Sunday, February 22, 2015

Jnhit ka suurj

   जनहित का सूरज चमकने लगा है                                                
          समय के दुष्चक्र में, छलावे में भुलावे में, आँखे बन्द कर हम सोचते रहे, वह घना अंधकार है रास्ते ऊबड़-खाबड़ है कंकरीले है----- पथरीले है------शुतुरमुर्ग की तरह अपने पंखों में सरछुपाकर सोचते रहे हमारे आगे कुछ भी नहीं है विकास के मार्ग अवरूद्ध है हमारी यही दुनियाँ है हमारा यही, यही ठिकाना है मगर ऐसा कुछ भी नही है।
      वह एक ऐसी धुन्ध थी जो छँट रही है महानता की परत थी जो कट रही है जागरण की थपथपाहत है जो जग रही है कुनमुनाते हुये, अलसाते हुये हमारी आँखे हो रही है आहत सुनाई पड़ने लगे है। सुनहली धूप, प्यारी हवायें, रंगीन सपने नन्हे -मुन्नो का आँगन, प्यारा-सा बचपन युवाओं का दमखम बुढ़ापेे का दर्शन जरूरत है एक लक्ष्य हो हमारा जरूरत है एक पथ हो हमारा
       जरूरत है साथ मिलकर चलें हम हिम्मत से सबको लेकर चले हम खुशियाँ खुशियाँ बिखरी पड़ी हैं चलों दौड़ कर हम आँचल में भर ले प्यार से हर घर में दीपक जला दें चलों हम आशा के मोती लुटा दे अन्धेरा छटा है सवेरा हुआ है। जनहक का सूरज चमकने लगा है।


  

Vasudhaav kutumbkum

            समस्त पृथ्वी ही कुटुम्ब है
                       वसुधैवकुटुम्ब्कम 
                                           वसुधैव कुटुम्बकम् का अर्थ सही रूप में मैं अब समझ सकी हूँ। छोटे-छोटे एक परिवार दूर देश विदेश में नौकरी के लिये जाते है और फिर आवश्यकतानुसार नई जगह, देशों में अपने तथाकथित परिवार के लोगों से रक्तसम्बन्धों की पकड़ से दूर वही बस जाते हैं। जहाँ बच्चे है नौकरी है पत्नी है या अकेले भी है तो वही पर आस-पास पड़ोस जान पहचान भी हो ही जाती है कुछ से मन मिलता है। कुछ विचारों के मिलने की वजह से जुड़ते है तो कुछ जरूरत के कारण जुड़ते है और धीरे-धीरे वहाँ परिवार के सदस्य ही बन जाते है।  
   
  
  

   

Saturday, February 14, 2015

Bitiya Meri

                              बिटिया मेरी                                        
गूँज उठी कलरव से
     फूलों की बगिया मेरी
घर आँगन में बोल
     उठी बिटिया मेरी
चहक-चहक कर फुदक रही
     फूल-फूल पर थिरक रही
तितली और रंग बिरंगे कीट-पतंगे
     भनभन-गुनगुन मधुर ध्वनि से
गूज रही बगिया मेरी
     फूलों की बगिया मेरी
मम्मा-पाप्पा, बाबा-दादी
     कहती घर आँगन में डोल रही
थमक-थमक कर नाच रही, कभी
     पीठ पर कभी पाँव पर बैठी
झूला झूल रही बिटिया मेरी
कभी नाचती धुन पर,
     टी0वी0 के गानों पर
कभी ठुमकती रूनक झुनक कर
     पायल को छनकाती
घर आँगन में धुम मचाती
     बोल रही बिटिया मेरी  
बेटी और चिडि़या का कलरव
     घर आँगन की रौनक
सतरंगी किरणों की छाया
     है गुलाब सी कोमलकाया
दमक रही बिटिया मेरी
     घर आँगन में ठुमक रही
बिटिया मेरी गूँज उठी कलरव से
     फूलों की बगिया मेरी---

