Monday, June 29, 2009

आज की आजादी और टूटते परिवार

बदलते सामजिक और पारिवारिक मूल्यों में यह { वर्तमान} " संक्रमण काल " है जिसकी रूप रेखा अभी निश्चित रूप से मान्य नहीं हो पाई है । नैतिक नियम , परिवार में टोका टोकी , लड़के लड़कियों के समान अधिकार , कार्य , सोच , सबमें आमूल परिवर्तन देखा जा रहा है । परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किए गए व्यवहार या स्वतंत्र विचार को लोग आजादी में "खलल" , "हनन" या "बाधा " कहने लगे हैं । और "प्रेस्टीज इशू" बना लेते हैं । और वह मन मस्तिष्क पर इतना छा जाता है की कुछ स्त्रियाँ या पुरूष कोर्ट का दरवाजा तक खटखटाने पहुँच जाते हैं। आपस में मतभेद बढ़ते हैं । लोग अपने रिश्तों को तार - तार करते हैं । दुर्घटनाएं घटती हैं । परिवार बिखर जातें हैं । या दीवारें दरकतीं हैं । पति पत्नी से , माता ,पिता , बेटे बेटियों सेयहाँ तक की परिवार के अन्य रिश्तों में भी दरार - गाँठ पड़ती है। दूरियाँ बढ़ती हैं । " रिश्ते कानून से नहीं बनाए और जोड़े जाते हैं अपितु समझ बूझ , और कुछ बातों को नज़र अंदाज़ कर भी तकरार कम की जा सकती है । " कभी प्यार से समझा कर , और समझ कर कक दूसरे के हित का ध्यान रख कर भी अपनी आजादी बनाये रखी जा सकती है । और इन सबका मूळ आधार होता है "सहन शक्ति" , दोनों वर्गों की । लड़के लडकियां , बड़े बूढों , छोटों सब में ही "सहन शक्ति और " उदारता " की भावना घट रही है॥ और अंहकार बढ़ रहा है । स्वाभिमान और अंहकार में अंतर है यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए ।
अब मुख्य प्रश्न है की "आजादी क्या है" ? नई पीढी आजादी से क्या समझती है ? उस दिन टीवी के एक चैनल पर सभी बड़े बूढे , किशोर, युवक युवतियां , आजादी पर अपने अपने विचार प्रकट कर रहे थे बड़े उत्साह के साथ -- आजादी --- मैं जो चाहे कर सकता हूँ , पढ़ना , लिखना , खेलना कूदना , जो मेरे मन में आए बिना रोक टोक के । ---"
आजादी - -अब मैं पंछी की तरह आजाद हूँ । कोई बंधन नहीं , अपनी तरह से रहना मेरी मर्जी "----
हर व्यक्ति अपनी अपनी तरह से "आजादी" को परिभाषित कर रहा था । सब में जो सामान्य बात थी वह थी " कोई रोक टोक नहीं " ..बंधन नहीं , अपनी मर्जी का मालिक , केवल मैं ,मेरा मन , मेरी इच्छा । शायद आज इसी को लोग "आजादी " समझने लगे हैं .परन्तु नहीं - - सुखी जीवन का रहस्य यह है -----
अपने साथ साथ , सबके साथ मिल कर स्वयम आगे बढ़ना और दूसरों को भी आगे बढ़ने के लिए वातावरण , जगह [स्पेस] देना । एक दूसरे की सामान्य जरूरतों को समझते हुए मान सम्मान देते हुए मिल जुल कर रहने की इच्छा के साथ काम करना और रहना । ना की अपनी मनमानी करना और रहना .जो दूसरों के लिए अपमानजनक और हानिकारक हो सकता है , मर्यादा में रह कर अपनी इच्छाओं को फूलने फलने देना न की मर्यादाहीन स्वछन्द व्यवहार ।
कौन जाने , कब , कहाँ , कैसे और किसको कोई सद्विचार प्रभावित कर जाए और उसमें आमूल परिवर्तन कर दे ? इसलिए सद्विचारों के बीज तो बिखरने ही चाहिए । ये अपनी जड़ों से उपजे विचार , मान्यताएं हैं जो दूब की तरह गाँठ - गांठ से विकसित होतें हैं , फैलते हैं । जैसे दूब की घांस फ़ैल कर ज़मीन को और वातावरण को हरा भरा बना देती है उसी तरह मन की सही सोच और काम करने के लिए उठे हाथ एक दूसरे को प्रभावित कर सहयोग से सब को आशा पूर्ण और सहृदय बनाता है । आपसी संबंधों को सरल ,सहज , और सकारात्मक
बना सकता है ।
परिवारों में खाने , पीने , पहनने , ओढ़ने , आराम करने हसने बोलने की आजादी के साथ साथ सुख सुविधा पूर्ण जीवन बिताने का अधिकार भी आता है जिसके पूरा नं हो पाने के कारण परिवार टूट रहे हैं । ये तो मूळ भूत ज़रूरतें हैं । और कहा जा रहा है की महिलाओं को कानून का संरक्षण मिल जाने के कारण उनकी सहन शक्ति कम हो रही है .. शिक्षा , आर्थिक सशक्ति करण , सभी छेत्रों में समान अधिकार महिलाओं को असहनशील और जिद्दी ही नहीं अतार्किक भी बना रहा है यह कहना और सोचना भले ही ग़लत न हो किंतु दुर्भाग्य पूर्ण है..

