Sunday, January 26, 2014

AAYA BASANT


                                                                       आया बसन्त
      मेरे उपवन, आया बसन्त
     छाया बसन्त, आया बसन्त।
                                                                          नरंगी पीला, लाल और फिर
                                                                         हरा गुलाबी रंग अनन्त
                                                                        मेरे उपवन आया बसन्त
                                                                       छाया बसन्त, आया बसन्त।
        नन्ही कलियों में लदे भरे
       फूल झूमते खिले-खिले
       कभी मन्द और कभी तेज
      पवन के झोकों से, कुछ डरे-डरे।   
                                                                     फूलो में मधु और पराग
                                                                     कण-कण में बिखरी सुगन्ध
                                                                     मेरे उपवन आया बसन्त
                                                                    छाया बसन्त आया बसन्त।
     बुलबुल की तो अजब शान
     धारे किरीट, गर्वोन्नतमहान
     कोयल, महूक, कागा, नीलकंठ
                                                                   मेरे उपवन, आया बसन्त
                                                                  छाया बसन्त आया बसन्त
                                                                  भाया बसन्त छाया बसन्त
                                                                  मेरे मन भाया बसन्त।                         
                       

AJ KA VIDHYARTHI V VIDAYALAY--EK CHINTAN

                          
                       
                                                        आज का विद्यार्थी व विद्यालय
                                                                                                   एक चिन्तन
 प्यारे बच्चों,
                  आज मैं आपसे आपकी, बिल्कुल आपकी अपनी बाते करना चाहती हूँ । आपका मार्ग प्रशस्त है उज्जवल है। बालमन से विकसित होता हुआ किशोर मन भावी जीवन के तैयारी के दिन!
          विद्यार्थी ही तो हमारे विद्यालय का आधार है आप को ही केन्द्र बिन्दुबना कर हमारे सभी शिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे है परन्तु आपके व्यक्ति के विकास की पूर्णता की एक लम्बी प्रक्रिया है।
          दुख की बात तो यह है 9, 10, तक उत्तरदायित्वों से रहित परिवार की गहन छत्र छाया में रक्षित (प्रोटेक्टेड) रहते है पग-पग पर आपकी सहायता के लिये बन्धु-बान्धव, माता-पिता। और एक दिन में जैसे ही हाई स्कूल या इण्टर का रिजल्ट निकला (परीक्षाफल) हम आपसे एक जिम्मेदार, स्वयं निर्णय लेने वाले गंभीर जागरूक व्यक्तित्व की अपेक्षा करने लगते है। एक ही दिन में खींच कर बड़ा बना देने की कल्पना बड़ी हास्यास् पद है।
         नवम् वर्ग के विद्यार्थियों से बातचीत के दौरान यह पूछे जाने पर कि आप आगे क्या करना चाहते है? क्या कुछ सोच रहे है? पहले तो किंकत्र्वव्य विमूढ़ से वे सोचते रहे और कुछ रूक कर कहा जैसा पिता कहेगे वही करूंगा उनका कहना है की साइन्स और मैथ्स की डिमान्ड ज्यादा है वही लेना होगा। यह पूछे जाने पर कि क्या तुम कुछ नही सोचते? मै क्या सोचूं? फिर एक लम्बा मौन। लगभग 80 प्रतिशत सामान्य साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले बच्चों को ऐसा कुछ उत्तर रहा।
         ये कैसी दयनीय स्थिति है? कैसी विडम्बना है जीवन आपका है और सोच, निर्णय किसी दूसरे का। कक्षा 9-10 तक आप स्वयं निर्णय ले सकने की स्थिति में नहीं। सब कुछ दूसरे आपके लिये कर देते है। आप प्रयत्नशील नहीं होते  है आप? यन्त्रवत काम क्यो करते है? क्यो उदासीन हो जाते है। अन्र्तमन से प्रेरणा क्यों नही आती आप में अपने लिये?
   आपका अपना जीवन है, भविष्य है, आपकी मेहनत है, यही समय हे कि आप इस दिशा में सोचना शुरू कर दे, अच्छे सुसंस्कृत लोगों से बातचीत विचारों का आदान प्रदान। खुल कर बात कीजिए। सूचानाओं के लिये कितने साधन उपलब्ध है आपके ही विद्यालय के स्तर पर। इण्टरनेट, कम्प्यूटर टी0वी0 चैनल अपनी सोचकी दिशा को उस ओर बदलिये सही गलत का विवेक पूर्ण विश्लेषण कीजिए अपनी योग्यता (कपैसिटि) या साम्यर्थ को पहचानिये इफ्ारमेशन का भण्डार आपके सामने खुला पड़ा है अधिक से अधिक लाभ उठाइये। विद्यार्थी जीवन को गंभीरता से लीजिए। बीता समय लौट कर नहीं आता। कम्पटीशन का युग है। अपने अदिश जीवन शैली की कल्पना की ओर उसे प्राप्त करने का साधन ढ़ूढिये और स्वयं को तैयार कीजिए। विद्यालय का सजग और जागरूक वातावरण तैयार करेगा आपके भावीजीवन की कर्म भूमि। यही समय है इसी आयु में आप अपना रास्ता बना सकते है।
   संघर्ष परिश्रम और आपकी अँतरबुद्धि ही सही मार्ग दर्शन करेगी। परिवार बन्धु-बान्धव शिक्षक शिक्षिकायें उसमें सहायक बनेगी।
    डा0 कैलाश गौतम की एक कविता का उल्लेख करना चाहँूगी।
मिट्टी के ढ़ेले से घड़े ने पूछा
मुझ पर जब पानी पड़ता है मै
गल जाता हूँ  घुल जाता हूँ पानी के संग बह जाता हूँ                                
लेकिन तुम मूर्तिवत खड़े रहते हो
घड़ा बोला, पात्रता के लिये मै
कुटा हूँ  पिसा हूँ आग में तपा हूँ
इसीलिये मै पानी से नही डरता
पानी मेरी सीमाओं में रहता है।
कितनी सुन्दर है ये कविता, भाव और संदेश
संघर्ष, धैर्य, सहनशक्ति और साहस और विवेक अन्ततः मनुष्य के आवश्यक गुण है।

