Monday, May 18, 2009

बदलती परिभाषा -- आज का वानप्रस्थ

मैं एक शिक्षिका थी , यानी अब कार्य सेवा से मुक्त हो चुकी हूँ । घर में ही रह कर समय बीतता है। अक्सर परिचित अपरिचित लो ग आ ही जाते हैं । बात चीत के दौरान एक दो प्रश्न लोग पूछ ही बैठे ते हैं। आप लोग अकेले ही रहते हैं ? परिवार में कौन कौन रहते हैं आपके ? समय कैसे बीतता है ? प्रश्न है भी सहज और स्वाभाविक । कुतूहल तो होगा ही। मेरे होठों पर मंद मुस्कान बिखर जाती है। थोड़ी अन्म्य्स्क सी हो उठती हूँ ।
कौन से परिवार का परिचय दूँ ? वह जिसमें बेटा , बेटी, बहू , दामाद , उनके बच्चे जो अपने अपने परिवार में खुश देश विदेश में बसे जीवन यापन कर रहे हैं। फोन पर उनके प्यारे प्यारे बच्चों से बातें हो जातीहैं । वेब कैम उन सब को देख कर खुश हो लेती हूँ ।
अथवा उस अनोखे परिवार की जिनके साथ मेरे दिन प्रति दिन का सुख दुःख जुटा है। जिनकी देख रेख में मेरे रात दिन का कार्य क्रम चक्र की तरह घूमता है । कभी रातों की नीद उड़ जाती है तो कभी दिन का चैन । कुछ सदस्य बोलेतें हैं तो कुछ अबोले । किसी के प्यार और संवेदना का कोमल स्पर्ष तन मन को ऊपर से नीचे तक स्नेह से तर बतर कर भिंगो जाता है। तो किसी की आँखें अन्य क्रिया कलाप , बिना बोले ही बहुत कुछ कह जाते हैं। और बीत जाता है एक दिन । सुबह से होती शाम ,विभिन्न रंगों से भरा दिन ।
हाँ , मैं अपने पैंसठ वर्षीय पति के साथ खुले, शांत , फूल पौधों से घिरे एक छोटे से काटेज नुमा घर में रहती हूँ .बच्चे देश विदेश में .घर के पूर्व दिशा में एक छोटा सा पोंड है । उदित होते सूर्य की प्रथम किरणों के स्पर्श से प्रफुल्लित तरंगित जल में विभिन्न रंग बिरंगी मछालिओं का समूह । चारों तरफ पक्षिओं का मधुर कलरव । पहचानती हूँ हर फूल , पौंधों, और पत्तों को .गौरैयों का खिलखिलाता झुंड , सुबह सुबह ही पेड़ के शाखाओं पर लगे झूलों पर झूलने लगताहै। चावल के दानों को खाने के लिए कभी गौरया , कभी पंडुक पक्षी तो कभी गोल मटोल , भूरी , शोर मचाती गोलकी चिडिया ।बडा ही प्यारा लगता है इनका चहकना , और शोर मचाना।
हाँ, मेरा परिवार , उसकी परिभाषा बदल सी गई है। जीवन की इस गोधूली में । रीटायर मेंट आधुनिक समय का " वांन प्रस्थ"आश्रम।
मेरे वर्तमान परिवार का सबसे प्यारा क्यूट सदस्य है लासा आप्सो कुत्ता पौपिंस .सफ़ेद , भूरा , काला कुल मिला कर किर मिची सा रंग । झबरे , घने , बाल नन्हा पौपिंस .शुरू होता है मेरा दिन , उसके नन्हे हाथों को मेरे गले में दाल कर अंगडाई लेने से । गोदी में चढ़ कर प्यार कराने से । पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है कोई इसे कुत्ता न कहे । वह तो प्यारी स्लिम ट्रिम कटे बालों वाली प्यारी बिटिया सी लगती है। क्यूट चुलबुली चौऊ मौऊ । दौड़ दौड़ कर लॉन में छका छका कर खेलना , लुका छिपी का खेल । खेल खेल कर मुझे थका देना । सुहावनी सुबह और इसकी चंचंलता ।