Wednesday, June 24, 2009

भूरी बिल्ली

मई का महीना ,चिलचिलाती धूप ,गंगा दशहरा के अवसर पर सन्यासियों का एक जत्त्था चला जा रहा था हरिद्वार की परम पावनी गंगा की ओर ,.रस्ते में कुछ समय के विश्राम के लिए उचित स्थान खोजते हुए उन्हें दिखाई पडा एक सुंदर सा घर , उपवन से घिरा , साफ़ , सुथरा । गृहस्थ जीवन से संतुष्ट शायद किसी दंपत्ति का स्वर्ग । मुखिया सन्यासी ने दरवाजा खटखटाया , गृहस्वामिनी ने द्वार खोला तो पूछा ,"क्या कुछ समय के लिए हम विश्राम कर सकते हैं ? एक घंटे बाद हम चले जायेगें ।
" आइये बैठिये,,इस बरगद की छाया में बने चबूतरे पर आपके लिए व्यवस्था किए देतें हैं । " जक्पन की व्यवस्था बड़े ही आदर सत्कार से किया । संतुष्ट सन्यासी ने सारा घर द्वार , आँगन , बाडी घूम कर देखा। गृहस्वामिनी और परिवार के सहयोग से सब कुछ अति उत्तम था । उसी समय एक भूरी बिल्ली उधर से गुज़री ।
सन्यासी ने कहा "अहा, यह भूरी बिल्ली ,--इस घर में तो लक्ष्मी का वास है । नित नया विकास होगा । धन , संपत्ति बढ़ती रहेगी । ऐसा मैं देख पा रहाहूँ ईश्वर आपकी सब कामनाओं को पूरा करेगा " प्रसन्न दंपत्ति ने सर झुका कर चरण स्पर्ष किए और उनके आर्शीवाद को सर आंखों पर स्वीकार किया । "
परिवार जब भी मिल बैठता - भूरी बिल्ली की प्रशंशा करता । और उसे भाग्यशाली मानता , इस तरह दिन बीतते गए ।। कुछ वर्षों के अन्तराल में उस सुंदर उपवन ने जंगल का रूप धारण कर लिया । परिवार अपने नित प्रति के कर्मों और परिश्रम से विमुख होने लगा .जब " भाग्य में है तो मिलेगा ही " धीरे धीरे आलस्य और अकर्मण्यता अपने पैर पसारने लगी । आगे पीछे घर के पेड़ पौधे घंस फूस उग आई । आगे बेर के पेड़ , और पीछे रेड के वृक्ष सर उठा कर खडे हो गए। किसी ने ध्यान ही न दिया । रोगों ने अपने पैर जमा लिए । घर पर मानो नज़र ही लग गई हो ।
दंपत्ति उस सन्यासी के आने की आस लगाए राह देखते और कहते - भूरी बिल्ली तो हमारे घर में सुख संपत्ति का प्रतीक है । मगर ये क्या हो रहा है ? वे विस्मित थे ।
कुछ वर्षों के बाद व्ही सन्यासी मंडली उधर से गुज़र रही थी । सहसा , यंत्रवत सन्यासी के पैर उस घर के सामने ठहर गए । उस घर की दुर्दशा देख कर उन्हें विश्वास ही न हुआ की यह व्ही जगह है जिसे कुछ वर्ष पूर्व उन्होनें उपवन के रूप में देखा था । उन्हें जिज्ञासा हुई , वह रुके , और दरवाजा खटखटाया ।
ग्रह्स्वामिनी स्वामी जी को देख कर प्रसन्न हुई । " अहो भाग्य , स्वामी जी आ गए '
आदर सत्कार किया और उनके विश्राम के उपरांत पूछ ही दिया " आपने कहा था यह भूरी बिल्ली सुख संपत्ति सब लाएगी ।। " यहाँ लक्ष्मी का वास है। तब से हम लोग इसकी सेवा ही कर रहे हैं मगर ---
सन्यासी बोले " बेटा, मुझे लगता है तुम सदाब अपने अपने कर्तव्यों से विमुख हो गए
"आगे बेर , पीछे रेड का पेड़ , एक भूरा बिलार क्या करेगा भाई" कर्म क्यों छोड़ा ? घर की देख रेख साफ़ सफाई उद्योग परिश्रम प्रयत्न ये हमारे कर्तव्य हैं । इनके साथ ही भाग्य भी कम करता है ।। घर के सामने इतना बड़ा बेर का पेड़ हो गया और पीछे रेड का वृक्ष ? यह तो कम न करने और आलस्य का प्रतीक है । एक अकेली भूरी बिल्ली { भाग्य} क्या करेगी भाई ?
दंपत्ति का विस्मित होना अतार्किक था । भाग्य के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता । हम अपने कर्तव्य ,लगन और परिश्रम से विमुख नहीं हो सकते । शायद दंपत्ति सन्यासी की बातों को नहीं समझ सका .----------- मगर----