                     

Sunday, January 12, 2014

SAMAAJ MEIN PARIWRTAN


                                                 समाज में परिवर्तन
                                                                              एक दिशा, सोच
    आधुनिक युग में भ्रष्टाचार, बेइमानी, धोखा विश्वासघात और छल-कपट से आगे बढ़ने की मदान्धता तीव्र मदान्धता के चरमोत्कर्ष पर पहँुच जाने पर ही अचानक नैतिक मूल्यों, मानवीय गुणों और धर्म के प्रति लोगों की आसक्ति और मोह अधिक बढ़ चला है। फलस्वरूप अक्सर ही इससे सम्बधित सभाओं, आयोजनों समीतियों का निर्माण हो रहा है गोष्ठियाँ हो रही हैं। धर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अपने-अपने माध्यम से चेतना जगाने का प्रयत्न कर रहे है। लाखों की संख्या में दर्शकश्रोता प्रवचन सुनने और मानसिक संतोष पाने के लिये बेचैन है।
    विभिन्न धर्मों के सुन्दर-सुन्दर सूत्र कागजों पर छपवा कर पं्रेफ्पलेट बाटे जाते है इस बात का हर संभव प्रयास किया जाता है कि बच्चों तथा बड़ों में भी आन्तरिक चेतना का, मानवता का विकास हों। सभी के कार्य और प्रयास प्रशंसनीय है।
    परन्तु इस क्षेत्र में लोगों के अन्र्तचेतना जागरण की प्रक्रिया इतनी मंद है कि कभी-कभी तो निराशा ही होने लगती है किन्तु क्या निराश हुआ जाय! नहीं।
    उस दिन युग निर्माण संस्था के द्वारा आयोजित महायज्ञ आयोजन में निमन्त्रित मित्रों के साथ उपस्थित थी। सामूहिक मंत्रोचारण, हवनकुण्डों से प्रज्वलित अग्नि में लोगों को हवन प्रक्रिया सुगधित पवित्र वातावरण। मन में स्वच्छ व सुन्दर विचार जगा रहे थे। लग रहा था सचमुच ही दुर्भावनायें इस धमराशि में विलीन हो रही है असीमशान्ति दायक
     किन्तु हवन समाप्ति के बाद जैसे ही मै उस ओर बढ़ी जहाँ तरह-तरह की किताबें, कागजों पर लिखे उद्बोधक सूत्र, तस्वीर बिक रही थी हर स्टाल पर खरीदने वालों की देख-देख कर आगे बढ़ रहे थे और यह कहते कुछ संभ्रान्त आगे बढ़ रहे थे’’ दीवालो में चिपाकाकर, दफतरों और कारखानों के बोर्ड मे टाँगकर क्या करेंगे भाई। ये सब बाते आज के जमाने की नहीं है काजल की कोठरी में भी क्या कोई ऐसा टिनोपाल का पुतला टिक सकता है? भाई ऐसा कुछ दीजिए जो हमें व्यवहारिक रूप में सफल बना सके सब तो किताबी है।
     थोड़ी देर के लिये मै उक्त उज्जन को देखती ही रह गई। कितनी विरक्ति ऐसी तिरक्तता? शायद कोई जीवन का कटु देश ही होगा। शायद मध्यम वर्गीय परिवार का मध्यआयु वाला चोट खाया ही कोई होगा जो बड़े लालयित नेत्रों से उन पोस्टरों में कुछ ढ़ूढने की कोशिश कर रहा था। मुझसे रहा नही गया पूछा ही बैठी भाई साहब सब लोग धर्म विश्वास और ईश्वर की ओर बढ़ रहे है और आप---। बातचीत के दौर पता चला वह उच्चपदासीन अफसर थे जिन्होंने घूस लेने से इन्कार किया था। और उस घूस देने वाले करोड़ों के मालिक ने धमकी देते हुये कहा था’’ बड़ी खुशी से पकड़वा दीजिये मुझे और अपने कत्र्तव्य की रक्षा कीजिए। मै आपकों कुछ नहीं करूँगा मगर आप ही के अन्य साथी जिन्होंने इस काम में मेरा साथ दिया हैं इसमें मिले हुये है आपकों जीवित न छोड़ेगे। बात भी सही ही थी। वह उच्च अधिकारी दर-दर ठोकरे खाने के लिये नौकरी से निकल जाने के लिये बाध्य हुये।