चार बजे भोर में एक अकेली चिडिया का छत की मुंडेर पर बैठ कर सीट्टी बजाना । मैं घडी देखूँ या न देखूं अगर मैं उठ गयी हूँ और सीट्टी सुनायी पड़ रही है तो समझ जाती हूँ की सुबह के चार सवा चार बजे होंगें .और होता भी यही है। और सुभ की व्यस्तता , फूलों की क्यारी ,कौन सी नयी कली खिल गयी । किस नन्हीं कली ने आंखें खोली , उनके चटकदार रंग । बदन को सिहराते मंद मंद हवा के झोंके ,। एक एक को सहलाती दुलराती , शुभ कामनाएं देती मेरे कदम बढ़ जाते हैं। पौंड में तैरती चमकती सतरंगी मछलियों की तरफ । उन्हें पैरों की आहट की पहचान इतनी की निश्चित समय पर खाने के दानों के साथ पौंड के पास पहुँचते ही जाल के उपरी सतह पर हलचल और उनकी क्रिया शीलता देखते ही बनती । दस मिनट तक दानो को खाती मचलती तैरती मछलियाँ । मेरे परिवार ke अहम सदस्यों का समूह ।
किचेन की खिड़की पर पसरी हुई अंगूर की छितराई बेल , अंगूरी पत्तों का आच्छादन , झुरमुट के बीच बुलबुल के जोड़े का नव निर्मित घोंसला और उसमें बैठी बुलबुल। दोनों जब तिनके लेकर दौड़ दौड़ कर उड़ कर , फुदक फुदक कर आते और उस जगह का निरीक्षण करते तो मेरा मन कांप कांप जाता । कितेने अदूरदर्शी हैं ये युगल दम्पत्ती । इतने नीचे खिड़की के पास ? कहीं किसी बिल्ली की नज़र पर गयी तो क्या होगा ? हाय ,कोई इन्हें समझा पता की उन्होंने सही जगह का चुनाव नहीं किया है । मगर कैसे बताऊँ ? मेरी तो जान ही निकलने लगती अगर कभी पड़ोस के घर की बिल्ली मेरे किचेन के आस पास दिखाई पड़ती की कहीं मेरी प्यारी बुलबुली के अंडो पर झपट्टा न मार दे । रातों की नींद उड़ जाती है । हर साँस , हर पल यही प्रर्थना करतीहै "भगवन उसे सुरक्षित रखना "
यही नहीं पास के सटे घर के पतले बरामदे से हमेशा मेरी हर गति विधि को निहारती आँखें , सजग , सचेत , मेरे घर की रखवाली करती । क्या मजाल। , गेट पर खट होऔर वह दौड़ कर न देखें .की कौन आया है? कदम कदम की जानकारी रखती मिसेज़ खन्ना। जिनका ज़िक्र किए बिना मेरा परिवार अधूरा रहेगा ।
जरा सी खांसी बुखार, सरदर्द , सुन कर या देख कर आनन फानन में जोशांदा बना कर मनुहार करती काम वाली बाई गुड्डी । गोल मटोल , गुल गुथना शरीर , नाता कद , गेहुआं रंग , प्यार से झिलमिलाती आँखें । जरूरत पड़ने पर घंटों रुक कर सहायता करने वाली गुड्डी । जो मेरे परिवार की मुख्य सदस्या बन कर असीम सुख शांती देती है । वह भला कौन दे सकता है ? पिछले कई सालों से वही तो अपनी और बहुत अपनी हो गयी है ।
कौन अपना कौन पराया ? परिवार तो वही है जो दुःख सुख और ज़रूरत पर काम आए । खून के रिश्ते भी दूर हो जाते हैं । और जो कभी अनजाने ,अपरिचित थे कब घनिष्ट और परिवार बन जाते हैं पता ही नहीं चलता .स्नेह का स्त्रोत कब कहाँ से उमड़ पड़ता है जो घनिष्ट संबंधों में बदल जाता है । मन कहता है ईश्वर से प्रार्थना करता है " प्रभु , इन्हें न तोड़ना "
चलते रहना और निरंतर परिवर्तन ही जीवन है। गति है । रुक जाना मृत्यु.इसलिए परिभाषाएं
बदलती रहती हैं । बदलते रहेंगे परिवार के रूप और आकार । इस शाश्वत सत्य को स्वीकार कर ही सुखी रहा जा सकता है ।







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