Saturday, October 30, 2010

सन्देश

वसंती हवा का का प्यारा सा झोंका ,
तरु की शिखा पर से सनसनाता
कलियों को झुक कर थपथपाता ,
बिंदास ,अल्हड ,और मस्त मौला ।
नदियों की चंचल लहरों को छू कर
आगे चला ---आगे चलता गया .
भवरों ने टोका ,तितली ने रोका
बटोही हो तुम ?कहाँ से चले हो ?
कहाँ जा रहे हो ? ठहरो ज़रा ;
कुछ सुनते सुनाते , गुनगुनाते
न रोको मुझे , न टोको मुझे
दूर जाना बहुत है ,लहरों का सन्देश ले कर
सागर किनारे ,बादलों के घर जाकर ।
की वो चल चुकीहैं ,वो आ रही हैं

न कोई पाती ,न कोई चिट्ठी
बलखाती लहरती,धुन में मचलती
खिंची आ रहीं हैं ,चली आ रहीं हैं
न रोको मुंझे न टोको मुंझे .बस
मैं आगे चलाहूँ .मैं आगे चला हूँ .

Saturday, August 21, 2010

यादें

बच्चों के बस स्टाप पर ,

एक पेरेंट ने पूछा ड्राइवर से ।

' खान सर चले गये क्या ?

'कहाँ'?

ऊपर'

हाँ , कल शाम पांच बजे '

अनमने से बस ड्राइवर ने बस आगे चला दी

मैं पीछे बैठी सोच रही थी

इंसान चला जाता है .रह जातीं हैं बस यादें ।

और बातें बाक़ी सब वैसे ही चलता है ।

वही सुबह ,वही शाम , वही संघर्ष ।

दौड़ -धूप , आगे पीछे ,का विचार विमर्श

एक अकेला घर का बापी , मुखिया

पीछे कुनबा नन्हे मुन्नों का , आपा धापी

यह सच है सबके पास सब कुछ नहीं होता .

लेकिन सबके पास 'कुछ' जरूर होता है ।

क्यों न हम उसे याद करें ,

बात करें अच्छे स्मृतियों के फूलों से

भर दें उसकी झोली , खुद को भी भर लें

Tuesday, August 3, 2010

बुलबुला पानी का

इस जीवन का क्या?
अरे बुलबुला पानी का
साँसों का आना जाना ,
पलकों का गिरना उठना
होगा क्या जिंदगानी का
अरे बुलबुला पानी का ,
आस लगी तब तक जीवन से ,
डोर बंधीं जब तक जीवन से ,
टूटा धागा , कच्चा धागा ,
अरे बुलबुला पानी का .
दया ,प्रेम करुना की करनी ।
सब कुछ जीव यहीं पर भरनी .
मुट्ठी में जो दाने हैं,
जीवन के कुछ लम्हें हैं .
पल पल है कितना अनजाना ,
सोच समझ कर उसे बिता ले
होगा क्या जिंदगानी का .
अरे बुलबुला पानी का ।
यहीं नर्क है ,यहीं स्वर्ग है
यहीं मोह की ममता माया ,
यहीं मोक्ष है ,यहीं परम है ,
यहीं ईश की कोमल छाया ।
इस जीवन का क्या ?
अरे बुलबुला पानी का
सोच समझ कर उसे बिता ले
होगा क्या जिंदगानी का ,
अरे बुलबुला पानी का .



का,

Monday, July 19, 2010

बरसों घन

तनिक घनघोर बरसो घन , अभी तुम और सरसों मन ।
अभी तुम और तरसो मन , तनिक घनघोर बरसो घन ।
झमाझम झम बरसती आज बरखा है,
कड़कड़ कड़ कडकती आज ताडिता है ,
अभी तुम और तरसो मन तनिक घनघोर बरसो घन ।
कभी हो ही नहीं सकतीं फिजायें एक सी जग में ,
कभी सुख है कभी दुःख है अजब है हाल इस जग में,
अभी तुम और तप लो मन,
तनिक घन घोर बरसो घन,
तपन तप आग की लेकर खरा सोना चमकता है ,
दुःख सुख को सहन कर ,
यह जीवन संवरता है ।
सह कर ,
अभी तुम और निखरो मन ,
अभीतुम और बरसो घन ।
तनिक घन घोर बरसो घन .