Sunday, June 21, 2009

टंगी जिंदगी

" पापा, चाय कमरे में ही ले आऊँ? या आप सामने वाली बालकनी में आएगें ."मैंने किचेन में अदरख कूट कर चाय में डालते हुए ज़ोर से कहा । " सुबह हो गई क्या? खोलो , खोल दो खिड़कियाँ , सरका दो परदे , बानी ,मेरा दम घुट रहा है। । साँस नहीं आ रही है।" पापा जी की परेशानी भरी आवाज़ से मैं चौंक गई।
अस्सी वर्षीय पापा को मम्मी के न रहने पर हम लोग बरेली वाले पुश्तैनी घर से अपने यहाँ दिल्ली ले आए । सब कुछ ठीक ही था । फ़िर भी अकेले कैसे छोड़ दिया जाए । चुस्त , दुरुस्त , खाने पीने के शौकीन , तने खडे , कहीं पर भी झुके नहीं । याददाश्त इतनी तेज़ की छोटी छोटी बात या घटनाओं को फ़िल्म सरीखी सुना दें । हिसाब की ताब में माहिर , अपनी बात समझाने और मनवाने के जिद्दी और हठीले । पापा जी का अपना ही एक अनोखा व्यक्तित्व है।
दिली के पाश इलाके में बहुमंजिली इमारत , गगनचुम्बी , और भव्य । उसी में हमारा फ्लैट , तीन बेडरूम , सुख सुविधाओं और सुरक्षा से सम्पन्न , सुंदर , आकर्षक। सातवाँ तल्ला । नीचे पार्क , फ़व्वारे ,स्वीमिंगपूल , बच्चों के खेलने के लिए झूले न कोई डर न कोई परेशानी । साफ़ सुथरा , दो दो लिफ्ट अच्छा पड़ोस मगर पापा, पापा को तो बीएस एक ही धुन --मेरा घर - मेरी धरती , मेरी मिट्टी की सोंधी महक , मेरे लोग ।
बानी , कहाँ हो तुम ? तुम्हारे आफिस का समय हो रहा होगा । मैं बालकनी में आ जाता हुईं " गज़ब का है तुम्हारा घर ? हर कमरा एसी से कूल एकदम शिमला । न रात का पता नं दिन का । एक कमरे से टहलते दूसरे कमरे में । कभी टीवी , कभी कम्प्यूटर , या फ़िर कुछ किताबें पढ़ना । लिखना क्या ? अब तो चिठी - पत्री का ज़माना ही न रहा । फोन पर ही बहुत है। किसको टाइम है ?उनकी बातें सोच ही रही थी की पापा की आवाज़ फ़िर सु नाई पडी । " रोहित कब लौटेगा टूर से ? महीने में पन्द्रह दिन तो बाहर ही रहता है । और तुम कब तक आओगी ?
६ बजे आफिस छूटेगा पापा, आते आते आठ बज ही जाएगा पापा । नौकर से आप खाना बनवा लीजिएगा .क्या पसंद करिएगा आप ? निकाल कर रख जाऊँगी " मैंने प्यार से दुलराते हुए कहा। "{ ठीक है , ठीक है , मेरे लिए परेशान न हो बेटा , " बात करते करते मैं बाथरूम में घुस गई .