Sunday, January 27, 2013

Aaj Aur Hum

आज और हम
    कहा जाता है कि, ईष्वर की सबसे सुन्दर श्रेष्ठ बुद्धिमान और विवेकी रचना है मनुष्य और यह भी सच है कि जरूरतें नये-नये आविष्कारों को जन्म देती हैं। परिवर्तन जीवन है सुख सुविधाओं का आकांक्षी मनुष्य लगातार नई-नई चीजे बना रहा है और स्वयं को वैज्ञानिक, प्रगतिवादी सिद्ध करता ही जा रहा है लेकिन यह सुविधाभोगी मानसिकता उपभोगवाद या सिद्धांत क्या वास्तव में हमें सही दिशा की ओर ले जा रहा है? इस सुविधभोगी उपभोगवाद ने हमें हमारे समाज को किस पतन की ओर ढ़केल दिया है-आइये देखे और समझे कि यह कैसे हमारी सुन्दर संस्कृति को अपसंस्कृति में, सोच को विकृत मानसिकता में बदल रहा है और दीमक की तरह जीवन को खोखला करता जा रहा है।
      निरन्तर नये-नये आविष्कार गाड़ी, मोबाइल, कार लैपटाप, भोजन मे पीजा बरगर, डिब्बाबन्द भोजन के नये-नये पकार, शारीरिक श्रम व समय को बचानें के लिये वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि उपकरण जहाॅं एक ओर हमारी शक्ति और समय बचाते है वही दूसरी ओर बचाई गई शक्ति और समय से क्या हम अपना और प्रकृति दत्त सुविधाओं से तालमेल बैठा पा रहे है? नही....प्रकृति के दोहन से हम उससे दूर ही होते जा रहे है। हम आज सुविधावादी भोगवाद में आकंठ डूब गये है। इसने कितनी मानसिक विकरों इष्र्या द्वेष, लूट पाट, आदि को बढ़ावा दे दिया है नतीजा है कि हमारा नजरिया ही बदल गया है।
       अगर सुविधा लेना और पाना ही हमारी इच्छा है आराम हमारा उद्देश्य है तो समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान का मापदण्ड महंगी गाडि़याॅं, धन सम्पत्ति, महगे मोबाइल आधिक से अधिक क्यों चाहने लगा है व्यक्ति एक सामान्य सा मोबाइल सुविधा और आवश्यकता दोनो ही पूरा कर सकता है फिर वह ब्लैकबेरी की ओर क्यों भाग रहा है। एक से संतुष्ट क्यांे नहीं? एक गाड़ी की जगह चार गाड़ियाँ, एक की जगह फोन को निरन्तर बदलते रहने की ललक और प्रदर्शन चाहे उसकी जरूरत हो या न हो। क्यों लगातार है कि यदि उसके पास अधिक से अधिक महंगे उपकरण, महंगी जीवन शैली पैसे से स्वयं को श्रेष्ठ प्रतिष्ठित होने को गर्व की अनुभूति। बस यही है आज के सामाजिक जीवन का आधार। आजा का सामाजिक जीवन मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की मानसिकता और फिर ऐसा करने में वह आस- पास से कट कर अकेला भावनात्मक रूप से टूटता ही क्यों न जाय? इस बात से भी इनकर नहीं किया जा सकता कि यह असंतुलन केवल 20-25 प्रतिशत लोगों की है लेकिन उनका प्रयोग इतनी अधिक मात्रा में है कि सामान्य 80 प्रतिशत भी उससे प्रभावित होता है और वैश्विक स्तर पर छा जाता है।
      क्यों हो रहे है इतने अपराध! क्यों बिगड़ रहे है बच्चे क्यों परेशान है माता पिता परिवार! असुरक्षा का भय, भविष्य की चिन्ता और अधिक से अधिक धन बटोर लेनी की जुगत। सुख-चैन आत्म हत्यायें, तनाव न सहन करने के कारण, इसी भौतिकवाद से उत्पन्न प्रभाव है जिनके मकड़ जाल में फॅंसा मनुष्य न स्वयं जी रहा है और न दूसरों को जीने दे रहा है। छटपटा कर जब निकलना चाहता है तो कोई रास्ता नहीं दिखता।
      न कोई विज्ञापन, न कोइ सलाह! इस उपभोगतावाद के वर्तमान स्वरूप में अमूल्य परिवर्तन नही किया जा सकता क्योंकि यह मनुष्य के स्वभाव पर आधारित और जुड़ी हुई। हाँ  इतना जरूर है कि आत्म-अवलोकन से स्वयम को समझाते हुए इसे कम जरूर किया जा सकता है। व्यक्तिगत प्रयास ही कारगर होगा।