Sunday, June 20, 2010

महा नगर में

अभी तो हाथ पकडे , साथ साथ चल रही थी ज़िंदगी ।
उछलते कूदते ,नाचते गाते , कभी खिलखिलाते ,कभी गुदगुदाते ।
मेरी ज़िंदगी ।
छोटे शहर में समय थम गया था, घर , परिवार बच्चे ,शाद घुल गया था ।
महानगरी की चका चौंध में ये समय भगा चला जा रहा है ,
दौड़ते दौड़ते थक गई ज़िन्दगी ,उदास , हताश हो गई ज़िंदगी ।
कभी खिलखिलाती , कभी गुनगुनाती थी जो कभीकहाँ ?
चली गई वह मेरी जिन्दगी .

Tuesday, May 25, 2010

हिसाब किताब (क्रमश;)


मुझसे रहा नहीं गया .मैं दरवाजा खोल कर तेज़ी से प्राइवेट वार्ड की ओर बढ़ा .उसकी माँ रो रही थी .'डाक्टर साहब उसकी आँखें ,उसकी आवाज़ ,उसका भाव ---वह - राहुल नहीं ---सोमेश है डाक्टर .मेरे हजबैंड विवेक का बिजनेस पार्टनर .वह कह रहा है 'मुझे पहचानो --देखो मेरी आँखे --आप सब ने मेरे बिजनेस , मेरे हक का .,पचास लाख तीन हज़ार रुपया धोखा दे कर ले लिया था याद कीजिए स्विमिंग पूल में डूबने से सोमेश की मौत हुई थी .धक्का किसने दिया था ?तुम समझ ही गई होगी? इतने वर्षों की बीमारी में मैंने एक एक पाई वसूल ली है बीएस यही आखिरी तीन हज़ार बच रहें हैं और फिर मेरा हिसाब किताब पूरा हो जायगा .डाक्टर आ रहें हैं इंजेक्शन लिखेंगे जो तीन हज़ार का होगा .और फिर मेरा हिसाब पूरा हो जायेगा
.मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ ---सोमेश हूँ ,विवेक सिंह ---मुझे पहचानो --प्राणों की भीख मांगती मेरी आँखे - मैं दूब रहा था और तुम हाथ हिला रहे थे .पर तुम को दया न आई .मैं दूब गया विवेक मैं दूब गया "
डाक्टर साहब यह सब क्या बक रहा है ?सोमेश कैसे आ सकता है ?उसे मरे बीस साल से ज्यादा हो चुका है । बचा लीजिये वह मेरा बेटा राहुल है .ओह सोमशतुम ऐसा नहीं कर सकते ।
अनीता और विवेक को खींच कर बाहर ले जाया गया. इंजेक्शन पर इंजेक्शन -- अवाक ---मैं देख रहां हूँ उसके चेहरे पर न पीड़ा ,न दुःख मगर उसकी आँखों में और अधरों पर एक विद्रूप सी व्यंग भरी मुस्कान साफ़ नजर आ रही थी .शून्य की ओर ताकते ताकते उसके प्राण पखेरू उड़ गए .मैंने खुली आँखें बंद करदीं .और तुरंत बाहर निकल गया हम उसे बचा न सके थे .

