विवशता
क्या करूँ रानी! सिनेमा की रील की तरह बचपन से अब तक की यादें मुझसे लिपट-लिपट कर मुझे मरने नही देती। बीच-बीच में आप लोगों का समय निकाल कर आजाना, मिलना मेरी उम्र को और भी बढ़ा जाता है। शुभकामनाये तो हरदम आपके साथ है 90 की उम्र। हाथ-पैर चलता रहें किसी के अधीन होकर निर्भर न होना पड़े रानी। बस कब जाना होगा यही सोच-सोच कर हैरान हूँ। कितनी लम्बी उमर लेकर आई हूँ। कौन-सा बड़ा काम बचा है? जिसके लिये भगवान ने रोक रखा है। यही सोचती हूँ। सफेद सन् जैसा कोमल चमकीले बाल अस्त-व्यस्त, इधर-उधर झूलते फैले रहते इसीलिये अबकी बार बहू और बेटियों ने मिलकर, समझा कर बाल कटवा दिये। इन्दिरा गाँधी नहीं-नही शीला दीक्षित मुख्यमंत्री दिल्ली की तरह। इस उम्र में भी भारत की राजधानी दिल्ली की मुख्यमंत्री की तरह कार्य कुशल, संवेदनशील, भव्य साफ-सुथरा चेहरा अनुभवों से दमकता। झुर्रियाँ तो चेहरे पर नही है मगर कमर कमान की तरह झुक गई है सोच और उमंग में वही नयापन। हर पल, समय के साथ बदलने की चाह। किसी भी भाव घटना की तह तक जाकर तर्क- वितर्क समझाने में निपुणता अभी भी वही पुरानी है शरीर थक चला है मगर कल्पनाओं के पंखों के सहारे कहाँ- कहाँ तक घूम आता है मन।
मैने और मेरी बड़ी बहन जो कलकत्ता से आई है बिना किसी पूर्व सूचना ज्ञानपुर में रहने वाली नानी माँ को आश्चर्य चकित कर देने की इच्छा से अचानक पहुँच कर उन्हे अचम्भित कर देने की ठानी। बचपन का वह नटखटपन मानो हम दोनों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था। बड़ा मजा आयेगा। नानी माँ अचानक ही अपने सामने पाकर कया रिएक्ट करेंगी देखने के लिये मन मचल उठा था। हम फिर से बच्चे बन गये थे। बस की दो घण्टे की यात्रा बचपन की बातो, घटनाओं को याद करते दोहराते बतियाते कितनी जल्दी बीत गई कुछ पता ही नही चला।
कन्डक्टर ने चिल्लाकर याद दिलाया ज्ञानपुर-- ज्ञानपुर--3 कौन उतरने वाले है जल्दी करें। हड़बड़ा कर ड्राइवर, और दूसरे यात्रीगण पीछे मुड़ कर देखने लगें। घबड़ा कर अपने-अपने झोले पकड़े हम एकदूसरे का हाथ पकड़े उतर पड़े। शाम को तो वापस लौटना ही है इसलिये छोटे-छोटे झोले ही काफी थे। 75 वर्ष की बड़ी बहन और अड़सठ वर्षीय मैं एक दूसरे का हाथ इस तरह कस कर पकड़े थे कि कहीं बिछड़ न जायें बस से उतर कर। उम्र का भारीपन असुरझा की भावना को किस कदर बढ़ा देता है यह उसी पल महसूस हुआ।
घर तक पैदल ही चलना था। मेन रोड से दो फर्लांग। ओह! पाँच वर्षों के बाद आ रहे है नानी घर। कुछ भी तो नहीं बदला। सब कुछ वैसा ही बातो का जो दौर चला तो नानी माँ की आँखों में चमक आ गई। हँसते-गुनगुनाते कभी चुपचाप सोचने से लगती, कभी आँखें नम हो जाती कभी प्यार से सराबोर, कभी उदास कभी खुश कभी खिलखिला पड़ती। 32 वर्ष की आयु से ही वैधव्य की मार झेलती अपनी माँकीसीखों को याद कर, उनका पालन करते हुये जीवन के इस मोड़ पर आ पहुँची थी नानी माँ।
