Saturday, March 27, 2010

हिसाब -किताब

मैं एक डाक्टर हूँ .शुरू होता है मेरा दिन लगभग ७;३० बजे सुबह .पता नहीं ज्यादातर लोगों का यह विचार है की आज के डाक्टर संवेदनहीन और निर्दयी हो गये हैं ऐसे लोगों को डाक्टर नहीं बनना चाहिए जिनमें सहानुभूति और अपनापन न हो .लोग भगवान् मानते हैं हमें .मगर क्या सच में हम भवान का दर्ज़ा पा सकतें हैं? नहीं .इंसान को इंसान ही रहने दिया जाए भगवान् नहीं । लोंग यह क्यों नहीं समझते ?अभी मुझे निकलने में दस मिनट बाक़ी हैं .अचानक फोन की घंटी बज उठी .रिसीव करूं की न करूं --सोचता रहा क्योंकि निकलने का समय हो रहा था .घंटी बजती रही --बजती रही .अंत में मैंने उठा ही लिया ।

हेलो ---डाक्टर साहब ----रखियेगा मत फोन -----मैं मिसेज सिंह -अनिता -राहुल की माँ --राहुल बहुत तकलीफ में है दैलैसिस 'हफ्ते में तीन बार .दस साल से कितना दुःख भोग रहाहै ?अंत समय आ गया है क्या?तड़प तड़प कर ,तिल तिल कर मरते देखा नहीं जाता .वह जीना chahta है -वह जीना चाहता है फोन सुन रहे हैं न ? प्लीज़ ----- मैं बस यही बोल सका "घबराइये मत मैं अभी आ ही रहा हूँ "मैंने निर्लिप्त भाव से रिसीवर रख दिया ।

राहुल --- राहुल एक नया" पेशंट ' आया है डायलेसिस का -- हफ्ते में तीन बार .काला ,दुबला पतला ,कंकाल .किन्तु चमकतीं आँखें ,उम्र लगभग २५ वर्ष । मुझे याद है यह "राहुल "क्योंकि उसके पापा ,मम्मी भाई सुंदर सी भाभी सब अपने परिवार के इस सदस्य को जिन्दगी के लिए मौत से संघर्ष करते देख रहें हैं पैसा पानी की तरह बह रहा है .एक दूसरे की भावनाओं को समझते हुए आशा और सद्भावनाओं से राहुल को दुलराते सहलाते उनकी सुबह से शाम होती और शाम से फिर सुबह .हर परेशानियों को सहते हुए । सारा संघर्ष उस प्राणी की सेवा के लिए .

पर मेरे लिए वह मात्र मेरा "पेशेंट "है कैसे मैं जुड़ सकता हूँ भावनात्मक रूप से । रोज़ ही तो आतें ऐसे सीरियस पेशेंट्स " जीवन की आशा लिए ,कोई बच जातें हैं तो किसी की सांस की डोर टूट जाती है .पल भर को परिवार स्तब्ध .आंसू यंत्रवत सूख जाते हैं .एक 'चारपाई "से शरीर हटाया जाता है ,चादर बदला जाता है और प्रतीक्षा सूची का दूसरा रोगी उस बिस्तर पर लिटा दिया जाता है .पिछले वाले रोगी की यादें मिटनें लगतीं हैं वर्तमान दिखाई पड़ने लगता है .दिमाग और दवाएं , ड्रिप लगाना .रूटीन चेकप . सब कुछ मशीन की तरह यंत्रवत ।

कोई क्यों नाहीं समझता मेरी पीड़ा मेरा तनाव । सोचते सोचते एक जोर का झटका ---ब्रेक --सामने त्रोलीवाला बच्चों से लदी ,भरी ट्राली को रास्ता पर करा रहा था । मुख से एक गंदी भद्दी सी गाली निकलते निकलते बची । मैं चौंक उठा "ओह गौड़.चमत्कार .दुर्घटना होते होते बची .एक ज़ोरदार घुमाव के बाद मैं अपने नर्सिग होम में था। मुख पर सौम्य भाव लाते हुए हाथ जोड़ कर विनीत भाव से मैं तेज़ी से अपने कमरे में चला गया .पीछे पीछे दौडती परिजनों की भीड़ .कम्पाउदर की उनसे रूखी बात चीत सुन कर भी मैं कमरे में ही रहा........... क्रमश:

Thursday, March 25, 2010

मेरी गौरैया

मेरे घर उपवन में ,फूलों में ,और
पौधों के बीच ,झूले पर झूलते ,
गौरैये के झुण्ड को मैं ,
अक्सर देखती हूँ .मेरी बेटी ,
मेरी सों न चिरैया ---
मुझे तुम बहुत बहुत याद आती हो ,
मैं जानतीं हूँ तुम दूर बहुत दूर
सात समुन्दर पार ,
ऐसे ही अपने उपवन में
फूलों से घिरी सोच रही ,होगी
बीते दिनों की यादों में , खोई
बचपन के दिन खोज रही होगी
ओह कितना प्यारा है यह कलरव ,
मेरे घर आँगन में .मेरे उपवन में
ये रुनझुन ये गुनगुन , ,मेरी बेटी
hमेरी सोनचिरैया ,मेरी गौरैया .

