Thursday, May 21, 2009

समय का चक्र

यहाँ आकाश नहीं है , यहाँ बाताश नहीं है " । यह       colkata    जैसे    घनी आबादी वाले महानगर के लिए सुना था लेकिन रांची जैसे शांत , छोटे खुली ज़गह में भी ऐसा हो सकता है कभी सोचा नहीं था । ठीक साड्डे नौ बजे मैं स्कूल के लिए निकलती थी। और फाटक बंद करते समय अनायास ही नज़रें उपर उठ जाती । एक तल्ले की बालकनी कीओर , जिसे गमलों से , बडे बडे इनडोर प्लांट्स और लटकने वाले पौट्स से घेर कर बगीचे का सा रूप दे दिया गया था । और उस बालकनी से झांकता एक सौम्य शांत , उदास आंखों वाला चेहरा , पोपला मुख , सन जैसे सफेद बाल , झुर्रियों में झूलता बदन । मेरे फाटक बंद करने की खट , और उनका नित्य प्रति का प्रश्न ""श्रीमती जी , आपके जाने का समय हो गया क्या ? देखिये न मैं भी कम ख़तम कर के बालकनी में ठीक ९ .३० बजे आगई हूँ। "" मैं चुपचाप उनकी ओर देख कर मुस्करा देती हूँ। "शाम को मिलेंगे माता जी "। पिछले कई महीनों से एक दिन के लिए भी यह क्रम टूटा नहीं। चाहे गरमी हो या सरदी , धूप हो या बरसात , आफिस की ड्यूटी की तरह सत्तर वर्षीय माता जी अपनी पूजा , पाठ , ध्यान, भजन , कर बालकनी में बैठ जाती हैं। बस उपर नीचे की बात चीत हम लोंगों का परिचय है , अपनी व्यथा कथा वह अक्सर ही मुझे रोक कर सुना देती हैं। और बार बार ऊपर आकर मिलने का आग्रह करतीं । कई दिनों तक तो मुझे पता ही नहीं चला की वो चलने फिरने से लाचार हाई ब्लड प्रेशर की मरीज़ हैं। बेटा बहू पोते , पोतियों की किल्करिओं के गूंज में भी शायद निर्लिप्त सी न मालूम किन ख्यालों में खोई खोई बस टुकुर टुकुर ताकती रहती हैं । भीड़ में भी अकेली। वह तो गनीमत है की आते जाते लोगों की चहलपहल से मन बहल जाता है। नहीं तो यह ६ फुट की बालकनी का संसार , दम घोंटू वातावारण , खुली हवा नहीं खुला आकाश नहीं। और खुले आकाश में उन्मुक्त पंछी सा उड़ने को तडपता मन , समय की मार ने पंछी के पर काट दिए हैं । बीमारी ने अपंग बना दिया है। चलने फिरने से मजबूर आश्रित मन। मन का पंछी तो उतना ही कर्मठ और मानी है मगर शरीर , पंख बेहद कमज़ोर और शिथिल । दम झूट रहा है तड़प रहा है । खुली हवा नहीं आ रही है। साँस रुक रही है।
""श्रीमती जी आज मैं आपके पास आऊंगी , कितने बजे वापस आती हैं आप? आज कोशिश करूंगी । आपको रोज़ जाते देखती हूँ तो इच्छा होती है । मैं भी आपके साथ चलूं घूमने , बातें करूं । आप बच्चों को पढाते हो? मेरे लिए भी कुछ बताओ न , मन घबराता है बेचैनी होती है। बैठे बैठे ऊब जाती हूँ । आंखों से दिखाई नहीं देता , बीन भी नहीं पाती , " जीवन की शत सुविधाओं में मेरा मन वनवास दिया सा "" अनायास ही मेरा मन भर आता।