Sunday, February 1, 2015

Mansik Sahcharita Mental Companionship

मनसिक सहचारिता    
      मध्य आयु की बढ़ती हुई मांग               

 ‘मेंटल कंपेनियनशिप’ (मानसिक सहचारिता) के विषय में आए दिन सुनी जाने वाली बातों ने मुझे यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि क्या इस में कुछ तथ्य भी हैं अथवा यह पुरूषों के लिए अन्य स्त्रियों से संबन्ध बनाने की एक आड़ मात्र है। पत्नी व परिवार के अन्य सदस्यों और समाज की आंखों में धूल झोंकने का यह एक अच्छा साधन है, जिसे आजकल के कामूक व्यक्तियों न बचाव का एक सरल रास्ता मान कर अपना लिया है। 
      उस दिन में अपनी एक सहेली के घर गई थी। अच्छाभला खातापीता परिवार है। समाज में पदप्रतिष्ठा और सुखसुविधाओं के साथ संतान सुख से भी संपन्न है। वह अकेले घर में बच्चों के साथ उदास बैठी थी। मैनें यों ही मजाक करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, किन खयालों में खोई हुई हो? क्या भाई साहब से इतना प्यार है कि वह आँखों से ओझल हुए नहीं कि तुम गमगीन हो गईं?’’
    ऐसा लगा वह पहले से ही भरी बैठी थी। मेरा इतना कहना था कि उसकी आँखें भर आई बोली, ‘‘हाँ अब तो तुम लोग भी यही कहोगी। जिस पर बीतती है वही जानती है। जानती हो, मेरा मन इनके प्रति घृणा से भर उठा है। जब देखो तभी मोहिनी की बातें मैं तो अब उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाती। कुछ कहने पर कहते है, ‘क्या मुसीबत है? छोटी-छोटी बातों को ले कर झींकना तुम औरतों की आदत है। क्या किसी से मिलना-जुलना, हँसना बोलना भी गुनाह है? हर वक्त यही रोना रोती रहती हो कि आप की फलां से दोस्ती है मान लिया कि दोस्ती है तो इस से क्या हुआ? किस बात की कमी है तुम्हें? तुम्हें जो मिलना चाहिए वह तो तुम्हें मिल ही रहा है न।
    ‘‘पुरूष क्या जाने कि स्त्री सब चीजों में अपना भागीदार या साझीदार बना सकती है। बिना कसक गृहशोभा के, बिना किसी पीड़ा के ऐसा सब कुछ कर सकती है, किंतु पति को उसके सानिघ्य और सामीप्य को किसी दूसरे के साथ बाँटने की कल्पना मात्र ही उसे निष्प्राण और संज्ञा शून्य कर देती है। वह भी भारतीय स्त्री! आज समाज और परिवेश चाहे कितने भी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित क्यों न हो, भारतीय स्त्री अंर्तमन से रत्ती भर भी नहीं बदली है।
      ‘‘पुरूष की संकीर्णता भी ज्यों की त्यों है। स्त्रियों को अपने अधिकर में रखने, बात-बात पर दबाने, अपने से हीन समझने की कुत्सित भावना उन में यथावत है समाज में आधुनिकता का आवरण ओढ़ कर वह घर से बाहर आदर्श का  पुतला लगता है, पर घर में रात के एकांत में वह आना कुत्सित नग्न रूप शायद स्वयं नहीं पहचान पाता।’’
       इस घटना के बाद तो कितनी ही घटनाएँ इस प्रकार की सुनाई पड़ने लगी कि अपनी अच्छीभली पत्नी के सानिध्य से ऊब कर पति दूसरी स्त्रियों से मित्रता रच कर जीवन को नए दृष्टिकोण से देखने लगे हैं। उन सब का एक ही तर्क हे कि उन की पत्नी में वह ऊँची मानसिकता नहीं हैं, जो अमुक में हे इसी लिए मैं ने तो इस से केवल मानसिक तुष्टि पाने के लिए मित्रता की हैं।
      सब से अधिक आश्चर्यजनक बात मैं ने यह देखी है कि यह बीमारी--मन का मन से मिलन-- उम्र के तीसरे चरण यानी 35-40 वर्ष में शरू हो कर 50 वर्ष तक चलती है। दूसरे शब्दों में, प्रौढ़ावस्था में इस का जोर रहता है।
      जो व्यक्ति सामान्य पद पर रहा हो और अचानक ही उच्च वर्ग के वातावरण में आ जाए अथवा वैसा पद व सम्मान प्राप्त कर ले तो उसे अपनी पत्नी का मानसिक स्तर अपने से हीन लगने लगता हे और यह कमी उसे इस कदर खलने लगती है  िकवह किसी भी कीमत पर और कहीं से भी मानसिक तादात्म्यता का एहसास कराने वाली सहचरी पाने के लिए बेताब रहता है। इस के लिए यह आवश्यक नहीं कि ऐसी महिला मित्र कम उम्र की हो अथवा अधिक की। वह समवयस्क भी हो सकती है। पर इतना निश्चित हे कि ऐसी जरूरत महसूस करने वाले पुरूषों में ऐसी महिला को खोज लेने की विशिष्ट शक्ति का शीघ्र विकास होने लगता है।
