Sunday, January 13, 2013

main bada ho gaya huin papa



                                                           ‘‘मै बड़ा हो गया हूँ   पापा’’

              

               जैसे-जैसे मैट्रिक  की परीक्षाफल का समय निकट आ रहा था मैं राहुल के व्यवहार में एक अजीब सा   उलझन   भरा परिवर्तन देख रही थी। अल्हड़, बिन्दास, चंचल राहुल अचानक ही कभी गम्भीर बुजुर्ग का सा आवरणओढ़   लेता और ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता जैसे घर का बड़ा बूढा  हो और कभी चंचल सबसे छोटा चुलबुल स्कूल का शोख लड़का। दोनों का मिश्रण, मानो चैराहे पर खड़ा किस ओर जायें की   उलझन     । उन्मुक्त आकाश में पंख फड़फड़ा कर उड़ने के लिये तैयार।अशक्त होते हुए भी अदम्य साहस और शक्ति से भरा होने का आत्मविश्वास। एक ही उड़ान में सारे आकाश को नाप लेने का सपना।

                  जिस दिन आखिरी परचा था। आते ही कमरे में कापी किताब मुझमे बें एक ओर फेंकते हुए जोर से कहा था-‘‘मेहनत  मैं कर सकता था मा  मैन किया अब क्या डिवीज़न  आयेगा मैं नही जानता। लेकिन यह जरूर जानता हूँ कि आई हैव done my best .  इससे ज्यादा की capacity मुझमें  नहीं है’’।

                  अब अक्सर मैं देखती हूँ  सब कुछ शान्त है पंखा छत पर अबाध गति से अनवरत चल रहा है और एकटक उस ओर देखता राहुल न मालूम किन सपनों में खोया है। शायद दिवा स्वप्नों का सुनहला संसार  आँखों     में रच बस रहहै। कहानी की, मैगजीन का कोई पन्ना  के सामने खुला है औधे मुँह     लेटा है पैर धीरे-धीरे हिलाता नाखूनों को दातों से कुतरता न मालूम क्या गुन सुन रहा है। आखें जरूर मैगजीन पर है पर मन कहीं और।

                  दूसरी ही दुनिया में खोया सा लगता है। 15-16 वर्ष की आयु। शुरू से ही साथ रहा है, अपने से अलग करने का कभी मौका भी तो नहीं लगा। एक साल बड़ी बहन कान्ता। वही साथी, सहेली, बहन, लड़ाई-झगड़ा  प्यारदुलार, मान-मनुहार सब कुछ एक दूसरे से ही। कभी कुछ और आवश्यकता संगी साथियों की महसूस ही नहीं, हुई शायद। मम्मी पापा दोनों से ही मित्र की तरह खुलापन और स्नेह। राहुल के पापा भी इस परिवर्तन को महसूस कर रहे हैं। गुमसुम सा राहुल कुछ चुपचुप कुछ गम्भीर। इसे कहीं बाहर घूमने के लिये भेज देना चाहिये। तीन महीने के बाद रिजल्ट निकलेगा। कुछ न करने से तो एकदम dull हो जायेगा। यही ।हम ठीक है बाहरी रिश्तेदारों,भाई बहनों से मिल आयेगा। कुछ न कुछ सीखेगा ही बींदहम हो जायेगा क्यों न बम्बई और दिल्ली अपने चाचा तथा जीजी के पास हो आवें और राहुल ने भी कोई उज्र नहीं किया।

                   2 महीने क अन्तराल के बाद राहुल आया तो मुझे  बड़ा बदला-बदला सा लगा। कुछ बड़ा-बड़ा सा। शायदवहाँ  रहकर उसने किन्हीं मन के व्याकुल क्षणों में ओठों के उपर उग आये कोमल बालों को कैंची से काट कर चिकना करने की कोशिश की हो और साफ होने के बजाय काले धने बालों के जंगल से उग आये थेमसें भीगने लगी थी। एक अजीब सा लावण्य आ गया था चेहरे पर नमकीन, सलोना, भोला, कुछ -     झिझका , कुछ ठिठका, हाथ की कलाइयाँ गोलगोल होने लगी थी। पीठ के पुट्ठों में मासंलता के कारण बदन भरने  सा लगा था। चैड़े कन्धे, मानो धीरे-धीरे एक आदमकद विकसित पुरूष का व्यक्तित्व प्रस्फुटित हो रहा था।