Subh Sanket



    शुभ  संकेत

   हम लौट रहे है हाँ  -अपनी जमीं अपनी संस्कृति और दर्शन ने हमें वापस बुला लिया है। भौतिकता की तेज रफ्तार सोच ने हमारे मन मस्तिष्क को ऐसा छा लिया था कि हम भ्रमित और सशंकित थे। भयभीत थे। समय का पहिया घूम रहा है। अपनी पुरानी संस्कृति और विचारों को तर्क बुद्धि और व्यवहारिकता की कसौटी पर खरा उतर कर अपनी सत्यता को प्रमाणित कर दिया है। विचार प्रभावित करने लगे है। वातावरण चाहे सामाजिक हो आर्थिक हो या राजनैतिक जागरूकता की लहर दौड़ पड़ी है। भौतिकता दिखावा धन दौलत वैभव को चमक-दमक  फीकी पड़ने लगी है एक वर्ग या समूह ऐसा विकसित हो रहा है जो सोच रहा है सम-हजय रहा है उसे दिन प्रतिदिन के जीवन में व्यवहार में उतार रहा है पाप का घड़ा अब भर गया है फूटने को है। वह अपनी चरम पर है जहा से प्रत्यावर्तन होता है। अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुचने वाला भ्रष्टाचार का सच्चा रूप सामने खुल पड़ा है शर्म को भी शरमिन्दा कर इस भ्रष्ट आचरण ने सबकी नही तो कुछ लोगों की आखें जरूर खोल दी है। सच ही तो कहा गया था भगवान की लाठी में आवाज नहीं होती। कब किस अन्याय का फल किसके सिसकियों की आह किसरूप में कहर बरसाये किसी को पता नहीं हैं।

     कितनी अनहोनी घटनाये किसका फल है किसी को पता नही है। तन, मन, घन से शान्ति के लिये भटकते मन अकेले पड़ कर उन रहस्यों का परदा हटाने में लगा है कर्म काण्डों को हटा कर मूलभावना, विचार को समझ करमूल शिक्षा को अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर रहा है यह एक शुभ संकेत है हम लौट रहे है अपनी सभ्यता और संस्कृति की गरिमा की ओर जमीं से जुड़ने के लिये।    

Sunday, January 13, 2013

main bada ho gaya huin papa



                                                           ‘‘मै बड़ा हो गया हूँ   पापा’’

              

               जैसे-जैसे मैट्रिक  की परीक्षाफल का समय निकट आ रहा था मैं राहुल के व्यवहार में एक अजीब सा   उलझन   भरा परिवर्तन देख रही थी। अल्हड़, बिन्दास, चंचल राहुल अचानक ही कभी गम्भीर बुजुर्ग का सा आवरणओढ़   लेता और ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता जैसे घर का बड़ा बूढा  हो और कभी चंचल सबसे छोटा चुलबुल स्कूल का शोख लड़का। दोनों का मिश्रण, मानो चैराहे पर खड़ा किस ओर जायें की   उलझन     । उन्मुक्त आकाश में पंख फड़फड़ा कर उड़ने के लिये तैयार।अशक्त होते हुए भी अदम्य साहस और शक्ति से भरा होने का आत्मविश्वास। एक ही उड़ान में सारे आकाश को नाप लेने का सपना।

                  जिस दिन आखिरी परचा था। आते ही कमरे में कापी किताब मुझमे बें एक ओर फेंकते हुए जोर से कहा था-‘‘मेहनत  मैं कर सकता था मा  मैन किया अब क्या डिवीज़न  आयेगा मैं नही जानता। लेकिन यह जरूर जानता हूँ कि आई हैव done my best .  इससे ज्यादा की capacity मुझमें  नहीं है’’।