       क्यों हो जाता है ऐसा? पति में सहसा ऐसी प्रवृत्ति का विकास क्यों होने लगता है कि उसे अपनी पत्नी, जिस के साथ उस ने पिछले 15-20 वर्ष गुजारे हैं, मानसिक दृष्टि से एकदम निम्न स्तर की, हीन और सभा-सोसाइटी के लिए अनुपयुक्त लगने लगती है? क्यों उसे अन्य परिचित प्रायः सभी स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक समझदार प्रतीत होने लगती हैं? जो भी यह पढ़ेगा अथवा सुनेगा उसकी तत्काल यही प्रतिक्रिया होगी, कि पत्नी में ही कोई दोष होगा, कमी होगी, जिससे पति दूसरी जगह भटकने लगता है जो ची जवह बाहर खोजता है, अगर वह घर में ही मिल जाए तो फिर बेचारा दूसरी स्त्रियों से दोस्ती ही क्यों करे?
    मनसिक सहचारिता (मेंटल कंपेनियनशिप) शब्द आजकल सभय समाज और उच्च वर्ग में कुछ ज्यादा ही प्रयुक्त होने लगा हे यदि यह मानसिक सहचारिता अथवा तादात्म्यता पुरूष की पुरूषों तक ही सीमित रहे तो भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर जब व्यक्ति इस लक्ष्मण रेखा को पार कर अन्य स्त्रियों में यह भावना देखने लगता हे तो बेचारी पत्निी का माथा ठनकना स्वाभाविक है।
     एक साहब है, एक कालिज में प्रिंसिपल है। बुढ़ापे में पहुँच कर इस मानसिक सहचारिता की इस बीमारी ने उन्हें इतना अकेला कर दिया हे कि बड़े-बड़े इण्टर, बीÛ एÛ में पढ़ने वाले अपने बच्चों और पत्नी को छोड़ कर उस स्त्री के साथ रहने लगे हैं जो कभी उन्हीं के कालिज में पढ़ाती थी। पत्नी बेचारी गाँव में पड़ी  है और अपना भाग्य कोस रही है। उधर पति महाशय सब परेशानियों, उत्तरदायित्वों से एकदम अलग हो ‘मानसिकसहचारिता’ का आनन्द लूट रहे है गाँव की पत्नी उतनी पढ़ीलिखी भी नहीं, जितनी यह शहर की एमÛ एÛ डाक्टरेट प्राप्त आधुनिका सहचरी है।
    मुझे लगता है कि पुरूषों को मानसिक सहचारिता की अचानक आवश्यकता इस लिए पड़ने लगती है, क्योंकि अधेड़ होते-होते उनकी यौवनावस्था की उच्छखलता, रोमानी कल्पनाएँ और ऊँची उड़ान भरने की शक्ति यथार्थ के कठोर धरातल से टकरा कर चूरचूर हो चुकी होती है। नित नए ‘एडवेंचर’ का प्रेमी पुरूष परिवार की जिम्मेदारियों के भार से अंतर्मुखी हो जाता है। उस का सारा जीवन एक सा समरस हो जाता है, कोई नवीनता उस में नहीं रह पाती। सब ठीकठाक चल पड़ने से और जीवन में कोई चुनौती न रहने से पुरूष का अहं जोर मारने लगता है। धीरे-धीरे वह घर को भूल कर अपने काम, वातावरण, राजनीति और दफ्तर की पालीटिक्स में, अपनी पदोन्नति, प्रतिष्ठा आदि में अधिकाधिक रूचि लेता जाता है।
    तब उस को आवश्यकता पड़ती है एक ऐसे सहयोगी की जो उसी के ढ़ंग से वैसी ही परिस्थितियों की सर्जना कर, कल्पाना कर उस विषय पर उससे विचारविमर्श कर सकें। ऐसा कर के वह आत्मसंतुष्टि का अनुभव करता है। वैसे इस श्रेणी के अंतर्गत पुरूष मित्रों की संख्या अधिक होती है, किंतु बहुत सी ंिस्त्रयों के भी नौकरीपेशा जगत में आ जाने के कारण उनकी बुद्धि भी अब इस दिशा में काफी जागरूक हो चली है।
      पुरूष और स्त्री का विपरीत यौन आकर्षण तो शाश्वत है उस में यदि कहीं मानसिक सहचारिता का एहसास कराने वाली अपने जैसे बौद्धिक स्तर की स्त्री मिल गई तो उस उम्र में आ कर पुरूष प्राथमिकता स्त्रियों को ही देने लगते है। यह स्वाभाविक ही है, कोई अप्राकृतिक नहीं है।
