत्र मुग्ध सहपाठी उसे निहार रहे थे । और पसीने से लत पथ
क्या करूं क्या न करूं -- वह क्या सब बोल गया । वह स्वयं हतप्रभ था । तालियाँ जोर जोर से बजने लगीं मैं सोच रही थी इसी तरह निकल पड़ा होगा भाषा और भावों का तीव्र प्रवाह जब क्रौंच पक्षी के उस वियोग विलाप को बाल्मीकी ने सुना होगा ।
कक्षा की इस घटना को आज दस वर्ष बीत चुके हैं । मेरा वह छात्र सक्षम वक्ता और सफल नेता के रूप में प्रतिष्ठित है.

बाबू और बिल

एक प्राइवेट कम्पनी के सेल्स विभाग में मैं कार्यरत था .बिलों को सरकारी दफ्तरों में जमा करना, बिल पास करवाने के लिए बाबुओं और अधिकारिओं के पास जाना, अनुरोध कर चेक प्राप्त करना मेरे लिए , मेरी नौकरी को बचाने के लिए जरूरी था । एक बार मैं बहुत परेशान था । बिल जमा किए हुए बीस दिनों से अधिक हो चुके थे । अधिकारी रोज़ मुझे बुलाते , बातें करते , और कहते "{ आज नहीं ' , हर बार यही उत्तर पाकर मैं उनके सामने जिद कर बैठ ही गया । उन्हें भी शायद मुझ पर दया आगई थी । बोले , " आप फ़िर आ गए , हो जाएगा , हो जाएगा मगर आज नहीं।" मैंने दुःख से कहा " , सर प्लीज़ दो लाख का बिल है । " अब आप इतने दिनों से चक्कर लगा रहे हैं तो आप को बता ही दूँ " अधिकारी ने कहा ।
इधर आ जाइए "उनहोंने अपनी कुर्सी के बगल में बुलाया और टेबल के तीन दराजों को दिखाते हुए कहा" ये देखिये तीन दराज़ हैं ? पहला - आज नहीं , दूसरा 'अभी नहीं " , और सबसे नीचे तीसरा - " कभी नहीं" । जिन बिलों के साथ ""कुछ " दिया जाता है अडवांस में उसी के अनुसार उन्हें इसमें दाल दिया जाता है । जो कुछ नहीं देते उनके बिल "कभी नहीं । और जो कुछ दे सकते है और देते नहीं वे "अभी नहीं " में । " तो आपका बिल "अभी नहीं के दराज़ में है । आशा है आप समझ गए होगें ।
प्रतिशत के हिसाब से दो सौ रूपये मैंने दिए और दूसरे दिन दो लाख का चेक मेरे हाथ में था .

बहुत भला tha

बहुत भला था स्नेह तुम्हारा ,
जिसने जीवन पथ बदला ।
बहुत भली थी निष्ठुरता वह,
जिससे मन का द्वार खुला।

देख रही थी स्वप्न सुनहरा ,
तुम ही हो जीवन आधार ।
बीन रही थी इर्द गिर्द ही ,
अपने सपनों का संसार।

सूरज की किरने मुस्काईं,
फूलों ने भी ली अंगडाई।
थपक थपक कर मुझे जगाया,
किंतु रही मैं ही अलसायी।
बहुत भला था दर्प तुम्हारा ,
जिसने चूर चूर कर डाला ।
बहुत भला था स्नेह तुम्हारा ,
जिसने जीवन पथ बदला।
अब न रहेंगी वे आशाएं ,
अब न रहेंगी वे इच्छाएं
अब पग संभल संभल रखेगा ,
अब न मोह घिरने पायेगा
बहुत भली थी निष्ठुरता वह ,
जिससे मन का द्वार खुला .

Monday, May 11, 2009

Exploitation

अचानक फोन की घंटी घनघना उठी। शाम के सात बज रहे थे। मैं किचेन से दौडी ' हाय कौन हो सकता है? पल भर में रिसीवर मेरे हाथ में था।'हाय कौन शालिनी ?' उधर से आवाज़ आई ' क्या कर रही थी? मैंने कहा 'किचेन में एक रिसेपी बनाने की कोशिश कर रही थी। 'यार कल सुबह अपनी बाई को भेजेगी पाँच मिनिट को -- हाँ वोही कावेरी ---वो बोल रही थी कोई काम वाली बाई मेरेलिए खोज रखी है। मुझे ले जाएगी बात करवाने के लिए.----कार से ले जाउंगी यार बडे नखरें है इनके..चल रखती हूँ ---याद से भेज देना --बाई --बाई।
कितनी स्वीट लेडी है शालिनी, सो हेल्पफुल। मैंने सोचा क्या हरज है एक दूसरे की हेल्प तो करनी ही चाहिए। कावेरी को समझा बुझा कर शालिनी के घर जाने को राज़ी करा दिया मैंने। दूसरे दिन कावेरी ने जो कुछ बताया मैं सोचने को मजबूर थी। कावेरी दूसरे दिन सुबह सुबह पहुँच गई शालिनी के पास। " शालिनी मेमसाब जल्दी करो, चलना है तो, मेरे कू काम पर भी जाना है। देर होने से बाजू वाली मेमसाब झिक झिक करेगी। "हाँ हाँ चलती हूँ। चल, जब तक मैं तैयार होती हूँ मेरे बर्तन मांझ दे। मेरी कामवाली नही आई है। खाली खड़ी ही तो है - मैं रेडी होती, हाँ।
बर्तन माझ कर चमक गए, किचेन साफ़ हो गया। ढेरों बर्तन थे। शायद बड़ी पार्टी रही होगी। तैयार हो कर मेमसाब चाय पीती रही। धीरे..धीरे..चुस्कियां। कावेरी इंतज़ार करती रही। दस मिनिट ...पन्द्रह मिनिट। शायद फिर फ़ोन पर बात होने लगी - अरे यार मीता !!! आज के किचेन का काम तो निपट गया। पार्टी में कितने बर्तन हो जाते हैं। किचेन भी तो फैल जाता है न? कावेरी को नौकरानी से बात कराने के बहाने बुलवाया था। लेकिन जाना तो पड़ेगा ना।
"जल्दी करो मेमसाब, चलना है तो। नही तो मैं जाती काम पर।" अच्छा अच्छा चल, गैराज से कार निकाली - ज्यादा देर हो गई क्या? न हो तो कल चलें? जैसा तू बोल कावेरी!! कल चलेगी क्या?

Saturday, May 9, 2009

प्रीय पाठकों

बहुत दिनों से आपसे बात न हो सकी इस के लिए मैं आपसे माफिचाहती हूँ। जल्दी हिमेरी कुछ कहानियाँ और लेख आप पढ़ सकेंगे। आपके प्रतिक्रिओं का इंतज़ार रहेगा। आपकी Anushi..