                  अब अक्सर मैं देखती हूँ  सब कुछ शान्त है पंखा छत पर अबाध गति से अनवरत चल रहा है और एकटक उस ओर देखता राहुल न मालूम किन सपनों में खोया है। शायद दिवा स्वप्नों का सुनहला संसार  आँखों     में रच बस रहहै। कहानी की, मैगजीन का कोई पन्ना  के सामने खुला है औधे मुँह     लेटा है पैर धीरे-धीरे हिलाता नाखूनों को दातों से कुतरता न मालूम क्या गुन सुन रहा है। आखें जरूर मैगजीन पर है पर मन कहीं और।

                  दूसरी ही दुनिया में खोया सा लगता है। 15-16 वर्ष की आयु। शुरू से ही साथ रहा है, अपने से अलग करने का कभी मौका भी तो नहीं लगा। एक साल बड़ी बहन कान्ता। वही साथी, सहेली, बहन, लड़ाई-झगड़ा  प्यारदुलार, मान-मनुहार सब कुछ एक दूसरे से ही। कभी कुछ और आवश्यकता संगी साथियों की महसूस ही नहीं, हुई शायद। मम्मी पापा दोनों से ही मित्र की तरह खुलापन और स्नेह। राहुल के पापा भी इस परिवर्तन को महसूस कर रहे हैं। गुमसुम सा राहुल कुछ चुपचुप कुछ गम्भीर। इसे कहीं बाहर घूमने के लिये भेज देना चाहिये। तीन महीने के बाद रिजल्ट निकलेगा। कुछ न करने से तो एकदम dull हो जायेगा। यही ।हम ठीक है बाहरी रिश्तेदारों,भाई बहनों से मिल आयेगा। कुछ न कुछ सीखेगा ही बींदहम हो जायेगा क्यों न बम्बई और दिल्ली अपने चाचा तथा जीजी के पास हो आवें और राहुल ने भी कोई उज्र नहीं किया।

                   2 महीने क अन्तराल के बाद राहुल आया तो मुझे  बड़ा बदला-बदला सा लगा। कुछ बड़ा-बड़ा सा। शायदवहाँ  रहकर उसने किन्हीं मन के व्याकुल क्षणों में ओठों के उपर उग आये कोमल बालों को कैंची से काट कर चिकना करने की कोशिश की हो और साफ होने के बजाय काले धने बालों के जंगल से उग आये थेमसें भीगने लगी थी। एक अजीब सा लावण्य आ गया था चेहरे पर नमकीन, सलोना, भोला, कुछ -     झिझका , कुछ ठिठका, हाथ की कलाइयाँ गोलगोल होने लगी थी। पीठ के पुट्ठों में मासंलता के कारण बदन भरने  सा लगा था। चैड़े कन्धे, मानो धीरे-धीरे एक आदमकद विकसित पुरूष का व्यक्तित्व प्रस्फुटित हो रहा था।

                   कितना सुखद लगता है बच्चों का बड़ा होना, अच्छे व्यक्तित्व में उभरता, समझदार  , सहिष्णु और जागरूक बनना। मानो वह अपने पापा का ही प्रतिरूप हो उठा था। चाल ढाल       उठना  बैठना            सब   पा कुछ  पापा      जैसा  बार बार न्यौछावर हो उठता है मन     साथ ही साथ यह भी अहसास दिला जाता है कि समय कितनी तेजी से बीत     रहा है या  कहें भाग रहा है। एक की आखों के सामने उगता सूरज है, उज्वल भविष्य का सपना है, उन्मुक्त प्रशस्त मार्ग है, और दूसरी ओर गहरा अवसाद स्वयं माता पिता के बूढ़े