ठंढे पानी के फुहारों के बीच भी मन घूमता रहा पापा के इर्द गिर्दा । क्यों सब बूढे होते लोग इतने "रिजिड" और सिनिकल " हो जाते हैं । ? पापा तो इतने "रैशनल" इंटेलिजेंट" , और समझदार हैं कितने सहज भाव से कह जाते हैं" जहाँ आदमी पलता बढ़ता है वहां के उसी वातावरण में वह घुल मिल जाता है। अपने को सुरक्षित समझता है। और बडे होने पर "ओल्ड होनेपर " चेजं इन एनी थिंग इज अ स्लो एंड टाइम टेकिंग पेनफुल प्रोसेस , वेरी पेनफुल " कितनी सुंदर कविता की लाइनें ----" जीवन की सौ सुख सुविधा में मेरा मन बनवास दिया सा " । कितना सुंदर । " हैत्ट्स ऑफ तू यु पापा " पापा आपका मन अब इस उमर में भी इतना कोमल और भावुक है कैसे ?
नहाते नहाते अचानक पानी की फुहारें बंद हो गईं । विचारों को एक झटका लगा । " अरे यह क्या? आज टंकी में पानी भरना भूल गई ? ऑफ़ मैं भी कितनी पागल हूँ । बात रूम से ही चिल्लाई " प्लीज़ पापा , पानी का स्विच चला दीजिये " । मन भटकने लगा । टूटी कडी फ़िर से जोडी । बडा सा घर , बरेली वाला, आँगन , लान , नौकर चाकर , मम्मी , पापा , भाई बहन । चहल पहल सबका मिल जुल कर मन लग जाता । काम भी बंट जाता , तीज त्यौहार का अपना मज़ा । क्यों ये एकल परिवार ?मैं , मेरा पति , मेरा बच्चा , सुख सुविधा ,पैसा ,घर का आनंद भोगने के लिए समय भी तो होना चाहिए । किस के लिए ये भाग दौड़ ."आनंद " है कहाँ ?
अपने सर पर चपत मार कर मैंने ख़ुद को एलर्ट '"किया । " छोड़ो ये सब बेसिर पैर की बातें । मेरे आफिस में आज "इंस्पेक्शन " है । उसका क्या होगा ? थोड़ा सा कम पेंडिग है " बालों में लगाते लगाते " ॐ नमः शिवाय का ग्यारह बार उच्चारण किया । हे भगवान् सब ठीक रखो " की मंगल कामना के साथ घडी देखी तयार होने में आधा घंटा लगा था । कमरे से बाहर आई .तो पापा जी टेबल पर अखबार देख रहे थे । " मैं चलूं पापाजी , आपके लिए चाय थर्मस और नाश्ता टेबल पर लगा दिया है । देखिये -- खा लीजिएगा। जल्दी से मैंने पैर छुए और लिफ्ट में जा खडी हुई ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया। घर छूट रहा था। आफिस , बॉस , इंस्पेक्शन आखों के सामने नाच रहे थे । मगर मन सोच रहा था- आँखों पर चश्मा चढ़ाये पेपर हाथ में लिए पापा शायद रोज़ की तरह दरवाज़े तक आये होंगे। फिर बालकोनी में खड़े हो गए होंगे। सामने उनके भाग रही होगी ज़िन्दगी- अपार्टमेंटों में हलचल, गाड़ियां धडा धड निकल रही होंगी कैम्पस से। लेकिन पापा-पापा की दिनचर्या तंगी थी उसी बल्कान्य में ठहरी थी, लटकी थी, त्रिशंकु की तरह। न धरती पर न आकाश में उस अपार्टमेन्ट की बालकनी में। पता नहीं क्यूँ मेरा मन उदास हो गया.

