बात चाहे संसद में या सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए पदों के आरक्षण की हो या सम्पत्ति में बेटीओं के अधिकार की.पुरुष वर्ग के आँखों की किरकिरी बेटियाँ , माताएं, बहनें , या यूँ कहें महिलाएं ही क्यूँ ?मेरी समझ में यह नहीं आता।
अभी मैं पुरुष वर्ग के एक प्रतिनिधि भाई के रूप चर्चा करना चाहूंगी क्यूँकी इस समय पारिवारिक समस्याओं में यह भी दहेज़ की तरह फैलता जा रहा है.जिसका न कोई आदि है और न कोई अन्त। जब से इस बिल को मान्यता मिली है की पिता की सम्पत्ति में बेटियों का भी अधिकार है और कार्य रूप में परिणत किया गया है .बेटियों का मायका , भाई - बहन का सम्बन्ध दाँव पर लगा हुआ है ।
पिता के रूप एक पुरुष अपने बेटे बेटियों को बराबर नहीं तो कुछ भाग देने का मन अवश्य बनाने लगा है .कहीं कहीं पर लिख़ कर कानूनी तौर पर मज़बूत बना कर भी पिताओं ने वसीयत लिखी है.और कहीं पर मौखिक रूप ,कह कर बँटवारा किया है.या उन्हें दिया है. लेकिन "बिना लिखा यह नियम है की उन्हें यह भी लिख़ कर भाइयों को दे देना है की हमें इस में से कुछ नही चाहिए हम अपना अधिकार छोड़तें हैं। अगर वे ऐसा नहीं करतीं तो मायके की मधुरता ख़त्म ही समझिये ।
क्यों भाई के रूप में वही पिता अपने बहनों के प्रति इतना निर्मम हो उठता है ?और अपने पिता की सम्पति का भाग उसे देना नहीं चाहता वरण अपमानित व प्रताड़ित भी करता है। वही भाई अपने बेटे बेटियों को तो देना चाहता है मगर उसके बेटे बहन को नहीं देने देते ।
मनोविज्ञान का कौन सा भाग इस मानसिकता को पढ़ सकता है ?इसकी ख़ोज अभी बाक़ी है।
पाठकों से निवेदन है की इस ज्वलंत समस्या का समाधान और निदान सुझाएँ क्योंकि यह आग की तरह फैल रहा है और परिवारों को तोड़ रहा है .
Friday, February 12, 2010
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1 comment:
You blog was shared with me by Pradiip Kumar Verma. I appreciate it. I read everything it has. I do know what to say, but I will say that writers like you will keep the values of Hindi and Indianness alive. Very good.
--Nichi Varaha
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