                   राहुल ने करवट बदल कर बिस्तरे पर लेटे-लेटे  ही देखा अब चारों ओर का यह बदरंग कमरा उसे रंगों से भरा सुन्दर एवं आकर्शक लगने लगा है। अबकी जब से वह चाचा और जीजा के पास से तीन माह के लगभग रह कर लौटा है उसे सारा घर ही बदला-बदला लग रहा है। मम्मी पापा सब में कुछ बदलाव है कहीं उसमें स्वयं अपने में कोई बदलाव तो नहीं आ रहा है? अब वह मम्मी की पुकार  पर पहले की तरह   चिल्ला नहीं उठता, चीख कर जवाब क्यूँ  नही देता? अब उसे कयों लगने लगा है कि उसका अपना व्यक्तित्व है, स्थान है, व्यक्तिगत अहम् है। अब उसे फ्रिज से समान निकाल चुराकर चुपचाप खा लेने अकेलेअकेले में मजा नहीं आता। अब अपने बहन से छोटे-बड़े आम के लिए घण्टों झगड़ा करने का मन नहीं करता। कापी, पेन्सिल, खीर, मिठाई, टाफी, चाकलेट हर चीज के बटवारे में कितना रो-धोकर

झ गड़ा कर यहा तक की मारपीट की भी नौबत आ जाती थी। कुछ भी काम बराबरी के हिस्का-हिस्की से ही होता था कलम, पेन्सिल, रबर पर भी घण्टों बहस हो जाया करती थी मैंने क्या किया और कान्ता ने क्या किया? इसकी फेहरिस्त बनती थी निर्णय के लिये पापा के पास रखी जाती थी। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता था किझगड़ा -        न हो। पापा कहते यह क्या मैं जब भी आफिस से लौटता हॅ लगता झगड़े       घरमें  आ गयाहूँ  अब तुम लोग बड़े हो रहे हो। ये दिन लौट कर नहीं आयेंगे। माँ  बाप को समझ ने  बू झने  की, मदत  करने की यही सबसे अच्छी       उमर  है। भाई बहन के प्रेम  की यह इमेज हम है हर पल, हर क्षण को      अन्जोय  करो।  कुछ  दिनों       के बाद तुम लोग अलग-अलग चले जाओगे। बहुत रोओगे        बहुत       मिस  करोगे एक दूसरे को।

                    और   हाँ सच ही तो मेरा मन कान्ता से लडने  झगड़ने को नहीं करता अब मैं कामों  की फेहरिस्त बना कर बा टना नहीं चाहता। मैं तो चाहता हूँ , मैं कुछ करूं  सबके लिये। जैसे पापा करते हैं सबके लिये। मैं कुछ करता चाहता हूँ । जब  सिनेमाँ    में    किसी भाई को देखता हूँ  किसी बेटे को देखता हूँ    तो मेरा   रूयाँ -  रोयाँ भी व्याकुल हो उठता है मैं कुछ अच्छा कर सकूं । मै बड़ा हो गया हूँ ।  कार      चलाते समय पापा की सीट पर बैठते ही मुझे  लगता है मुझे  भी पापा की तरह बनना है कुछ प्राप्त करना है। मैं जरूर बड़ा हो गया हूँ धरती से आकाश को नाप सकने योग्य।

Sunday, January 6, 2013

apnaa ghar



                       अपना घर                    

    उफ पन्द्रह         दिनों     से   लगातार    सामानों की पैकिंग करते- मानों कमर ही टूट गयी हो। रिटायरमेंट के बाद प्रायः जीवन कितना खाली और बेगाना सा हो जाता है। कितने शौक से यह घर बनवाया था। हमने राची के इस पाश कलोनी में अपना घर दस वर्ष बाकी थे तब सरविस के एक या दो बेडरूम में काम कैसे चलेगा कम से कम तीन बेडरूम तो होने ही चाहिए और एक गेस्टरूम तो होने ही चाहिये और एक गेस्टरूम एक रानी के लिए, एक राजू पप्पू का और एक हम लोगों का यानी        मिस्टर   एंड       मिसेज  प्रकाश का। ऐसा लग ता था इससे कम में तो हो ही नहीं सकता औकात से ज्यादा लोन लेकर सजाया सँवारा     घर। बाथरूम में मार्बल, सफेद संगमरमर टाईल्स। बड़े से लान के लिए खुली जगह, अगल बगल सुन्दर फूलों की क्यारियों की जगह। मखमली घास के लाॅन को आहलादकारी कल्पना, प्रयास भी किये लेकिन जब घर बन कर तैयार हुआ तो जैसे अपनी नींव ही खोखली हो गई थी।