लोग कहतें हैं

लोग कहतें हैं

लोग कहतें सपने तो देखा करो,
कुछ तो पूरे ह्होंगे कभी ये सोचा करों
पीछे मुड़ कर न देखो ,आगे बढ़ते चलो
लोग कहते हैं सपने तो देखा करों। ,

धुन लगी ही रही ,धुन लगी ही रही।
धन कमाने में मेरा ये दरबार छूटा
सभी द्वार छूटे और घर बार छूटा,
दिन फिसलते रहे उम्र बढ़ती रही।

'बिल्डिंगें 'बन चली और ऊंचीं हुईं ,
,सांस रुकने लगी दम भी घुटने लगा ,
सफ़र में अकेले ,तन्हाँ होता गया ,
राह चलते चलते मैं थकता गया ,

समय की कमी है , रुकना मुमकिन नहीं
राह चलना है , चलना है ,चलते रहे
मिल गया संसार ,फिर भी मगर ,
क्यों भटकता है मन , क्यों मचलता है मन

मिल गया सारा संसार फिर भी मगर ,
राह चलते रहे , हाथ मलते रहे .


Saturday, March 27, 2010

हिसाब -किताब

मैं एक डाक्टर हूँ .शुरू होता है मेरा दिन लगभग ७;३० बजे सुबह .पता नहीं ज्यादातर लोगों का यह विचार है की आज के डाक्टर संवेदनहीन और निर्दयी हो गये हैं ऐसे लोगों को डाक्टर नहीं बनना चाहिए जिनमें सहानुभूति और अपनापन न हो .लोग भगवान् मानते हैं हमें .मगर क्या सच में हम भवान का दर्ज़ा पा सकतें हैं? नहीं .इंसान को इंसान ही रहने दिया जाए भगवान् नहीं । लोंग यह क्यों नहीं समझते ?अभी मुझे निकलने में दस मिनट बाक़ी हैं .अचानक फोन की घंटी बज उठी .रिसीव करूं की न करूं --सोचता रहा क्योंकि निकलने का समय हो रहा था .घंटी बजती रही --बजती रही .अंत में मैंने उठा ही लिया ।

हेलो ---डाक्टर साहब ----रखियेगा मत फोन -----मैं मिसेज सिंह -अनिता -राहुल की माँ --राहुल बहुत तकलीफ में है दैलैसिस 'हफ्ते में तीन बार .दस साल से कितना दुःख भोग रहाहै ?अंत समय आ गया है क्या?तड़प तड़प कर ,तिल तिल कर मरते देखा नहीं जाता .वह जीना chahta है -वह जीना चाहता है फोन सुन रहे हैं न ? प्लीज़ ----- मैं बस यही बोल सका "घबराइये मत मैं अभी आ ही रहा हूँ "मैंने निर्लिप्त भाव से रिसीवर रख दिया ।

राहुल --- राहुल एक नया" पेशंट ' आया है डायलेसिस का -- हफ्ते में तीन बार .काला ,दुबला पतला ,कंकाल .किन्तु चमकतीं आँखें ,उम्र लगभग २५ वर्ष । मुझे याद है यह "राहुल "क्योंकि उसके पापा ,मम्मी भाई सुंदर सी भाभी सब अपने परिवार के इस सदस्य को जिन्दगी के लिए मौत से संघर्ष करते देख रहें हैं पैसा पानी की तरह बह रहा है .एक दूसरे की भावनाओं को समझते हुए आशा और सद्भावनाओं से राहुल को दुलराते सहलाते उनकी सुबह से शाम होती और शाम से फिर सुबह .हर परेशानियों को सहते हुए । सारा संघर्ष उस प्राणी की सेवा के लिए .

पर मेरे लिए वह मात्र मेरा "पेशेंट "है कैसे मैं जुड़ सकता हूँ भावनात्मक रूप से । रोज़ ही तो आतें ऐसे सीरियस पेशेंट्स " जीवन की आशा लिए ,कोई बच जातें हैं तो किसी की सांस की डोर टूट जाती है .पल भर को परिवार स्तब्ध .आंसू यंत्रवत सूख जाते हैं .एक 'चारपाई "से शरीर हटाया जाता है ,चादर बदला जाता है और प्रतीक्षा सूची का दूसरा रोगी उस बिस्तर पर लिटा दिया जाता है .पिछले वाले रोगी की यादें मिटनें लगतीं हैं वर्तमान दिखाई पड़ने लगता है .दिमाग और दवाएं , ड्रिप लगाना .रूटीन चेकप . सब कुछ मशीन की तरह यंत्रवत ।