     ये कहना कि बचपन से बच्चों के अन्दर नैतिकता के बीज बोये जाये जो बड़े हो कर पनपेंगे और समाज तथा समाज के मानवीय स्तर को ऊँचा उठायेंगे है तो बड़ा आदर्शात्मक उसकी जड़े भी काफी गहरी और मजबूत होगी। परन्तु सत्यता तो यह है कि नये पौधे बढ़ने से पहले ही समाज के कथाकथित महान ठेकेदारों द्वारा कुचल दिये जाते है। इससे पहले कि नये स्वच्छ समाज का निर्माण वे कर सके वे नये जीवन के भ्रम की चकाचैंध में खो जाते है।
    आवश्यकता है कि उन्हे यह भी युक्तियाँ मालूम हो कि इस विषय चक्रव्यूह से सफलतापूर्वक अपने निकल कर आदर्शों का परचम किस प्रकार लहराया जा सकें? उन्हे अपने आदर्शों मंे हर हालत में सफल होकर भ्रष्टाचार को पराजित दिखाना ही होगा। तभी सारे प्रयास सफल होंगे। वैसे जहाँ इस प्रकार के प्रयास कुछ-कुछ स्तर पर जारी शुरू हुये है। वहाँ उनकी सफलता का प्रसार जानकारी कम संख्या में उपलब्ध है। परन्तु सुझाव मात्र है कि जिस प्रकार वटवृक्ष की लम्बी जटाये वृक्ष के ऊँपरी भाग से लटककर जमीन में गहरी वह मजबूत जड़े बनती है उसी प्रकार समाज परिवर्तन की प्रक्रिया ऊँपर नीचे दोनों दिशाओं में क्रियाशील हो, तो अपेक्षित परिवर्तन होने में अधिक समय न लगेगा।
    बड़े-बड़े पूँजीपतियाों कल कारखानों के मालिक चेयर मैन डायरेक्टर जिनके पास यह शक्ति है कि वे किसी के भी भाग्य का वारान्यारा कर सकते है उन्हे जाग्रत करना होगा। उन्हे विश्वास कर इस क्षेत्र के लिये उन्मुख करना कही अधिक व्यवहारिक होगा तथा उसके परिणाम तुरन्त दिखाई देंगे अपेक्षा इसके कि जमीन को खोद कर नींव ही बदली जाये।
    यदि हर मालिक यह निश्चय कर ले कि सत्यता इमानदारी कार्य कुशलता, नैतिकता के धनी व्यक्ति को अपनी-अपनी संस्था से खोज-खोज कर अधिक से अधिक संख्या में उजागर करें मान्यता दे ंतो वहीं अन्य लोगों के लिये आदर्श और ईष्र्या का विषय प्रेरक बनेगा। सही दिशा में सोचने के लिये लाग बाध्य होने लगेगें और जब लोगों को इसकी प्रमाणिकता व्यवहारिक जीवन में अधिक से अधिक मिलने लगेगी तो समाज में परिवर्तन होने में समय न लगेगा। बचपन से लोगों में सही गलत का ज्ञान, मानवीय गुणों, नैतिकता के बीजों का रोपण, समाज में आदर्शों और शाश्वत सत्यों की सफलता और मान्यता यह परिवर्तन ऊपर, नीचे अगल-बगल चाारों-ओर से होगा और इसके हवा, पानी में ये कोमल होंगे लहलहायेंगे और कोई भी भ्रष्टाचार, बेइमानी, षड्यंत्र का प्रचण्ड झोंका उन्हें मुरझा नहीं सकेगा।

   