    नौकरी के तो आभी दस साल बाकी है लोन भी काफी हो गया है और अभी तो इस घर में आया नहीं जा सकता? क्यों न इसे किराये पर लगा दिया जाय लोन भी सध जायेगा और घर भी मेन्टेन हो जायेगा। दूसरा सु-हजयाव प्रकाश का था मैं बच्चों का लेकर इस घर मे    रंहूँ   पढ़ाई  वगैरह के लिए एक ही जगह टिक कर रहना ठीक होगा। प्रकाश आते-जाते रहेंगे। समय बीतते देर नही लगती लेकिन मै प्रकाश के इस सु  झाव   पर किसी हाल में राजी न हुई। ललक भरी आखों सक देखते हुए सुन्दर सजा कर बना कर घर दे दिया बड़ी प्राइवेट के जनरल मैनेेजर को और लौट आये हम लोग उसी पुराने से बदरंग, सीमेंन्ट उखड़े सरकारी क्वार्रटर में।

     सोचा यहाँ  क्या? तबादले वाली सरकारी नौकरी है इस घर से क्या मोह क्या इस पर मेहनत करना जब अपने जायेंगे शौक पूरे कर लेंगे। मध्यमवर्गीय परिवार के सरकारी अफसर की पत्नी की हैसियत मैने भी यही सोच लिया था। पर तब क्या पता था कि जब सब तरफ से ठीक-ठाक सुविधा सम्पन्न घर बन कर तैयार होगा और उसमे आने का अवसर मिलेगा तो उसे भोगने के आनन्द से सहेजने सवारने की, परिवार के साथ मिलकर रहने की जीवनी शक्ति ही चुक जायेगी।

     60 वर्ष की उम्र में अपने इस विशाल घर के बरामदे में चारों ओर फैले 30 वर्षांे की गृहस्थी का सामान पैकटों और बोरियों में लिपटा पड़ा मानों हम पर हॅंस रहा था। प्रकाश जी सामानों की गिनती करवाने और कुलियों से उतरवा कर अभी सुरक्षित स्थान पर रखवा रहे थे और मैं उन सबके बीच कुर्सी पर बैठ कर चुपचाप सोच रही थी।

     अपने, हाॅं अपने इस चिरप्रतीक्षित घर में आकर इतना गहरा सूनापन क्यों वह उछाह क्यों नही? हाँ  शायद, रानी राजू और पप्पू नही है जो इसको बनवाते समय चहक-चहक कर अपने-अपने कमरों की प्लानिंग और घर की सजावट सोच रहे  थे। इस सामने वाले कमरे मे यह बड़ी खिड़की तो इसलिए बनी थी कि रानी को बहुत शौक था कि वह खिड़की और बाहर रात की रानी    की भीनी-भीनी खुशबू उसमें नई स्फूर्ति और ताज़गी देती रहेगी। मगर वह तो इस कमरे में एक दिन भी बैठ करपढ़ी  नहीं। जहां   जहाँ     पोस्टिंग  हुई वहां पर छोटे-छोटे कमरों में तीनें भाई बहन लैम्प की रोशनी से जू  झते जूझते कालेज की पढ़ाई  खत्म हो गई और फिर तो हास्टल और हास्टल। अभी पिछले हीे साल तो शादी की उसकी। खुश है अपने घर में। कितना सुन्दर है उसका छोटा सा सुन्दर और सलोना सा फलैट।मगर यह कमरा उसी के लिये बनवाया था। आयेगी भी तो साल दो साल मे आठ दस दिनों के लिये। अमेरिका में बसी दूर इतनी दूर कि----