कोई क्यों नाहीं समझता मेरी पीड़ा मेरा तनाव । सोचते सोचते एक जोर का झटका ---ब्रेक --सामने त्रोलीवाला बच्चों से लदी ,भरी ट्राली को रास्ता पर करा रहा था । मुख से एक गंदी भद्दी सी गाली निकलते निकलते बची । मैं चौंक उठा "ओह गौड़.चमत्कार .दुर्घटना होते होते बची .एक ज़ोरदार घुमाव के बाद मैं अपने नर्सिग होम में था। मुख पर सौम्य भाव लाते हुए हाथ जोड़ कर विनीत भाव से मैं तेज़ी से अपने कमरे में चला गया .पीछे पीछे दौडती परिजनों की भीड़ .कम्पाउदर की उनसे रूखी बात चीत सुन कर भी मैं कमरे में ही रहा........... क्रमश:

Thursday, March 25, 2010

मेरी गौरैया

मेरे घर उपवन में ,फूलों में ,और
पौधों के बीच ,झूले पर झूलते ,
गौरैये के झुण्ड को मैं ,
अक्सर देखती हूँ .मेरी बेटी ,
मेरी सों न चिरैया ---
मुझे तुम बहुत बहुत याद आती हो ,
मैं जानतीं हूँ तुम दूर बहुत दूर
सात समुन्दर पार ,
ऐसे ही अपने उपवन में
फूलों से घिरी सोच रही ,होगी
बीते दिनों की यादों में , खोई
बचपन के दिन खोज रही होगी
ओह कितना प्यारा है यह कलरव ,
मेरे घर आँगन में .मेरे उपवन में
ये रुनझुन ये गुनगुन , ,मेरी बेटी
hमेरी सोनचिरैया ,मेरी गौरैया .

Friday, March 19, 2010

स्वतंत्र भारत --क्रमश:

ऐसे वातावरण को तभी परिवर्तित किया जा सकता है जब हम शिक्षा द्वारा शाश्वत मूल्यों के महत्व को समाज में स्थापित कर सकें .हर अगली पीढी अपनी पिछली पीढी की अपेक्षा शाश्वत मूल्यों में अपनी आस्था खोती जा रही है.इस मूल्य विहीन होते राष्ट्र को बचाया जा सकता है केवल मूल्य परक vयवहार से जिसे देने का दायित्व परिवार, शिक्षालय .,व समाज का है. परिवार का वातावरण ,माता पिता का आचरण उनका प्रेमपूर्ण आपसी सम्बन्ध ,छोटेओबुज़ुर्ग के प्रति उनका सद व्यवहार ,पड़ोसियों के साथ अच्छा ताल-मेल आदि बालक में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था उत्पन्न करतें हैं .क्योंकि बालक का मन कच्ची मिट्टी के समान होता है .उस पर जो आकृति बना दी जाती है वह जीवन पर्यंत नहीं मिटती।
इसके बाद विद्यालय की भूमिका आती है मूल्यों की शिक्षा पुस्तकों ,प्रवचनों से छात्र ग्रहण या आत्म सात नहीं करते .आदर्श को देखना.उसे सुनने की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय होता है.इसीलिए वह सहज अनुकरणीय बन जाताहै.आदर्श शिक्षक अपने कार्य और जीवन शैली से शिक्षार्थी को प्रभावित करता है .और वे मूल्य जिन्हें वह शिक्षक स्वयम आत्मसात कर चुका होता है उन्हें आत्मसात करने के लिए बालकों में इच्छा उत्पन्न कर देता है यही वास्तविक मूल्यपरक शिक्षा होगी ।बाहिय { baahrii} रूप से यदि हम देखें तो इन विगत वर्षों में भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धियों से आम आदमी का जीवन भले ही बेहतर हुआ है किन्तु समग्र रूप में व्यक्ति और जीवन शैली में असंतुलन बढ़ा है .जो चिंता का विषय है सकारात्मक सोच और क्रियाशीलता पर भौतिकता और धन की महत्ता का प्रभाव नकारात्मक दिखाई पड़ने लगा है .विभिन्न आंकड़े यह दर्शाते है की प्रगति समाज ,देश ,और सब जनों में समान रूप से नहीं हुई है .अधिकतर सामान्य स्तर के लोग मानसिक तनाव और दोहरी मानसिकता के दंश
को झेलते हुए जी रहें हैं .उनके जीवन में परिवर्तन आया तो ज़रूर है मगर वह सुख शांती प्रदान करने वाला व प्रशंसनीय नहीं है .

