बच्चो में अनुशासन
पाँच वर्ष तक आयु तक बच्चों का बहुत ही प्यार दुलार से लालन पालन करना चाहिये। लगभग छः वर्ष से दस वर्ष तक उनमें सामान्य अनुशासन सिखाना चाहिये तथा उसके बाद मित्र के समान आचारण और व्यवहार करना चाहिए। यह विचार है हमारे भारत के प्राचीन बड़े बुर्जुग और नीतिशास्त्रियों के। जिनका उल्लेख संस्कृत के नीति श्लोकों में मिलता है। यदि आज के सन्दर्भ में इसे जोड़ा जाय तो यह सिद्धांत हमारे वर्तमान के उदण्ड और उच्छंखल होते बच्चो के लिये करगर सिद्ध हो सकता है।
आजकल प्रायः माता-पिता शुरू से लेकर 10-12 वर्ष तक उसे हर तरह से प्यार दुलार कर उनकी हर इच्छा और डिमाॅन्ड को पूरा कर आत्मसंतुष्टि का अनुभव करते है किसी भी गलत आचरण को टोकना ही नहीं चाहते समझ कर तर्क नहीं देना चाहते और अगर देते भी है तो उस स्तर को नही छू पाते कि बच्चा अपना निर्णय बदल सके। फलस्वरूप वह बच्चा ना सुनने का आदी नहीं होता और जिद्दी हो जाता है।
खाने, पीने, खेलने, चीजों के खरीदने, दुकानों में मचलते, यहाँ तक कि जिद में आकर दुकानों पर ही कुछ बच्चे-बच्चे लोट जाते है और तमाशा खड़ा कर देते है यह क्यों? इसलिए कि उसने अभी तक ना नहीं सुना है।
वह उस चीज को स्वीकार नहीं कर पाता छोटा होने के कारण उसकी हर जिद पूरी हुई है। जीवन संघर्ष है कभी हार तो कभी जीत हर चीज हर समय इच्छा के अनुसार नही मिल पाती इसलिए हमें यह प्रयत्नशील होना चाहिए कि जहाँ हम यह चाहते है कि बच्चा मोटीवेटेड रहे वहीं बीच-बीच में हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उसे हार का स्वाद चखने की भी आदत पड़े जिससे कि वह वास्तविक जीवन में हतोत्साहित व निराश न हो।
प्रायः कामकाजी माता-पिता सुबह से शाम तक व्यस्त रहते है। महगाइ और महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये दोनों ही अभिभावकों का काम करना भी जरूरी है बढ़तें तनाव और एकल परिवार के कारण कोई विकल्प न होने से माता-पिता अपने समय न दे पाने के ‘‘गिल्ट’’(अपराध बोध को) उनकी हर गलती को डर कर मान कर, आवश्यकता से अधिक सुविधाये और सामान देकर दूर करना चाहते है जो मेरे विचार से बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिये हानि कारक हो सकता है।
छः से 10 वर्ष तक का समय अनुशासन आदते और व्यवहार तौर करीके अपने संस्कारों को सिखाने का होता है यह उनके (6-10 वर्ष) भविष्य के नींव पड़ने का समय है। यदि सिखाने की प्रक्रिया में कुछ कठोरता माता-पिता के विशेष क्रियात्मक सहयाोग की जरूरत होती है।
इस समय अभिभावकों को अपने व्यवहार को भी बहुत संतुलित और आदर्शात्मक रखने की आवश्यता होती है। बच्चा जो देखता है वही सीखता है प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सब कुछ।
माता-पिता का एक दूसरे के प्रति सम्मान अच्छी भाषा, सम्बोधन, विनीत और संवेदनशील व्यवहार शान्त साफ सुथरा घर का वातावरण बच्चों के दिन प्रतिदिन के कार्यक्रमों और कामों में प्रेम पूर्ण सहयोग आदि उसे जिद्दी, उदण्ड और उच्छ्खल होने से बचा सकते है। वह एक संवेदनशील प्यारा सावधान जिज्ञासु बच्चा बन सकता है। खेल कूद, कराटे, फुटबाल, व्यायाम म्यूजिक के प्रति रूचि और हाॅबीज जगाने की यही सही उमर है। ये पाँच वर्ष- अभिभावक (माता-पिता) के लिये भी बच्चो को एन्जाॅय करने के है।
उसके बाद शुरू होता है व्यक्तित्व के विकास का दूसरा चरण। जिसमें माता-पिता की भूमिका उनके घनिष्ठ मित्र की तरह होती है।
‘‘दषवर्शाणि पष्चात् मित्रवत् आचरेत्’’
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