Sunday, January 25, 2015

Zid aur zindagi

        जिद और जिन्दगी                                     

जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने,
अंगारो की जलन, नफरत की तपन, पिया है मैने!!
जो चाहा सोचा, समझा वही, बस वही किया मैने।
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
किसी के आँखों की किर-किर, मन का नश्तर हूँ मैं,
क्या कहूँ किसी के दिल का, दुख का मंजर हूँ मैं
आना-जाना तो मुकद्दर का सिला है प्यारों
हर आह! से निकला दुआ का समन्दर हूँ मैं
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
जो भी जिया है बड़ी शान से जिया है मैने
बड़ी गहरी है नीवें, बड़े पक्के है इरादें
बड़े सच्ची है दुआयें, बड़ी ताकत है शहादत
न गिलवा न शिकायत, बड़ी हिकमत है ‘‘जरूरत’’
प्यार से, मगर भरपूर जिया है मैने
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
 









   

Daddy



                              Daddy
You are my ideal
My hero, my force,
My courage, my pride and my source
I want to hold your hands, my steps are small
My dreams are high my ambitions and goal
I do not want to fall
Let me hold your hands
Let me have the confidence
You are my hero, my force wait, wait.
Do not hurry
Be slow, be low, do not worry
I am behind you, trying to reach you.




Gulmohar

                               गुलमोहर                                         
तुम मेरे गुलमोहर
हरे-हरे पत्तों के गुल्मगुच्छ में
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर
कड़ी धूप में शीतल छाया
अम्बरतम में विधु की माया
हरे-हरे पत्तों के गुल्म-गुच्छ में
प्रिय, तुम मेरे गुल मोहर
कितना भी हो आहत मन
बोझिल आँखें, तन्द्रिल मन
पोर-पोर हो टूट रहा जब
तुम निद्रा की एक लहर
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर
कितना लम्बा, कितना सूना
कभी-कभी यह जीवन का पथ
चुकती लगती जीवन शक्ति
और शिथिल मन जाता थक,
तुम, धनी भूत पीड़ा के अश्रुतरल
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर।