Wednesday, March 17, 2010

स्वतंत्र भारत

भारत के स्वतन्त्रता की कहानी लगातार संघर्ष ,अथक प्रयासों ,एवं बलिदानों की कहानी है. पन्द्रह अगस्त को भारतएकस्वतंत्र देश घोषित कर दिया गया .अऔर उसी दिन से प्रति वर्ष हम अपनी मिली हुई आजादी को बनाए रखने का संकल्प करते हैं . देश की प्रगति का लेखा- जोखा करतें हैं . विचार विमर्श करतें हैं . अऔर फिर से जागरूक व सतर्क रहने के लिए तैयार होतें हैं.की फिर किसी गलती या भूल के कारण अनेक संघर्षों के बाद मिली आजादी को खो न दें . आजादी को मिले इकसठ साल पूरे होने जा रहें हैं सभी भारतीयों के ।मन में यह विश्वास था की अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर देश प्रगति करेगा. आदमी सुखी अऔर संपन्न होगा तथा समाज पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति को अपनाएगा .नईक्रान्ति के साथ नया समाज और नए विचार देश का बहुमुखी विकास करेगें .पर स्तिथी इसके विपरीत दिखती है ।
यह प्रपंचवाद का युग है ,घोटालों का युग है, नारे और विज्ञापनों का युग बन गया है .आज एक ऎसी उपभोक्तावादी संस्कृति अपने पैर पसार रही है जिसने हर वस्तु को उपभोग बना दिया है .यहाँ तक की धरोहर के रूप में मिले उच्च जीवन मूल्यों को भी अवसरवादी मानसिकता , सुविधा भोगी जीवन ने " भ्रष्टाचार " को "शिष्ट" आचार बना दिया है. जिस बदलाव और प्रगति की आकांशा थी वह परिणाम पारिवारिक, सामाजिक, और राजनीतिक विघटन में दिखाई पड़ता है.आज देश में गांधी,विनोबा भावे ,और स्वामी विवेकानंद जैसे कोई कद्दावर नेता नहीं हैं जो राष्ट्र को एक नई दिशा दे सकें .क्या यह घोर अनैतिकता नहीं है ?की जिस पदवी या कुर्सी के लिए हम योग्य नहीं हैं उस पर कूद कर जा बैठें हैं?

Friday, February 12, 2010

अधिकार

बात चाहे संसद में या सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए पदों के आरक्षण की हो या सम्पत्ति में बेटीओं के अधिकार की.पुरुष वर्ग के आँखों की किरकिरी बेटियाँ , माताएं, बहनें , या यूँ कहें महिलाएं ही क्यूँ ?मेरी समझ में यह नहीं आता।

अभी मैं पुरुष वर्ग के एक प्रतिनिधि भाई के रूप चर्चा करना चाहूंगी क्यूँकी इस समय पारिवारिक समस्याओं में यह भी दहेज़ की तरह फैलता जा रहा है.जिसका न कोई आदि है और न कोई अन्त। जब से इस बिल को मान्यता मिली है की पिता की सम्पत्ति में बेटियों का भी अधिकार है और कार्य रूप में परिणत किया गया है .बेटियों का मायका , भाई - बहन का सम्बन्ध दाँव पर लगा हुआ है ।