बुढापा भी कैसी बेबसी है । अक्सर ही वे मुझे ऊपर बुलाती और फ़िर भावातिरेक में कितनी बातें बता जातीं "कमबख्त बुढापा भी क्या चीज़ है.और उस पर यह मुटापा , जब शुरू में मेरे पति इंजीनियर साहब कहते थे "रानी ज्यादा घी, शक्कर , तली , बघारी न खा । शरीर बिगड़ जावेगा । बुढापा नर्क हो जावेगा । " और मैं गरब इठलाती हुई कहती , अरे , मैंने कौन जीना है आपके पीछे । मोटी सुट्टी रहूँगी हाई ब्लड प्रेशर आपे हो जावेगा और एक सुबह उठोगे तो देखोगे सोते सोते ही चल दी । जगाते ही रह जाओगे । तब मैनूं क्या पता था श्रीमती जी , सब उलट जावेगा । ये सोते रह गये और मैं इनकू जगाते जगाते हार गयी । ये तो मेरा अपना करम अब भुगत रही हूँ । अपनी ही करनी है। कितने नियम शियम के पक्के थे , मेरे साहब , मार्निंग वाक को जाते थे , कितनी जिद करते थे मेरे कु चलने के लिए पर मैं न मालूम किस गरब में कभी न गई ।
अब चल नहीं सकती तो कैसी तड़प होती है बाहर चलने की । हाय - पूजा पाठ में भी दिल न लेगे है। किताबें धरम की कित्ती पढूँ , आँखें जो दूखन लेगें हैं । मेरी तो एक ही बलवती इच्छा है की मैं अपने देश, अपने गाँव चली जाऊं । अब तो मैंने संसार त्याग दिया है । बहू बेटे की ग्रहस्थी से क्या लेना देना । ईश्वर से मन जोड़ना है -- हे राम --राम , तू मेरे कू उठा लेना , अब मेरे लिए क्या जीना है। कंधे पर हाथ रख कर मैं उन्हें बहुत देर तक सांत्वना देती रही थी ।
दिन , सप्ताह और महीने बीतने लेगे । पाँच बजे सुबह उठ कर ही वह अपना भजन कीर्तन शुरू कर देतीं .दो कमरों का छोटा सा फ्लैट और उनका ज़ोर ज़ोर से खट्टरखट्टर बेटे बहू को खिज़ला जाता । कमरे से निकल कर पहले तो बेटा समझाता फ़िर चिल्लाने लगता " अम्मा , तुम धीरे धीरे मन में पूजा नहीं कर सकती ?कोई ज़रूरी है की सारी दुनिया आस पास के लोग तुम्हारा भजन कीर्तन सुने । और फ़िर तुम्हें नींद नहीं आती --- हमें तो आती हैन। कितनी देर में सोये हैं हम । रात भर चोटी मुन्नी ने सोने नहीं दिया । अब तुम् चुप कर बैठो । रोज़ रोज़ का यही किस्सा है "।
अपमानित सी बीजी । माताजी सर झुका कर हाथ में घंटी पकड़े बैठी ही रह गई । अवाक । आंखों से आंसुओं की धार बह चली । कल ही तो बहू ने कहा था " क्या है माता जी , आप कुछ हेल्प तो कर नहीं सकते , उल्टे सीधे काम कर बस परेशान ही करते हो । सब चीज़ में अलग थलग । मिल कर साथ तो कुछ कर ही नहीं सकतीं । "
एक ही कमरे में बैठे बैठे कितने दिन बीत जाते । मन घबराता तो बालकनी और फ़िर कमरा । कुछ देर तक बेटा दरवाज़े पर खड़ा घूरता रहा माताजी को । फ़िर झुंझ ला कर खटाक से अपना दरवाज़ा बन्द्फ़ कर लिया । पति के फोटो के सामने सर झुकाए वह रोते रोते कब गहरी नींद में सो गई किसीको पता हीं न चला । घंटे भर बाद हल्ला हो रहा था । यह क्या ? माता जी तो सोते सोते ही चल बसीं , न कोई कष्ट न कोई पीडा । कितनी भाग्यवान थी । हाँ , कितनी भाग्यवान थीं वह .

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