Monday, June 29, 2009

आज की आजादी और टूटते परिवार

बदलते सामजिक और पारिवारिक मूल्यों में यह { वर्तमान} " संक्रमण काल " है जिसकी रूप रेखा अभी निश्चित रूप से मान्य नहीं हो पाई है । नैतिक नियम , परिवार में टोका टोकी , लड़के लड़कियों के समान अधिकार , कार्य , सोच , सबमें आमूल परिवर्तन देखा जा रहा है । परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किए गए व्यवहार या स्वतंत्र विचार को लोग आजादी में "खलल" , "हनन" या "बाधा " कहने लगे हैं । और "प्रेस्टीज इशू" बना लेते हैं । और वह मन मस्तिष्क पर इतना छा जाता है की कुछ स्त्रियाँ या पुरूष कोर्ट का दरवाजा तक खटखटाने पहुँच जाते हैं। आपस में मतभेद बढ़ते हैं । लोग अपने रिश्तों को तार - तार करते हैं । दुर्घटनाएं घटती हैं । परिवार बिखर जातें हैं । या दीवारें दरकतीं हैं । पति पत्नी से , माता ,पिता , बेटे बेटियों सेयहाँ तक की परिवार के अन्य रिश्तों में भी दरार - गाँठ पड़ती है। दूरियाँ बढ़ती हैं । " रिश्ते कानून से नहीं बनाए और जोड़े जाते हैं अपितु समझ बूझ , और कुछ बातों को नज़र अंदाज़ कर भी तकरार कम की जा सकती है । " कभी प्यार से समझा कर , और समझ कर कक दूसरे के हित का ध्यान रख कर भी अपनी आजादी बनाये रखी जा सकती है । और इन सबका मूळ आधार होता है "सहन शक्ति" , दोनों वर्गों की । लड़के लडकियां , बड़े बूढों , छोटों सब में ही "सहन शक्ति और " उदारता " की भावना घट रही है॥ और अंहकार बढ़ रहा है । स्वाभिमान और अंहकार में अंतर है यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए ।
अब मुख्य प्रश्न है की "आजादी क्या है" ? नई पीढी आजादी से क्या समझती है ? उस दिन टीवी के एक चैनल पर सभी बड़े बूढे , किशोर, युवक युवतियां , आजादी पर अपने अपने विचार प्रकट कर रहे थे बड़े उत्साह के साथ -- आजादी --- मैं जो चाहे कर सकता हूँ , पढ़ना , लिखना , खेलना कूदना , जो मेरे मन में आए बिना रोक टोक के । ---"
आजादी - -अब मैं पंछी की तरह आजाद हूँ । कोई बंधन नहीं , अपनी तरह से रहना मेरी मर्जी "----
हर व्यक्ति अपनी अपनी तरह से "आजादी" को परिभाषित कर रहा था । सब में जो सामान्य बात थी वह थी " कोई रोक टोक नहीं " ..बंधन नहीं , अपनी मर्जी का मालिक , केवल मैं ,मेरा मन , मेरी इच्छा । शायद आज इसी को लोग "आजादी " समझने लगे हैं .परन्तु नहीं - - सुखी जीवन का रहस्य यह है -----
अपने साथ साथ , सबके साथ मिल कर स्वयम आगे बढ़ना और दूसरों को भी आगे बढ़ने के लिए वातावरण , जगह [स्पेस] देना । एक दूसरे की सामान्य जरूरतों को समझते हुए मान सम्मान देते हुए मिल जुल कर रहने की इच्छा के साथ काम करना और रहना । ना की अपनी मनमानी करना और रहना .जो दूसरों के लिए अपमानजनक और हानिकारक हो सकता है , मर्यादा में रह कर अपनी इच्छाओं को फूलने फलने देना न की मर्यादाहीन स्वछन्द व्यवहार ।
कौन जाने , कब , कहाँ , कैसे और किसको कोई सद्विचार प्रभावित कर जाए और उसमें आमूल परिवर्तन कर दे ? इसलिए सद्विचारों के बीज तो बिखरने ही चाहिए । ये अपनी जड़ों से उपजे विचार , मान्यताएं हैं जो दूब की तरह गाँठ - गांठ से विकसित होतें हैं , फैलते हैं । जैसे दूब की घांस फ़ैल कर ज़मीन को और वातावरण को हरा भरा बना देती है उसी तरह मन की सही सोच और काम करने के लिए उठे हाथ एक दूसरे को प्रभावित कर सहयोग से सब को आशा पूर्ण और सहृदय बनाता है । आपसी संबंधों को सरल ,सहज , और सकारात्मक
बना सकता है ।
परिवारों में खाने , पीने , पहनने , ओढ़ने , आराम करने हसने बोलने की आजादी के साथ साथ सुख सुविधा पूर्ण जीवन बिताने का अधिकार भी आता है जिसके पूरा नं हो पाने के कारण परिवार टूट रहे हैं । ये तो मूळ भूत ज़रूरतें हैं । और कहा जा रहा है की महिलाओं को कानून का संरक्षण मिल जाने के कारण उनकी सहन शक्ति कम हो रही है .. शिक्षा , आर्थिक सशक्ति करण , सभी छेत्रों में समान अधिकार महिलाओं को असहनशील और जिद्दी ही नहीं अतार्किक भी बना रहा है यह कहना और सोचना भले ही ग़लत न हो किंतु दुर्भाग्य पूर्ण है..

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