मैं एक डाक्टर हूँ .शुरू होता है मेरा दिन लगभग ७;३० बजे सुबह .पता नहीं ज्यादातर लोगों का यह विचार है की आज के डाक्टर संवेदनहीन और निर्दयी हो गये हैं ऐसे लोगों को डाक्टर नहीं बनना चाहिए जिनमें सहानुभूति और अपनापन न हो .लोग भगवान् मानते हैं हमें .मगर क्या सच में हम भवान का दर्ज़ा पा सकतें हैं? नहीं .इंसान को इंसान ही रहने दिया जाए भगवान् नहीं । लोंग यह क्यों नहीं समझते ?अभी मुझे निकलने में दस मिनट बाक़ी हैं .अचानक फोन की घंटी बज उठी .रिसीव करूं की न करूं --सोचता रहा क्योंकि निकलने का समय हो रहा था .घंटी बजती रही --बजती रही .अंत में मैंने उठा ही लिया ।
हेलो ---डाक्टर साहब ----रखियेगा मत फोन -----मैं मिसेज सिंह -अनिता -राहुल की माँ --राहुल बहुत तकलीफ में है दैलैसिस 'हफ्ते में तीन बार .दस साल से कितना दुःख भोग रहाहै ?अंत समय आ गया है क्या?तड़प तड़प कर ,तिल तिल कर मरते देखा नहीं जाता .वह जीना chahta है -वह जीना चाहता है फोन सुन रहे हैं न ? प्लीज़ ----- मैं बस यही बोल सका "घबराइये मत मैं अभी आ ही रहा हूँ "मैंने निर्लिप्त भाव से रिसीवर रख दिया ।
राहुल --- राहुल एक नया" पेशंट ' आया है डायलेसिस का -- हफ्ते में तीन बार .काला ,दुबला पतला ,कंकाल .किन्तु चमकतीं आँखें ,उम्र लगभग २५ वर्ष । मुझे याद है यह "राहुल "क्योंकि उसके पापा ,मम्मी भाई सुंदर सी भाभी सब अपने परिवार के इस सदस्य को जिन्दगी के लिए मौत से संघर्ष करते देख रहें हैं पैसा पानी की तरह बह रहा है .एक दूसरे की भावनाओं को समझते हुए आशा और सद्भावनाओं से राहुल को दुलराते सहलाते उनकी सुबह से शाम होती और शाम से फिर सुबह .हर परेशानियों को सहते हुए । सारा संघर्ष उस प्राणी की सेवा के लिए .
पर मेरे लिए वह मात्र मेरा "पेशेंट "है कैसे मैं जुड़ सकता हूँ भावनात्मक रूप से । रोज़ ही तो आतें ऐसे सीरियस पेशेंट्स " जीवन की आशा लिए ,कोई बच जातें हैं तो किसी की सांस की डोर टूट जाती है .पल भर को परिवार स्तब्ध .आंसू यंत्रवत सूख जाते हैं .एक 'चारपाई "से शरीर हटाया जाता है ,चादर बदला जाता है और प्रतीक्षा सूची का दूसरा रोगी उस बिस्तर पर लिटा दिया जाता है .पिछले वाले रोगी की यादें मिटनें लगतीं हैं वर्तमान दिखाई पड़ने लगता है .दिमाग और दवाएं , ड्रिप लगाना .रूटीन चेकप . सब कुछ मशीन की तरह यंत्रवत ।
कोई क्यों नाहीं समझता मेरी पीड़ा मेरा तनाव । सोचते सोचते एक जोर का झटका ---ब्रेक --सामने त्रोलीवाला बच्चों से लदी ,भरी ट्राली को रास्ता पर करा रहा था । मुख से एक गंदी भद्दी सी गाली निकलते निकलते बची । मैं चौंक उठा "ओह गौड़.चमत्कार .दुर्घटना होते होते बची .एक ज़ोरदार घुमाव के बाद मैं अपने नर्सिग होम में था। मुख पर सौम्य भाव लाते हुए हाथ जोड़ कर विनीत भाव से मैं तेज़ी से अपने कमरे में चला गया .पीछे पीछे दौडती परिजनों की भीड़ .कम्पाउदर की उनसे रूखी बात चीत सुन कर भी मैं कमरे में ही रहा........... क्रमश:
Saturday, March 27, 2010
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1 comment:
nice
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