      प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में पत्नी स्वयं को उस मानसिक धरातल तक पहुँचा कर पति को मानसिक सहचरी क्यों नहीं हो सकती? किंतु अधिकतर स्त्रियाँ अर्थात पत्नियाँ घरपरिवार तक ही सीमित रहती है। उनकी विश्लेषणात्मक बुद्धि पारिवारिक मामलों में जितनी चलती है, उतनी पति के कार्यक्षेत्र के विषय में नहीं चल सकती। यों कहिए कि पति को यह भरोसा ही नहीं होता कि पत्नी के विचार उसके कार्यक्षेत्र में व्यवहारिक होंगे। वह उसके कार्य की जटिल परिस्थितियों की कल्पाना भी कर पाएगी। इसलिए घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत के हिसाब से वह इस बारे में पत्नी से बात तक नहीं करता।
      इसके विपरीत मानसिक सहचारिता के साथ ही वह दूसरी स़्त्री के साहचर्य का अनोखा आनन्द भी पाता है। 
      इस प्रश्न को स्त्रियों के दृष्टिकोण से समझना भी उचित ही होगा। स्त्रियाँ, जो अकसर केवल गृहिणी मात्र होती हैं, चाह कर भी पति के काम में अपना पर्याप्त सहयोग नहीं दे पातीं। घर परिवार, बच्चों आदि की देख-भाल में वे इतनी अधिक व्यस्त रहती है कि पति की सुखसुविधाओं की पूर्ति तो वे किसी तरह कर देती है, पर उस को घर से बाहर कौन सी परेशानी मथ रही है, इस से वे लगभग अनभिज्ञ ही रहती है।
      समय पर खाना, कपड़ा अतिथियों को स्वागत सत्कार, क्लब आदि में पति की अन्य तम सहयोगिनी बन कर ही पत्नी यह सोचने लगती है कि यह एक आदर्श पत्नी है, जो हर क्षेत्र में पित से कदम से कदम मिला कर चल रही है।
      वह कहाँ चूक जाती है, इस की जब उसे खबर होती है तो काफी देर हो चुकी होती है। पति सुख, संतोष और शान्ति की प्राप्ति के लिए एक और नीड़ बना चुका होता है, जहाँ वह जितनी देर रहता है, मुक्त अनुभव करता है। उसे लगता है कि उसकी यह स्त्री मित्र उस तक ही सीमित है। केवल उसके बारे में ही सोचती है। पत्नी का प्यार, आदर और बच्चों का स्नेह तो वह तब भी पा रहा होता है, इसलिए उस की दृष्टि में उस का कोई मोल नहीं होता।
      असल में इस स्थिति में पुरूष का प्रेम शारीरिक संबन्धों से ऊपर उठ चुका होता है। ऐसी परिस्थिति में पत्नी को धैर्य और समझदारी से काम लेना चाहिए भरसक यही प्रयास करना चाहिए कि पति के मानसिक संघर्ष तथा तनाव को महसूस करने का प्रयास करें।
     जब अपने पति के अनुकूल उसकी परिस्थितियों में स्वयं को रख कर सोचने लगेगी तो कभी भी कोई दरार आपसी संबंधों में नहीं आ पाएगी।
     न ही ऐसी स्त्री अपने पति को दूर होते हुए और घर को बिखरते हुए देखेगी। स्वस्थ, संतुलित दांपत्य जीवन में  ‘मानसिक सहचारिता’ का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसा हो तो पुरूष को कहीं और भटकने की जरूरत ही क्या?
                        
                          

Khushiya

           खुशियाँ              
यह सच है खुशियाँ, वर्फ की फाहों की तरह
आकाश से बरसती नही है
जमीन पर उगने वाले मशरूमों की तरह
हरदम किलकती नहीं है।
ये तो बिखरी पड़ी है समन्दर-सी
फैली पड़ी है, कही सीपियों-सी
कही कंकड़ो सी, कहीं मोतियों-सी
मन को लुभाती, कही लाल, पीली, छोटी-बड़ी सी
चुन लो, उठा लो, जो अच्छी लगे और प्यारी लगे
ये तो कन-कन में जैसे लिपटी पड़ी है
समय की नदी पर बहती चली है खुशियाँ
आस-पास ही तो बिखरी पड़ी है खुशियाँ
वो देखो वो देखो पकड़ लो उन्हें
तितलियों से उड़ी वो चंचल चपल-सी।




             The amount of Joy and pleasure that we gat in floating the tiny paper boat in the water of rains, in our daily life too. We can gather joy and happiness.               
         Collecting pebbles at the seashore like wise in our daily life too we can seek, gather and pickup happiness from the little things happening around us. It is all in the state of mind. Pleasure and joy does not fall from the sky like shower of snow or grow on earth like mushrooms.