      बेटा राजू, कितना   रोया      था कि मेरा कमरा अलग-ंउचयथलग होना चाहिए मेरे दोस्त     आयेगें     ,तो कंबाइंड   स्टडी    करूँगा  अपनी   तरह  -सजाऊँगा    । उसको भी तो अब देश विदेश के चक्कर लगाते क्या कभी इस कमरे की याद आती होगी जिसमें  वह रहा  ही नहीं। बचपन और किशोरावस्था के सपने,         माँ -बाप के इर्दगिर्द घूमने वाले बच्चों की दुनिया कब परिपक्व होकर अपना दायरा खुली दुनिया में     सजाने   लगी कुछ पता ही न चला और अब मर्चेंट नेवी में बहू के साथ समुद्र की लहरों पर जलयानों पर अठखेलियाँ  करता    वह जीवन की  ऊंचाइयाँ          नाप रहा है।

       एक गाड़ी सामान आ चुका है दूसरा आने वाला है।पेड़ पौधे गमले क्राकरी सोफा टी.वी. वी.सी.आर. सब। प-सजय़ लिख लो अच्छी नौकरी उददेश्य रखो हर बार बच्चों को यही शिक्षा दी। अब सब कुछ है तो साथ बैठकर देखने के लिये बच्चे नही हैं। घोसलांे से चिडि़योे के बच्चे पर उगते ही उन्मुक्त आकाश में उड़ानें भरनी शुरू कर देते है अब नीड़ से मोह कैसा? आत्मविश्वास आया बच्चों में व्यक्तित्व निखरा पुष्ट हुए। जिनके लिए नीड़ बना समय बीता। उन्हें अपना नया नीड़ रचना है उनके लिए तिनके जुटाने है बड़ी लम्बी यात्रा करनी है अब उनके इस नीड़ रहने की आशा कहाँ ?

        किरायेदारों ने घर खाली कर दिया और जाने से पहले कुछ भी देख भाल नही की उन्हे पता जो चल गया था कि हम लोग आने वाले हैं।

        अब सामने उजाड़ पड़ा लाॅन, फूलों की आस लगाये क्यारियाॅ, नौकरी पर तो नौकर चाकर माली मिल भी जाते थे।

        पेंशन के पैसों से क्या-ंउचयक्या करेंगे कभी तो इस कालोनी में आकर रह नही जीवन की इस सन्ध्या मंमें क्या नये लोगो से वह अपनापन इस नये जगह पर नये    तरह  से जीवन शुरू करना आसान नहीं। ऐसा लग रहा  हैभविष्य की आशा में शायद मैनें अपना वर्तमान खो दिया।  तात्कालिक सुख तो मैं शायद भूल ही गई थी बच्चे ही जीवन रथ की धुरी है हर व्यक्तिव का जीवन उनमें ही केन्द्रित होकर घूमता है उनको पालने-ंउचयपोसने के लिये सुविधा जुटाना है नौकरी करता है जीवन इतना अधिक व्यस्त और यान्त्रिक हो उठता है कि वे गौण हो जाते है। भविष्य की सुरक्षा का भय, क्रोध, हड़बड़ी जीवन की भागदौड़, घबराहट इतनी हावी हो जाती है कि हम जीवन के छोटे सुखों और खुशियों के आनन्द को भूल जाते है। अथक परिश्रम भागदौड़ जमा की गई भौतिक उपलब्धियाँ  शारीरिक सुख तो दे देती है मगर सामीप्य-सानिध्य प्यार बच्चों का साथ, जीवन के हर पल, हर क्षण के भरपूर आनन्द लेने से वंचित कर देती है।

        अरे! अनु उठो   किस सोच में डूबी हो। जरा इन आदमियों के लिए चाय वगैरह बनाओं। बड़ी मेहनत की है इन्होंने, मु झे निष्क्रिय देखकर फिर बोले-उठोदेखो यह तुम्हारा घर अब चाहे जैसे सजाओ अपनी सारी इच्छायें पूरी कर लो।मेरी आखों से आ सूँ गिर रहें है३ण्ण्अकेले इस घर मे अब हम और तुम अकेले रहेंगे। मैं तो सोच रही थी हम सब साथ रहेंगे रानी राजू पप्पू मगर यह कैसे हो सकता हैसमय बीत गया है

        भारी कदमों से मै किचन की ओर बढ  चली।