Sunday, June 14, 2009

सोचना ज़रूरी है .

अज्ञात शक्तियों पर विश्वास करने से कहीं बेहतर है हम अपने द्वारा किए गए कर्म , बाहुओं की शक्ति को पहचाने और उसका उपयोग करे । यदि मनुष्य साहसी निर्भीक और विचारों में मजबूत , नैतिकता की दृष्टि से सही हो तो आने वाली सारी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं । फूंक फूंक कर कदम रखने वाले मंजिलें तय नहीं करते। निर्बल, संकोची , डरपोक और नाज़ुक आदमियों से किसी को सहानुभूति नहीं होती .दीन हीन और दया का पात्र बनने से अच्छा है ईर्ष्या का पात्र होना .संघर्षों से गुज़र कर सोने की तरह तप कर चमक जाना , संतुलित ,गंभीर व्यक्तित्व का निखरना .

Saturday, June 13, 2009

अहा, गगन में चाँद उगा है .

अहा, गगन में चाँद उगा है।
दिन भर की हर तपन थकन को दूर किया है।
हरख ,हरख मन डोल रहा है ।
अहा, गगन में चाँद उगा है।
शीतल , उज्जवल , पावन, कोमल,
झर झर झरी चांदनी भू पर।
पीडा , ज्वाला ,कम्पन , क्रंदन,
सब को शांत किया है ।
अहा गगन में चाँद उगा है।
जहाँ तहाँ छिटके हैं तारे ,
आशाओं के अंकुर सारे
,झिलमिल झिलमिल बिखरे पथ पर ।
जीवन को आश्वस्त किया है
अहा गगन में चाँद उगा है.

Friday, June 12, 2009

जीवन - संध्या में

स्नेह का ये स्रोत उमडा,
कब किधर से कुछ न जाना ।
कठिन जीवन सिक्त होगा
धार इसकी मत सुखाना
राह लम्बी, भार गुरुतर
झेलने कंटक पडेगें -,
फ़िर भ्रमर बंदी बनेगें ,
फ़िर पवन झोंके चलेगें ,

फ़िर खिलेगें फूल प्यारे ,
फ़िर सजेगें नील
नभ में चाँद तारे
,झर झर झरेगी चांदनी
,बस मगर इक हम न होंगें .
गर कहीं कुछ मन दुखा हो
गर कहीं कुछ टूटता हो ,
जब कभी मन डूबता हो ,
याद करना वे सुखद दिन ।
बीतते सुख से चलेगें ,
रस भरे हर पल लगेगें ।
बस मगर इक हम न होंगें ।
बस मगर इक हम न होंगें

Tuesday, June 9, 2009

टेलीविजन और छोटे बच्चे

दूरदर्शन आज मनोरंजन का सबसे बड़ा और लोकप्रिय साधन है । छोटे बड़े सभी बिना किसी प्रयास के अपना समय बिता लेते है । और बार बार सकारात्मक सोच के साथ बचपन से ही माता पिता बच्चों को टेलीविजन से जोड़ने का प्रयास करते है किंतु "अति सर्वत्र वर्जयेत " बहुत अधिक समय तक टेलीविजन देखना विशेषकर छोटे बच्चों के लिए हानि कारक हो सकता है। शुरू शुरू में तो सब को अच्छा लगता है की वह टेलीविजन से पूरी तरह अवगत है स्वयम हीउसका प्रयोग कर सकता है । किंतु ध्यान देने की जरूरत है।




