Friday, March 19, 2010

स्वतंत्र भारत --क्रमश:

ऐसे वातावरण को तभी परिवर्तित किया जा सकता है जब हम शिक्षा द्वारा शाश्वत मूल्यों के महत्व को समाज में स्थापित कर सकें .हर अगली पीढी अपनी पिछली पीढी की अपेक्षा शाश्वत मूल्यों में अपनी आस्था खोती जा रही है.इस मूल्य विहीन होते राष्ट्र को बचाया जा सकता है केवल मूल्य परक vयवहार से जिसे देने का दायित्व परिवार, शिक्षालय .,व समाज का है. परिवार का वातावरण ,माता पिता का आचरण उनका प्रेमपूर्ण आपसी सम्बन्ध ,छोटेओबुज़ुर्ग के प्रति उनका सद व्यवहार ,पड़ोसियों के साथ अच्छा ताल-मेल आदि बालक में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न करतें हैं .क्योंकि बालक का मन कच्ची मिट्टी के समान होता है .उस पर जो आकृति बना दी जाती है वह जीवन पर्यंत नहीं मिटती।
इसके बाद विद्यालय की भूमिका आती है मूल्यों की शिक्षा पुस्तकों ,प्रवचनों से छात्र ग्रहण या आत्म सात नहीं करते .आदर्श को देखना.उसे सुनने की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होता है.इसीलिए वह सहज अनुकरणीय बन जाताहै.आदर्श शिक्षक अपने कार्य और जीवन शैली से शिक्षार्थी को प्रभावित करता है .और वे मूल्य जिन्हें वह शिक्षक स्वयम आत्मसात कर चुका होता है उन्हें आत्मसात करने के लिए बालकों में इच्छा उत्पन्न कर देता है यही वास्तविक मूल्यपरक शिक्षा होगी ।बाहिय { baahrii} रूप से यदि हम देखें तो इन विगत वर्षों में भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धियों से आम आदमी का जीवन भले ही बेहतर हुआ है किन्तु समग्र रूप में व्यक्ति और जीवन शैली में असंतुलन बढ़ा है .जो चिंता का विषय है सकारात्मक सोच और क्रियाशीलता पर भौतिकता और धन की महत्ता का प्रभाव नकारात्मक दिखाई पड़ने लगा है .विभिन्न आंकड़े यह दर्शाते है की प्रगति समाज ,देश ,और सब जनों में समान रूप से नहीं हुई है .अधिकतर सामान्य स्तर के लोग मानसिक तनाव और दोहरी मानसिकता के दंश
को झेलते हुए जी रहें हैं .उनके जीवन में परिवर्तन आया तो ज़रूर है मगर वह सुख शांती प्रदान करने वाला व प्रशंसनीय नहीं है .

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