अबकी जनवरी के महीने में माघ मेला घूमने के लिए , बिहार से हमारे मित्र इलाहबाद आए बहुत अच्छा लगा. अपने जीवन संघर्ष के दिनों के लंगोटिया यार. कुछ आध्यात्मिक प्रवृति के, कुछ मस्त मौला ,हंसमुख , ठहाके लगा कर हर फिक्र को धुंए में उडाने वाले । इतने वर्षों बाद मिल रहे थे , ले कर आए थे दो उल्लुओं का एक जोड़ा , मिट्टी का बना हुआ , सुंदर रंगों से सजा हुआ ,प्यारा कलाकृति का अनूठा नमूना । घर, आँगन , फूल, उपवन सब घूम कर देखा । आनंन्दित हो कर बोले " यार , सब कुछ बहुत अच्छा , इस उल्लू के जोड़े को सजा दो इस बगिया में , अच्छा रहेगा । जानते हो क्यों ? उल्लू बुद्धि और मूर्खता दोनों का प्रतीक है। भारत में मूर्खता तो पाश्चात्य में बुद्धिमानी का।"
उल्लू के समान बुद्धिमान और दूरदर्शी पक्षी कोई दूसरा नहीं। " सच ही तो अपना अपना देखने का नजरिया है । जब जब इसे देखोगे -- अहंकार न होने पायेगा , हर चीज को समझ कर तोलोगे की कहीं मैं मूर्खता तो नहीं कर रहाहूँ । और फ़िर बुद्धिमान उल्लू बन कर ऐश करोगे ऐश , जीवन सुख से बीतेगा यार" ।
और तब से मेरा नियंत्रक , निंदक, आत्म विश्लेषक की भूमिका निभाने वाला वह उल्लू का जोड़ा बगिया में आम्रपाली आम के पेड़ पर विराजमान है। किसी ने ठीक ही कहा है " जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी "
Sunday, May 31, 2009
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