यहाँ मैं दो वर्ष से छ वर्ष तक के बच्चों की ही बात करूंगी । इस उम्र के बच्चे बिना टेलिविज़न देखे भी रह सकते हैं क्योंकि ये वर्ष उनके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत ज़रूरी हैं। यह कहे जाने पर अभिवावक असंतोष प्रकट करते है । और कहते हैं की समय बदल गया है। जमाने के साथ चलनाचाहिए । हमाराबेटा पिछड़ जाएगा। " उनका यह सोचना प्रत्यक्ष रूप में तो सही लगता है लेकिन आगे चल बुरे प्रभाव भी दिखाई detein हैं । फ़िर स्थिति हमारे नियंत्रण के बाहर हो जाती है .यह इन नन्हें बच्चों के इन वर्षों शोर मचने वाला यंत्र ही साबित होता है । एक दूसरे के प्रति मेल जोल , आस पास के वातावरण के हर पल का आनंद लेना भूल जाता है । उसके प्रति प्रतिक्रियाएं व्यक्त नहीं कर पाता । हमारे बच्चों को " सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए लेकिन उसकी भी एक सीमा है । क्योंकि टेलीविजन के कार्य क्रमों का प्रभाव हमारे शारीरिक, मानसिक, और सामजिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। इसके बहुत से नकारात्मक प्रभाव हैं । जिसमे की मोटापा प्रमुख है। रिसर्च बताता है की जो टेलीविजन ज्यादा देखते हैं उनके "ओवेर - वेट " होने की संभावना अधिक होती है। क्योंकि वे अपना अधिक समय उसके सामने बैठ कर बिताते हैं। विज्ञापनों को देखते हैं जिसमें आकर्षक तरीके से "हाई- कैलोरी फूड " आदि रहतें हैं बच्चे ऐसे खानों के लिए जिद करते हैं .मैगी , पिज्जा कोकाकोला आदि.,कई माताएं बच्चों को बहला फुसला कर खाना खिलाने के लिए टीवी पर "कामिक" , फ़िल्म आदि लगा देती हैं .और उन्हें "मोटीवेट" करती हैं । यही नहीं बच्चे स्मोकिंग, सेक्सुअल रिस्क " खाने पीने में अनियमितता और "अबुजेज़ "सीखते हैं।


अनुसंधान यह बताते हैं की टीवी प्रोग्राम में दिखाई जाने वाली हिंसा बच्चों में डर , उत्तेज़ना , आक्रामकता , और विद्रोही व्यवहार को बढावा देती है। कम नींद का होना, पढाई में ध्यान न लगना और एकाग्रता की समस्या अक्सर बच्चों में आ जाती है। वे असंवेदनशील हो जाते हैं। बच्चे जब हिंसा से अपना मनोरंजन करते हैं तो वे कठोर , निर्दयी संवेदना शून्य हो जाते हैं। और किसी भी प्रकार के दबाव को सहन नहीं कर सकते । और हमारे स्कूलों , समाज और समुदायों को और अधिक हानिकारक बनाते हैं।


थोड़े से बड़े बच्चों के लिए शैक्षिक प्रोग्राम बेहतर हैं, लेकिन दो वर्ष से कम बच्चों के लिए नहीं । क्योंकि उनका कोई सकारात्मक प्रभाव उन पर नहीं देखा जा सकता । उनका मस्तिष्क पूरी तरह से इतना विकसित नहीं होता की वे स्क्रीन से कुछ सीख सकें यहाँ तक की "बेबी- वीडियो " भी उनके सामान्य और समुचित विकास में देरी कर सकते हैं.वास्तव में हानि पहुँचा सकतें हैं।


दूसरा पक्ष या तर्क दिया जा सकता है की क्या टीवी कासब बुरा या ग़लत ही प्रभाव होता है ? कुछ भी अच्छा प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता ?अगर देखा जाए तो दो वर्ष से बड़े बच्चों के लिए टीवी के शिक्षा संबंधी प्रोग्राम उनके भाषा संबंधी कुशलता को बेहतर करने में सहायक हो सकतें हैं लेकिन उसके लिए ज़रूरी है की "इंटर -आक्टिव शोज़ " को चुना जाए , ये प्रोग्राम शिक्षा के अनुभवी व्यक्तियों के द्वारा तैयार किया जाता है जो एकदम सही से जानते है की कौन सी विकसित की जाने वाली "स्किल्स " हैं और किस उम्र के लिए हैं । वे इन प्रोग्रम्स को देखने वाले छोटे दर्शकों ,बच्चों से सोच समझ कर की गई प्रतिक्रियाएं मांगते हैं। इसलिए जानकारियाँ केवल एकतरफा बच्चों के ऊपर से निकल जाने वाली नहीं होती.अपितु उम्र के अनुसार अहिंसात्मक वीडियो गेम्स बच्चों की समस्यायों का समाधान करने में सहायक हो सकतें हैं ।