जानती है रानी! जिस साल आपका जन्म हुआ उसी साल व्याह कर आई थी इस घर में। बहू का आगमन, स्वगत सब लोग हँसते गाते ढ़ोलकक बजाते-नाचते है मगर जब मैं अपने पति को दरवाजे पर उतरी तो हर आँखें रो रही थी। आँखे पोछते सिसकते जेठानी, सास, ददिया सास ने परछन किया। मैं दूसरी पत्नी थी पहली जनी को मरे बस सिर्फ छः महीने ही हुये थे। बच्चे को जन्म देते समय मर गई थी बेचारी दस साल तक रहा था वैवाहिक जीवन। उन्ही का सिन्धौरा मिला था मुझे। सौत थी मै उनकी। क्या करती। माँने समझाया था- बेटी बिना बाप की हो तुम्हारे ताया शादी कर रहे है। अब यही समझना- वही तुम्हारा घर है। हर तरह से प्यार ही तुम्हे पाना है। ससुराल से झगड़ा कर कभी न आना तुम खुश रखोगी सब तुम्हे अपना लेगें। मै दीन-हीन विधवा तुम्हारी माँ कोई भी सहायता न कर पाऊँगी’’। माँ परिवार की विवशता और किसी अनजाने के हाथों में सौंपते माँकी वे आँखें मुझे आजभी याद है। बहते आँसुओं की धारा मेरे विवाह के अरमान सब बह गये। पति के पहली रात को कहें गये वचन आज तक मेरी कानों में गूँजते रहतें है’’ मैं तो वैरागी हो गया हूँ राधा पहली को कभी न भुला पाऊँगा। बस परिवार के लिये ही शादी की है घर के लोगों को खुश रखना खाना कपड़ा लत्ता किसी प्रकार की कमी न होगी। राधा। बस मेरी प्यार की आशा न करना मैं विंदास परिवार बच्चों के बन्धन में नहीं बधना चाहता। और फिर बस एक ही लक्ष्य पति का प्यार पाना और परिवार को खुश रखना बन गया मेरा लक्ष्य। माँ का चिरौरी करता चेहरा और विवशता बार-बार किसी भी प्रकार के अत्याचार का विरोध करने से रोकता। अपने प्रिय उपन्यासकार शरतचन्द की उपन्यासों की नायिका की तरह मैं भी बन जाऊँगी ऐसा तो कभी सोचा ही न था तुम्हारी नानी ने।
मगर रानी! भाग्य का लिखा न तो कोई मिटा सकता है और ना ही अपने आँचल से ज्यादा कोई पा सकता है। उत्तरदायित्वों से अनजान, निरीह और भावुक व्यक्ति के अपरिपक्व निर्णयों का खामियाजा भुगतते कितने वर्ष बीत गयें। बेटा सन्तोष और बेटी आये थे परिवार बढ़ा लेकिन असफलताओं का सेहरा मुझे ही बाँधा गया। दुख के थपेड़े सहते आँखों के आँसू सूख गये।
अपनी जिद क्रोध और असहयोग को हथियार बना कर बेटा तड़पता इस दुनियाँ से चला गया और अपरिपक्व, मस्तिष्क से कमजोर बेटी आज भी जीने को अभिशप्त है। कौन देखोगा उसे। सम्भालेगा उसे अपने आँखों के सामने ही उसे भी विदा करदूँ तो मानो सब उत्तरदायित्व पूरे कर लिये। इस जनम में तो मैने कुछ बुरा नहीं किया ये जरूर पिछले जन्म का ही कुछ लेन-देन है जिसे मैं चुका रही हूँ रानी! बस शायद यही काम छूट रहा है इसी में जान अटकी है बाकी सब हरि की इच्छा!
क्या खायेगी रानी? मायके आई है दालभरी पराठा और खीर। बहुत पसन्द है न आपको। सब कुछ सहज सामान्य कोई इन्सान ऐसा होता है? नहीं ये तो भगवान का ही कोई निराला रूप है? या स्वयं भगवान?
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