Friday, March 19, 2010

स्वतंत्र भारत --क्रमश:

ऐसे वातावरण को तभी परिवर्तित किया जा सकता है जब हम शिक्षा द्वारा शाश्वत मूल्यों के महत्व को समाज में स्थापित कर सकें .हर अगली पीढी अपनी पिछली पीढी की अपेक्षा शाश्वत मूल्यों में अपनी आस्था खोती जा रही है.इस मूल्य विहीन होते राष्ट्र को बचाया जा सकता है केवल मूल्य परक vयवहार से जिसे देने का दायित्व परिवार, शिक्षालय .,व समाज का है. परिवार का वातावरण ,माता पिता का आचरण उनका प्रेमपूर्ण आपसी सम्बन्ध ,छोटेओबुज़ुर्ग के प्रति उनका सद व्यवहार ,पड़ोसियों के साथ अच्छा ताल-मेल आदि बालक में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न करतें हैं .क्योंकि बालक का मन कच्ची मिट्टी के समान होता है .उस पर जो आकृति बना दी जाती है वह जीवन पर्यंत नहीं मिटती।
इसके बाद विद्यालय की भूमिका आती है मूल्यों की शिक्षा पुस्तकों ,प्रवचनों से छात्र ग्रहण या आत्म सात नहीं करते .आदर्श को देखना.उसे सुनने की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होता है.इसीलिए वह सहज अनुकरणीय बन जाताहै.आदर्श शिक्षक अपने कार्य और जीवन शैली से शिक्षार्थी को प्रभावित करता है .और वे मूल्य जिन्हें वह शिक्षक स्वयम आत्मसात कर चुका होता है उन्हें आत्मसात करने के लिए बालकों में इच्छा उत्पन्न कर देता है यही वास्तविक मूल्यपरक शिक्षा होगी ।बाहिय { baahrii} रूप से यदि हम देखें तो इन विगत वर्षों में भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धियों से आम आदमी का जीवन भले ही बेहतर हुआ है किन्तु समग्र रूप में व्यक्ति और जीवन शैली में असंतुलन बढ़ा है .जो चिंता का विषय है सकारात्मक सोच और क्रियाशीलता पर भौतिकता और धन की महत्ता का प्रभाव नकारात्मक दिखाई पड़ने लगा है .विभिन्न आंकड़े यह दर्शाते है की प्रगति समाज ,देश ,और सब जनों में समान रूप से नहीं हुई है .अधिकतर सामान्य स्तर के लोग मानसिक तनाव और दोहरी मानसिकता के दंश
को झेलते हुए जी रहें हैं .उनके जीवन में परिवर्तन आया तो ज़रूर है मगर वह सुख शांती प्रदान करने वाला व प्रशंसनीय नहीं है .

Wednesday, March 17, 2010

स्वतंत्र भारत

भारत के स्वतन्त्रता की कहानी लगातार संघर्ष ,अथक प्रयासों ,एवं बलिदानों की कहानी है. पन्द्रह अगस्त को भारतएकस्वतंत्र देश घोषित कर दिया गया .अऔर उसी दिन से प्रति वर्ष हम अपनी मिली हुई आजादी को बनाए रखने का संकल्प करते हैं . देश की प्रगति का लेखा- जोखा करतें हैं . विचार विमर्श करतें हैं . अऔर फिर से जागरूक व सतर्क रहने के लिए तैयार होतें हैं.की फिर किसी गलती या भूल के कारण अनेक संघर्षों के बाद मिली आजादी को खो न दें . आजादी को मिले इकसठ साल पूरे होने जा रहें हैं सभी भारतीयों के ।मन में यह विश्वास था की अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर देश प्रगति करेगा. आदमी सुखी अऔर संपन्न होगा तथा समाज पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति को अपनाएगा .नईक्रान्ति के साथ नया समाज और नए विचार देश का बहुमुखी विकास करेगें .पर स्तिथी इसके विपरीत दिखती है ।
यह प्रपंचवाद का युग है ,घोटालों का युग है, नारे और विज्ञापनों का युग बन गया है .आज एक ऎसी उपभोक्तावादी संस्कृति अपने पैर पसार रही है जिसने हर वस्तु को उपभोग बना दिया है .यहाँ तक की धरोहर के रूप में मिले उच्च जीवन मूल्यों को भी अवसरवादी मानसिकता , सुविधा भोगी जीवन ने " भ्रष्टाचार " को "शिष्ट" आचार बना दिया है. जिस बदलाव और प्रगति की आकांशा थी वह परिणाम पारिवारिक, सामाजिक, और राजनीतिक विघटन में दिखाई पड़ता है.आज देश में गांधी,विनोबा भावे ,और स्वामी विवेकानंद जैसे कोई कद्दावर नेता नहीं हैं जो राष्ट्र को एक नई दिशा दे सकें .क्या यह घोर अनैतिकता नहीं है ?की जिस पदवी या कुर्सी के लिए हम योग्य नहीं हैं उस पर कूद कर जा बैठें हैं?