यदि बच्चों को काल्पनिक , क्रियात्मक ,और शारीरिक क्रियाओं से भर पूर खेल खेलने को दिए जाएँ तो उन्हें टीवी देखेने की ज़रूरत ही न पड़े । यह व्यवस्था दो से छ वर्ष के बच्चों के लिए की जा सकती है । खेलना , बच्चों से मिलना, पार्क में, लूडो , कैरम। फूटबाल, छुपा छुपी , आदि छोटे छोटे खेलों में उन्हें व्यस्त रख कर टीवी से दूर रखा जा सकता है।


मूवी को आजकल रेटिंग किया जाता है की बच्चों के लिए उपयुक्त है या नहीं । मगर यह बहुत भरोसे का नहीं होता है। क्योंकि सब कुछ व्यापारिक हो चुका है


सबसे अच्छा तो यह होगा की अभिवावक स्वयम सोंचें , समझें और देख कर यह निश्चित करें की वीडियो गेम, टीवी, सिनेमा में से कौन सा सबसे प्रभावशाली माध्यम जो उनके बच्चों के वातावारण संबंधी स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है ? उन्हें विशेष रूप से ख्याल रखना होगा , सतर्क व सावधान होना होगा की उनका बच्चा किसका इस्तेमाल कर रहा है । वे उतनी ही चिंता इसकी भी करें जितनी बच्चे के खाने पीने रहने - सहने की रखतें हैं । बच्चों को सही माध्यम को चुनना भी सिखाना चाहिए केवल फैशन "ट्रेंड " को देख कर नहीं.

Monday, June 8, 2009

कौन है जिम्मेदार ?

परिवर्तन सृष्टि का नियम है । चलते रहना जीवन और रुक जाना मृत्यु । समाज के विकास में भी यही नियम है मान्यताएं बदलती है , आव्यशकता अनुसार विचार भी बदलते हैं , सोच और दिशाएँ बदलती हैं । नहीं बदलतें हैं तो शाश्वत नैतिक मूल्य । नैतिक मूल्यों में और उनके व्यावहारिक प्रयोग में निरंतर गिरावट देखी जा रही है । माता , पित्ता, परिवार के सदस्य , विद्यालय , अध्यापक , शिक्षा शास्त्री , हैरान परेशान हैं । मौखिक रूप से हर व्यक्ति अपनेस्तर पर दया , प्रेम, परोपकार, आदर सम्मान सहयोग भाई चारा आदि के संस्कार को देने की कोशिश कर रहे है । लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं । जितना नैतिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है लोग सतर्कता बरत रहें हैं उतने ही भयानक और विपरीत प्रभाव हमें दिखाई पड़ रहे हैं ।
क्या है इसका कारण ? कहाँ हम चूक रहे हैं ? कौन है जिम्मेदार? कौन सी चीजें हमें पतन की और खींच रहीं हैं ? सभी अपने अपने दायित्वों को सही बता कर मीडिया को ही दोषी सिद्ध कर रहे है। क्या सारा दोष मीडिया का ही है? मीडिया भी तो व्ही दिखा रहा है जो पब्लिक देखना चाहती है । कारण मिले तो समाधान भी मिल सकता है ।

Friday, June 5, 2009

पर्यावरण दिवस ----एक छलावा

नगरों, महा नगरों में लगातार ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं
जहाँ आकाश नहीं , शुद्ध वायु नहीं
पानी नहीं , और कहने को भूमि नहीं,
दम घुटा जा रहा है, जीने के लिए ,
तरस रहा है एक बूंद पानी के लिए ,
छटपटा रहा है साँस लेने के लिए ,
जहाँ आकाश नही शुद्ध वायु नहीं ।
सभाएँ हो रहीं हैं , विज्ञापन दिए जा रहे हैं
भाषण पे भाषण हो रहे हैं , रिसर्च जारी है.
"पर्यावरण दिवस" मनाया जा रहा है , फ़िर भी
ऊंची से ऊंची अट्टालिकाएं ------
सब कुछ वैसा ही चल रहाहै
कहीं कोई शांती नहीं , कोई ठहराव नहीं,
हम हैं की भागे जा रहे हैं, भागे जा रहे हैं ,
और भागे जा रहे हैं ------------