Sunday, August 24, 2014

A TRIBUTE TO MY BROTHER


                            *A Tribute to my Brother*

                Today 9th August is Rangjee’s Punya Tilhi. Yes I always called him Rangjee though he was three year elder to me but I never said Bhai sahib or dada to him. I do not know how I was used to say ‘Rangjee’; but I have great respect and regard for him Amma and chacha had told me that this name was given to him on the name Rang Nath Mandir’s ‘Rangjee Bhagwan’. Ioved the name as it gave the sweetest feelings
                 He was six footer, well built,  fair complexion, very handsom with shy and sweet smile on his face. He was known as a very successful High court judge. I recall his roles as brother, son father and husband which he carried out to the best extent.  
                 Whenever I was n delima and needed guidance he was always there to admonish. He was very pure hearted and down to earth person full of emotions. Though he was an introward but he was a wealth , library of knowledge and information. Not only that he was very caring and concerned for all relatives poor or rich.
                 I do not know what others think but this is my personal feeling that he    was very close and attached to mother and all sisters.
                After the death of my ‘Babujee’ he was more like a father figure, took all the responsibilities of my ‘MAYKA’. Every Teej, BhaiDuj he never forgot me. 
                 I think in todays modern society everything, festivals, feelings get limited with your own son and daughter. But he was different like a banyan Tree (Bat Vriksh) under whose shelter every one could grow with humanity, love, effection, Patienee  co-operation and empathy. He inculcated all the high values of Babujee. I am proud to say that he embibed the same values in children too.
    Our elders are always around us and there presence can be felt in one form or other   
    
              

YADON KE GALIYARON MEIN

                                          यादों के गलियारों में
यादों  के गलियारों में
कुछ भूले बिखरे चित्र जड़े
धूल धूसरित समय धूलि से
कुछ धुधलें कुछ चमक रहें---
          इलाहाबाद के जार्जटाउन की पाॅश कालोनी विस्तृत साफ सुथरी चैड़ी सड़के और मेन चैराहे से पाँच घर छोड़ कर बना यह भव्य आकर्षण बंगला हवेली नुमा। बड़ा सा ऊँचा गेट जिसके बाहर दो बड़े नीम छितराये शाखाओं वाले वृक्ष हष्ट-पुष्ट। गर्मियों के दिनों से पहले नीम के झरते पत्तों से पीली पड़ी फाटक से बरामदे तक पहँचती सड़क और फिर उसके बाद पेड़ों का रंगबदलते हरे, कोमल पत्ती की वेशभूषा पकते, टपकते निमकौडि़यो की सुगन्ध से गमकता बंगले का वातावरण। थोड़ा सा आगे अन्दर बढि़ये तो दो ऊँचे लम्बे मजबूत मस्तक उठाये दानों तरफ तने साहसी दरबानों की तरह खड़े अशोक के वृक्ष। 60 साल से तो मैं ही देख रही हँू इनकों। और इन्होंने देखा है हमको हम भाई-बहनों को इस घर के आँगन, लाॅन बगीचे में हँसते-खेलते इठलाते ठहाके लगाते। अम्मा, बाबूजी, चाचा, चाची, भतीजे, भतीजियो से भरे पुरे परिवार को।
            बड़े फाटक को पार कर जैसे ही अन्दर प्रविष्ट होइये, बड़ा-सा गोलाकार लान, उसके चारो-ओर बेला के पौधों की हेज़ एकदम साफ कटी हुई घास, उसे छः इन्च की दूरी पर लिली के पौधे जो एक कतार में लाल सफेद के रंग में यूनिफार्म पहने बच्चों सी सजी क्यारियाँ। लगभग 10-12 फीट की गोलाकर सड़कों के बाद विशाल पोर्टिको और पोर्टिको के दोनों ओर छत पर चढ़ती अंगूर की लतायें। पोर्टिको इतना बड़ा कि कम से कम दो बड़ी कारें ‘‘गाडि़याँ’’ तो  आराम से खड़ी हो जाये। फिर लम्बा बहुत बराम्दा तग कही प्रवेश मिलता घर के अन्दर ही पूरा बड़ा लाॅन हो खुला, सूरज की बिखरती किरणें से गौरैयों का चहचहाना, गिलहरियों का एक इसरे के पीछे भागते हुये सर्र से एक छोटे फलदार अमरूद के पेड़ पर चढ़ जाना।
अम्मा व चाची, घर की औरते बहने भाभियाॅं बाहर के लाॅन में तो शायद ही बैठती मगर अन्दर के इस आँगन की शोभा किसी बाहरी खुली जगह के लाॅन से कम नही। सुबह शाम सब भाई-बहनों का जमावड़ा जम जाता चाय बनती नाश्ता में मठरिया नमकीन पूड़ी और खीर। सबके लिये अलग-अलग कटोरियों मंे सज जाती। हाँ, अभी भी याद है भाईयों की खीर का कटोरा बहनों की कटोरियों से दुगना होता। चाहे कोई कुछ भी कहे, सोचे या समझे यह तो निश्चित था कि खाने-पीने की चीजो में बेटे-बेटी का फरक जरूर दिखाई पड़ ही जाता। थोड़ी बहुत अम्मा से बहस होती मगर फिर सब ठीकठाक मगर भाईयो  के प्यार में कोई कमी न थी। अपने स्कूल की बाते घूमने फिरने की इच्छा, छोटी-मोटी जरूरते थी चीजे बेहिचक भाईयो से कहते लड़ते झगड़ते और अन्त में मगा कर ही दम लेतेे।
      दिन महीने, महीने वर्षों के पंख लगा कर उड़े तो फिर उड़ते ही चले गये। शादी ब्याह के लिये उसी आँगन में 7/7 के नाप के मण्डप के लिये परमानेन्ट जगह बन ही गई। नौकरी बड़े ओहदे भाभियों का आना बहनो का विवाह सब तितर-बितर दूर-दूर सालों में एक आध बार आना होता। शाम रात तक फिर जमघट लगती। अपने-अपने अनुभव बाॅटतें  अपना-अपना दुख-सुख बाटतें। माँ से ही सबसे अधिक घुल-मिल कर बाते होती।
       माँ का छोटे भाई के लिये रात के दस बजे तक खाने की थाली लेकर बैठे रहना। पीछे का दरवाजा धीरे से खोल कर भाई का अन्दर आना क्योंकि बाबूजी तो नौ बजते-बजते सोने चले जाते।मसहरी तन जाती बेडरूम की लाइट बुझ जाती नियम व रूटीन के पक्के थे बाबूजी। क्या मजाल कुछ भी बदल जाये। भाई ने नई-नई प्रेक्टिस शुरू की। पहला के की तैयारी, गलत को सही, सही को गलत सिद्ध कर उच्चन्यायालय में वकालत का पेश। कम त्रासद नही था। बड़ी-बड़ी कानून मोटी किताबें तर्क, बहस। पहला केस जीतना और हारना मनुष्य कभी भूल नही सकता। मील का पत्थर बन जाता है वह अनुभव। न दुराव न छिपाव सहज सरल मन की बातें। पहली बार जब पहला केस जीत कर जगराम की मिठाई में चाकलेट की वर्फी का डब्बा कितना एजाॅव किया था हम सबने वह पहली जीत व पहला कैरियर का मुकाम। सब घेर कर बैठ जाते और बातों का सिलसिला कम से कम एक घण्टा तो चलता और अम्मा के कहने पर सभा विखर जाती।