पिता के रूप एक पुरुष अपने बेटे बेटियों को बराबर नहीं तो कुछ भाग देने का मन अवश्य बनाने लगा है .कहीं कहीं पर लिख़ कर कानूनी तौर पर मज़बूत बना कर भी पिताओं ने वसीयत लिखी है.और कहीं पर मौखिक रूप ,कह कर बँटवारा किया है.या उन्हें दिया है. लेकिन "बिना लिखा यह नियम है की उन्हें यह भी लिख़ कर भाइयों को दे देना है की हमें इस में से कुछ नही चाहिए हम अपना अधिकार छोड़तें हैं। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो मायके की मधुरता ख़त्म ही समझिये ।

क्यों भाई के रूप में वही पिता अपने बहनों के प्रति इतना निर्मम हो उठता है ?और अपने पिता की सम्पति का भाग उसे देना नहीं चाहता वरण अपमानित व प्रताड़ित भी करता है। वही भाई अपने बेटे बेटियों को तो देना चाहता है मगर उसके बेटे बहन को नहीं देने देते ।

मनोविज्ञान का कौन सा भाग इस मानसिकता को पढ़ सकता है ?इसकी ख़ोज अभी बाक़ी है।

पाठकों से निवेदन है की इस ज्वलंत समस्या का समाधान और निदान सुझाएँ क्योंकि यह आग की तरह फैल रहा है और परिवारों को तोड़ रहा है .

Saturday, January 9, 2010

अप्प दीपो भव

महात्मा बुद्ध का यह वाक्य मुझे अत्यंत प्रिय है .मेरे जीवन का आदर्श है। संसार में कोई भी किसी का मार्ग दर्शक नहीं बन सकता ."अपना दीपक स्वयम बनो " .प्रकाश का पुंज चाहे कितना भी छोटा क्यूँ न हो गहन अन्धकार में मार्ग को प्रशस्त कर सकता है.लोगों के द्वारा सुझाये गये मार्ग' अनुभव .तर्क.ज्ञान , सब का अध्ययन क्र समझ कर मनकी कसौटी पर कस कर ही वह स्वीकार करने योग्य है । किसी ने कहा और हमने मान लिया क्यूँकी कहने वाला महापुरुष और संत है ? यह सच है की वह अनुभवी है ग्यानी है । नहीं ,जब तक अपने आप जांच परख न लिया जाय उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए .यही उपदेश था बुद्ध का।" अप्प दीपो भव।
अपने को इतना ,सावधान,जागरूक , और विवेकी बनाओ की दूसरों के अनुभव को अपने अनुकूल बना कर ग्रहण करो कोई किसी का जीवन निर्देश करे यह मैं नहीं मानती क्यूँकी दिशा निर्देश ।तो भीतर का है आलोक {स्व चेतना}ही कर सकता है। जीवन की यात्रा में हर मोड़. हर चोवराहे परिस्थिति में खतरा {रिस्क} तो लेना ही होता है .इसके लिए हम दूसरों को उत्तरदायी नहीं बना सकते.अपनी बुद्धि , विवेक ,साहस और सिद्धांत के सहारे ही हमें आगे जाना होता है . निर्णय लेना होता है .उसके ज़िम्मेदार हम खुद हैं. दूसरों पर दोषारोपण कर अपने को बचा लेना "पलायन "है."कायरता "है।
उम्र चाहे युवा अवस्थाहो या बुढापा .हाँ .छोटे बच्चों को इसमें नहीं रखा जा सकता .सही ,सशक्त , निर्भीक ,व्यक्तित्व की नीवं तो किशोर अवस्था में ही पड़ने लगती है .सौभाग्य चपल है.चंचल है इसलिए सावधानी का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए .