Sunday, June 21, 2009

टंगी जिंदगी

" पापा, चाय कमरे में ही ले आऊँ? या आप सामने वाली बालकनी में आएगें ."मैंने किचेन में अदरख कूट कर चाय में डालते हुए ज़ोर से कहा । " सुबह हो गई क्या? खोलो , खोल दो खिड़कियाँ , सरका दो परदे , बानी ,मेरा दम घुट रहा है। । साँस नहीं आ रही है।" पापा जी की परेशानी भरी आवाज़ से मैं चौंक गई।
अस्सी वर्षीय पापा को मम्मी के न रहने पर हम लोग बरेली वाले पुश्तैनी घर से अपने यहाँ दिल्ली ले आए । सब कुछ ठीक ही था । फ़िर भी अकेले कैसे छोड़ दिया जाए । चुस्त , दुरुस्त , खाने पीने के शौकीन , तने खडे , कहीं पर भी झुके नहीं । याददाश्त इतनी तेज़ की छोटी छोटी बात या घटनाओं को फ़िल्म सरीखी सुना दें । हिसाब की ताब में माहिर , अपनी बात समझाने और मनवाने के जिद्दी और हठीले । पापा जी का अपना ही एक अनोखा व्यक्तित्व है।
दिली के पाश इलाके में बहुमंजिली इमारत , गगनचुम्बी , और भव्य । उसी में हमारा फ्लैट , तीन बेडरूम , सुख सुविधाओं और सुरक्षा से सम्पन्न , सुंदर , आकर्षक। सातवाँ तल्ला । नीचे पार्क , फ़व्वारे ,स्वीमिंगपूल , बच्चों के खेलने के लिए झूले न कोई डर न कोई परेशानी । साफ़ सुथरा , दो दो लिफ्ट अच्छा पड़ोस मगर पापा, पापा को तो बीएस एक ही धुन --मेरा घर - मेरी धरती , मेरी मिट्टी की सोंधी महक , मेरे लोग ।
बानी , कहाँ हो तुम ? तुम्हारे आफिस का समय हो रहा होगा । मैं बालकनी में आ जाता हुईं " गज़ब का है तुम्हारा घर ? हर कमरा एसी से कूल एकदम शिमला । न रात का पता नं दिन का । एक कमरे से टहलते दूसरे कमरे में । कभी टीवी , कभी कम्प्यूटर , या फ़िर कुछ किताबें पढ़ना । लिखना क्या ? अब तो चिठी - पत्री का ज़माना ही न रहा । फोन पर ही बहुत है। किसको टाइम है ?उनकी बातें सोच ही रही थी की पापा की आवाज़ फ़िर सु नाई पडी । " रोहित कब लौटेगा टूर से ? महीने में पन्द्रह दिन तो बाहर ही रहता है । और तुम कब तक आओगी ?
६ बजे आफिस छूटेगा पापा, आते आते आठ बज ही जाएगा पापा । नौकर से आप खाना बनवा लीजिएगा .क्या पसंद करिएगा आप ? निकाल कर रख जाऊँगी " मैंने प्यार से दुलराते हुए कहा। "{ ठीक है , ठीक है , मेरे लिए परेशान न हो बेटा , " बात करते करते मैं बाथरूम में घुस गई .ठंढे पानी के फुहारों के बीच भी मन घूमता रहा पापा के इर्द गिर्दा । क्यों सब बूढे होते लोग इतने "रिजिड" और सिनिकल " हो जाते हैं । ? पापा तो इतने "रैशनल" इंटेलिजेंट" , और समझदार हैं कितने सहज भाव से कह जाते हैं" जहाँ आदमी पलता बढ़ता है वहां के उसी वातावरण में वह घुल मिल जाता है। अपने को सुरक्षित समझता है। और बडे होने पर "ओल्ड होनेपर " चेजं इन एनी थिंग इज अ स्लो एंड टाइम टेकिंग पेनफुल प्रोसेस , वेरी पेनफुल " कितनी सुंदर कविता की लाइनें ----" जीवन की सौ सुख सुविधा में मेरा मन बनवास दिया सा " । कितना सुंदर । " हैत्ट्स ऑफ तू यु पापा " पापा आपका मन अब इस उमर में भी इतना कोमल और भावुक है कैसे ?
नहाते नहाते अचानक पानी की फुहारें बंद हो गईं । विचारों को एक झटका लगा । " अरे यह क्या? आज टंकी में पानी भरना भूल गई ? ऑफ़ मैं भी कितनी पागल हूँ । बात रूम से ही चिल्लाई " प्लीज़ पापा , पानी का स्विच चला दीजिये " । मन भटकने लगा । टूटी कडी फ़िर से जोडी । बडा सा घर , बरेली वाला, आँगन , लान , नौकर चाकर , मम्मी , पापा , भाई बहन । चहल पहल सबका मिल जुल कर मन लग जाता । काम भी बंट जाता , तीज त्यौहार का अपना मज़ा । क्यों ये एकल परिवार ?मैं , मेरा पति , मेरा बच्चा , सुख सुविधा ,पैसा ,घर का आनंद भोगने के लिए समय भी तो होना चाहिए । किस के लिए ये भाग दौड़ ."आनंद " है कहाँ ?
अपने सर पर चपत मार कर मैंने ख़ुद को एलर्ट '"किया । " छोड़ो ये सब बेसिर पैर की बातें । मेरे आफिस में आज "इंस्पेक्शन " है । उसका क्या होगा ? थोड़ा सा कम पेंडिग है " बालों में लगाते लगाते " ॐ नमः शिवाय का ग्यारह बार उच्चारण किया । हे भगवान् सब ठीक रखो " की मंगल कामना के साथ घडी देखी तयार होने में आधा घंटा लगा था । कमरे से बाहर आई .तो पापा जी टेबल पर अखबार देख रहे थे । " मैं चलूं पापाजी , आपके लिए चाय थर्मस और नाश्ता टेबल पर लगा दिया है । देखिये -- खा लीजिएगा। जल्दी से मैंने पैर छुए और लिफ्ट में जा खडी हुई ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया। घर छूट रहा था। आफिस , बॉस , इंस्पेक्शन आखों के सामने नाच रहे थे । मगर मन सोच रहा था- आँखों पर चश्मा चढ़ाये पेपर हाथ में लिए पापा शायद रोज़ की तरह दरवाज़े तक आये होंगे। फिर बालकोनी में खड़े हो गए होंगे। सामने उनके भाग रही होगी ज़िन्दगी- अपार्टमेंटों में हलचल, गाड़ियां धडा धड निकल रही होंगी कैम्पस से। लेकिन पापा-पापा की दिनचर्या तंगी थी उसी बल्कान्य में ठहरी थी, लटकी थी, त्रिशंकु की तरह। न धरती पर न आकाश में उस अपार्टमेन्ट की बालकनी में। पता नहीं क्यूँ मेरा मन उदास हो गया.

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