BACHCHON MEIN ANUSHASHAN


                                                              बच्चो में अनुशासन
     पाँच वर्ष तक आयु तक बच्चों का बहुत ही प्यार दुलार से लालन पालन करना चाहिये। लगभग छः वर्ष से दस वर्ष तक उनमें सामान्य अनुशासन सिखाना चाहिये तथा उसके बाद मित्र के समान आचारण और व्यवहार करना चाहिए। यह विचार है हमारे भारत के प्राचीन बड़े बुर्जुग और नीतिशास्त्रियों के। जिनका उल्लेख संस्कृत के नीति श्लोकों में मिलता है। यदि आज के सन्दर्भ में इसे जोड़ा जाय तो यह सिद्धांत हमारे वर्तमान के उदण्ड और उच्छंखल होते बच्चो के लिये करगर सिद्ध हो सकता है।
      आजकल प्रायः माता-पिता शुरू से लेकर 10-12 वर्ष तक उसे हर तरह से प्यार दुलार कर उनकी हर इच्छा और डिमाॅन्ड को पूरा कर आत्मसंतुष्टि का अनुभव करते है किसी भी गलत आचरण को टोकना ही नहीं चाहते समझ कर तर्क नहीं देना चाहते और अगर देते भी है तो उस स्तर को नही छू पाते कि बच्चा अपना निर्णय बदल सके। फलस्वरूप वह बच्चा ना सुनने का आदी नहीं होता और जिद्दी हो जाता है।
      खाने, पीने, खेलने, चीजों के खरीदने, दुकानों में मचलते, यहाँ तक कि जिद में आकर दुकानों पर ही कुछ बच्चे-बच्चे लोट जाते है और तमाशा खड़ा कर देते है यह क्यों? इसलिए कि उसने अभी तक ना नहीं सुना है।
      वह उस चीज को स्वीकार नहीं कर पाता छोटा होने के कारण उसकी हर जिद पूरी हुई है। जीवन संघर्ष है कभी हार तो कभी जीत हर चीज हर समय इच्छा के अनुसार नही मिल पाती इसलिए हमें यह प्रयत्नशील होना चाहिए कि जहाँ हम यह चाहते है कि बच्चा मोटीवेटेड रहे वहीं बीच-बीच में हमारी कोशिश यह  होनी चाहिए कि उसे हार का स्वाद चखने की भी आदत पड़े जिससे कि वह वास्तविक जीवन में हतोत्साहित व निराश न हो।
      प्रायः कामकाजी माता-पिता सुबह से शाम तक व्यस्त रहते है। महगाइ और महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये दोनों ही अभिभावकों का काम करना भी जरूरी है बढ़तें तनाव और एकल परिवार के कारण कोई विकल्प न होने से माता-पिता अपने समय न दे पाने के ‘‘गिल्ट’’(अपराध बोध को) उनकी हर गलती को डर कर मान कर, आवश्यकता से अधिक सुविधाये और सामान देकर दूर करना चाहते है जो मेरे विचार से बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिये हानि कारक हो सकता है।
      छः से 10 वर्ष तक का समय अनुशासन आदते और व्यवहार तौर करीके अपने संस्कारों को सिखाने का होता है यह उनके (6-10 वर्ष) भविष्य के नींव पड़ने का समय है। यदि सिखाने की प्रक्रिया में कुछ कठोरता माता-पिता के विशेष क्रियात्मक सहयाोग की जरूरत होती है।
     इस समय अभिभावकों को अपने व्यवहार को भी बहुत संतुलित और आदर्शात्मक रखने की आवश्यता होती है। बच्चा जो देखता है वही सीखता है प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सब कुछ।
     माता-पिता का एक दूसरे के प्रति सम्मान अच्छी भाषा, सम्बोधन, विनीत और संवेदनशील व्यवहार शान्त साफ सुथरा घर का वातावरण बच्चों के दिन प्रतिदिन के कार्यक्रमों और कामों में प्रेम पूर्ण सहयोग आदि उसे जिद्दी, उदण्ड और उच्छ्खल होने से बचा सकते है। वह एक संवेदनशील प्यारा सावधान जिज्ञासु बच्चा बन सकता है। खेल कूद, कराटे, फुटबाल, व्यायाम म्यूजिक के प्रति रूचि और हाॅबीज जगाने की यही सही उमर है। ये पाँच वर्ष- अभिभावक (माता-पिता) के लिये भी बच्चो को एन्जाॅय करने के है।
     उसके बाद शुरू होता है व्यक्तित्व के विकास का दूसरा चरण। जिसमें माता-पिता की भूमिका उनके घनिष्ठ मित्र की तरह होती है।
                                    ‘‘दषवर्शाणि पष्चात् मित्रवत् आचरेत्’’