Sunday, January 11, 2015

Kyuuin

                                      क्यों
      हमेशा की तरह हम दोनों ननन्द भौजाई माॅर्निंग वाक पर सुबह 5ः00 पर निकल पड़े। रोज की अपेक्षा आज शायद बीस मिनट जल्दी थी। सड़क पर चहल पहल न थी। सन्नाटा पसरा था। 5ः30 पाॅंच तक तो टहलने वालों की भीड़ दिखाई पड़ने लगती थी। कि अचानक सामने से दुबली पतली काया आती दिखाई पड़ी। स्पष्ट रूप से नही पहचान पा रही थी। तेजी से हमारे कदम बढ़ रहे थे ब्रिस्क वाक् कि अचानक कदम ठहर गये अरे मीना। तुम क्या तुम भी माॅर्निंग वाक कर रही हो? रूक गयी वह उदास थकी हुई, सुस्त लगा कि रात भर सोई न हो। क्या हुआ तबियत ज्यादा खराब है? कल तुम आई नहीं इसलियें क्या हुआ? इतनी सुबह-सुबह।
         हाॅ मीना! मेरी कामवाली बाई! एकदम सपाट स्वर में पथराई आॅखों से देखते हुए बोली चली गई, चली गई माता जी! क्या? क्या कह रही हो? डेथ हो? गई क्या? हाॅ कल दोपहर में घर में कोई था या नहीं? वह तो अकेले रह रही थी? बहू बेटा तो बम्बई गये है न? हाॅ क्या हो गया था? आस पड़ोस ने हेल्प नही किया? नहीं।
दो दिन से तो मैं नहीं गई थी दीदी मेरी तबियत जो खराब थी। कल गई थी तो हालत बहुत खराब थी। डायरिया -- लैट्रिन हो रहा था ले जाने की हालत नही थी। किसी तरह बम्बई फोन लगाया तो उन्होंने कहा डाक्टर के यहाॅं ले जाओं ले जाने वाली हालत नही थी।
      कुछ बोल रही थी? मैने पूछा! नहीं बस कस कर मेरा हाथ पकड़े थी और एक टक मुझे देख रही थी। मानों कह रहीं हो मुझे छोड़ कर मत जाओं और फिर बस देखते-देखते उड़ गये प्राण पखेरू।
    पाँच बेटियाँ, दो बेटे बहू, पोते उनकी बहुयें मगर ऐसी भयानक मौत। पास में कोई दिया जलाने वाला भी नहीं दीदी कल दोपहर से रात सुबह अभी तक मै ही तो थी अभी किसी को बुलाकर कह दिया और अगरबत्ती जला देना। मै नहा धोकर आती हँू वही इतनी सुबह घर जा रही हूँ नहाने खाने भइया जी हवाई जहाज से चल दिये है फिर भी शोम से पहले तो नही पहुँचेंगे।
   मेरे आँखों से आँसू गिरने लगें। कौन सा अव्यक्त स्नेह था जो मुझे उनसे जोड़ गया था मेरी कामवाली मीनू ही शायद माता जी और मेरे बीच की सम्पर्क सूत्र थी। जब मेरे लिये रोटियाँ सेकती। झाड़ू पोछा लगाती तो माता जी के बारे में चश्मा जरूर करती। कई सालों से उनके यहाॅं काम कर रही थी। अस्सी के ऊपर की यह माता जी नितप्रति अपने घर में कोहराम मचाया करती। अपनी बहू को गन्दी-गन्दी गालियाँ और अपशब्द कहतीं। किसी की न सुनती। और उनकी बहू भी अब नई नवेली बहू न थी। स्वयं उनके भी दो बेटे बहुये और बेेटी दामाद थे। मगर घर की बड़ी बुजुर्ग माता जी की जबान, उस पर कोई भी नियंत्रण नहीं रखवा सका था। नित्य प्रति के कठोर शब्दों उदण्ड व्यवहार और क्रोधी स्वभाव ने उन्हे घर में ही सबसे अलग थलग कर दिया था। जब घर मे स्नेह प्यार न था तो आस पड़ोस से क्या होते। जब चाहा अपनी गठरी मठरी या प्लास्टिक का थैला उठाती बिना किसी को बताये रिक्शा पकड़ती और पहुँच जाती आर्यसमाजमन्दिर, या कहीं जा उनका मन करता खोज मचाती बेटा दौड़ता मना कर समझाया बुझा कर लाता। पाक सफाई धूत छात इतनी कि किसी का काम पसन्द न आता। स्वयं ही नौकरानी से आटाछीन कर रोटी सेकती, खिचड़ी खाती बनाती। कोई कुछ न बोलता।
    इन सारी घटनाओं की खबर भी मुझे मीनू ही देती। यह भी उसने ही बताया कि भैया जी और बहू जी बम्बई अपने बेटे के पास गये है एक दो महीने के लिये --उनका बेटा बहुत परेशान है। बहू अपने घर का सारा सामान जेवर पैसा लेकर अपने पिता के साथ मैके चली गई। जब भैया जी आॅफिस गये थे तभी। टिकट वगैरह सब पहले से बुक करा रखा था भैया जी को कुछ नही मालूम था। पिता उसके आये उनके आॅफिस जाते ही टैक्सी बुलाई और पिता बेटी अपने घर लखनऊ। बहुत सुन्दर बहू है दीदी--- डाॅक्टर है डाॅक्टर मगर ऐसा क्यों।
     इकलौती थी पता नही क्या बात हुई डाइवोस का केश चल रहा है।
 माता जी को ले जानाा चाहिए था? किसके भरोसे छोड़ गई किसके क्या? मुझसे कह गई है? देख लेना खाना बना देना? ज्यादा तंग करेंगी तेा छोड़ देना अपने आप बनायेंगी खायेंगी?
   मगर दीदी मुझसे नही होता अगर कुछ बोलती हूँ तो मैं सोचती हूँ बूढ़ी है बड़बड़ाती है? इस कान से सुन कर निकाल देती हूँ। फिर भी किसी को रखकर तो जाती। मगर अब क्या------                                                 

Saturday, January 10, 2015

Sardiuun ki dhoop

                 सर्दियों की धूप                       
सर्दियों की धूप
कुनमुनी-सी गुनगुनी सी धूप
मेरे घर आंगन की धूप
कभी झांकती उपर नभ से
कभी घूम जाती मुंडेर पर
मेरे घर आंगन की धूप
और कभी खिल-खिल, ठिलठिलकर
अकड़ दिखाती, ढ़ीठ बनी
छा जाती तन पर-----
मेरे घर आंगन की धूप
अहा! सुनहली, कभी रूपहली
कभी लालिमा लिये हुये
पोर-पोर को कर आहलादित
मेरे घर आंगन की धूप।
प्यारी कुनमुन, शान्त मनोहर
मेरे घर आंगन की धूप।।
कुनमुनी सी गुनगुनी सी
मेरे घर आंगन की धूप।