वसंती हवा का का प्यारा सा झोंका ,
तरु की शिखा पर से सनसनाता
कलियों को झुक कर थपथपाता ,
बिंदास ,अल्हड ,और मस्त मौला ।
नदियों की चंचल लहरों को छू कर
आगे चला ---आगे चलता गया .
भवरों ने टोका ,तितली ने रोका
बटोही हो तुम ?कहाँ से चले हो ?
कहाँ जा रहे हो ? ठहरो ज़रा ;
कुछ सुनते सुनाते , गुनगुनाते
न रोको मुझे , न टोको मुझे
दूर जाना बहुत है ,लहरों का सन्देश ले कर
सागर किनारे ,बादलों के घर जाकर ।
की वो चल चुकीहैं ,वो आ रही हैं
न कोई पाती ,न कोई चिट्ठी
बलखाती लहरती,धुन में मचलती
खिंची आ रहीं हैं ,चली आ रहीं हैं
न रोको मुंझे न टोको मुंझे .बस
मैं आगे चलाहूँ .मैं आगे चला हूँ .
Saturday, October 30, 2010
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