                   कितना सुखद लगता है बच्चों का बड़ा होना, अच्छे व्यक्तित्व में उभरता, समझदार  , सहिष्णु और जागरूक बनना। मानो वह अपने पापा का ही प्रतिरूप हो उठा था। चाल ढाल       उठना  बैठना            सब   पा कुछ  पापा      जैसा  बार बार न्यौछावर हो उठता है मन     साथ ही साथ यह भी अहसास दिला जाता है कि समय कितनी तेजी से बीत     रहा है या  कहें भाग रहा है। एक की आखों के सामने उगता सूरज है, उज्वल भविष्य का सपना है, उन्मुक्त प्रशस्त मार्ग है, और दूसरी ओर गहरा अवसाद स्वयं माता पिता के बूढ़े

                   राहुल ने करवट बदल कर बिस्तरे पर लेटे-लेटे  ही देखा अब चारों ओर का यह बदरंग कमरा उसे रंगों से भरा सुन्दर एवं आकर्शक लगने लगा है। अबकी जब से वह चाचा और जीजा के पास से तीन माह के लगभग रह कर लौटा है उसे सारा घर ही बदला-बदला लग रहा है। मम्मी पापा सब में कुछ बदलाव है कहीं उसमें स्वयं अपने में कोई बदलाव तो नहीं आ रहा है? अब वह मम्मी की पुकार  पर पहले की तरह   चिल्ला नहीं उठता, चीख कर जवाब क्यूँ  नही देता? अब उसे कयों लगने लगा है कि उसका अपना व्यक्तित्व है, स्थान है, व्यक्तिगत अहम् है। अब उसे फ्रिज से समान निकाल चुराकर चुपचाप खा लेने अकेलेअकेले में मजा नहीं आता। अब अपने बहन से छोटे-बड़े आम के लिए घण्टों झगड़ा करने का मन नहीं करता। कापी, पेन्सिल, खीर, मिठाई, टाफी, चाकलेट हर चीज के बटवारे में कितना रो-धोकर

झ गड़ा कर यहा तक की मारपीट की भी नौबत आ जाती थी। कुछ भी काम बराबरी के हिस्का-हिस्की से ही होता था कलम, पेन्सिल, रबर पर भी घण्टों बहस हो जाया करती थी मैंने क्या किया और कान्ता ने क्या किया? इसकी फेहरिस्त बनती थी निर्णय के लिये पापा के पास रखी जाती थी। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता था किझगड़ा -        न हो। पापा कहते यह क्या मैं जब भी आफिस से लौटता हॅ लगता झगड़े       घरमें  आ गयाहूँ  अब तुम लोग बड़े हो रहे हो। ये दिन लौट कर नहीं आयेंगे। माँ  बाप को समझ ने  बू झने  की, मदत  करने की यही सबसे अच्छी       उमर  है। भाई बहन के प्रेम  की यह इमेज हम है हर पल, हर क्षण को      अन्जोय  करो।  कुछ  दिनों       के बाद तुम लोग अलग-अलग चले जाओगे। बहुत रोओगे        बहुत       मिस  करोगे एक दूसरे को।

                    और   हाँ सच ही तो मेरा मन कान्ता से लडने  झगड़ने को नहीं करता अब मैं कामों  की फेहरिस्त बना कर बा टना नहीं चाहता। मैं तो चाहता हूँ , मैं कुछ करूं  सबके लिये। जैसे पापा करते हैं सबके लिये। मैं कुछ करता चाहता हूँ । जब  सिनेमाँ    में    किसी भाई को देखता हूँ  किसी बेटे को देखता हूँ    तो मेरा   रूयाँ -  रोयाँ भी व्याकुल हो उठता है मैं कुछ अच्छा कर सकूं । मै बड़ा हो गया हूँ ।  कार      चलाते समय पापा की सीट पर बैठते ही मुझे  लगता है मुझे  भी पापा की तरह बनना है कुछ प्राप्त करना है। मैं जरूर बड़ा हो गया हूँ धरती से आकाश को नाप सकने योग्य।

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