नारी शोषण से मुक्ति कैसे
नारी शोषण जहाँ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है वहाँ न ही इस पहलू पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है और न ही निराकरण का कोई ठोस कदम उठाया जा रहा है। केवल लेशमात्र के लिये पटना, बम्बई दिल्ली आदि बड़े शहरों में दिखाने जा रहे है नारे लगाये जा रहे है प्रदर्शन किये जा रहे है। पर क्या एक प्रतिशत भी सफलता प्राप्त हो सकी है। जितना विरोध प्रदर्शन में नारो की आवाज बुलंद हो रही है उतना ही जाने-अनजाने में शोषण का रूप गर्हित और विकृत हो बढ़ता जा रहा है।
शायद लोगो को शोषण का सही अर्थ ही स्पष्ट नहीं है और इसी धूमिलता के कारण उससे मुक्त होने में समर्थ नहीं हो पा रही है। क्योंकि जब तक कारण नहीं जान लेते निराकणरण का प्रश्न ही नहीं उठता जब तक हम शोषण के विभिन्न रूपों और मूल कारणों को नही समझ लेते मुक्ति के हमारे सारे प्रयास असफल रहेंगे आइये हम देखे कि मुख्यतः शोषण हमें समाज के किन-किन क्षेत्रों में दृष्टिगत होता है। वे है सामाजिक पारिवारिक एवं आर्थिक क्षेत्र।
प्रतिदिन किसी न समाचार पत्र में बलात्कार सम्बन्धी दुर्घटना का विवरण देखने को मिलता है यदि 100 में से कोई एक व्यक्ति सामान्य स्तर से थोड़ा ऊँचा उठ कर उस लड़की से विवाह कर समाज में सम्मानित सामान्य जीवन बिताना चाहता है तो समाज उसकी आलोचना कर जीना दूभर कर देता है चूँकि उससे लड़की का कोई दोष नहीं अतः महिलाओं को उसकी आलोचना कर उसे गिरने की चेष्टा न कर उदार हृदय होकर उसे वही सम्मान दे जो अपनी बहू बेटी को देती है तो आदर्श की प्रेरणा से उठा हुआ व्यक्ति भी सहज हो सकेगा। समाज की महिलाओं को ही उसे स्वीकार करना होगा सहज बनाना होगा उँगलियाँ उठाने के बजाय उसकी सहायता करनी होगी।
बहुत आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कुछ क्षणों के लिये विश्वास नहीं होगा ऐसा लगेगा किसी न गरम सीसा पिघला कर कानों में डाल दिया जब आप यह सुनेगी कि अधिकतर महिलायें ही महिलाओं का शोषण करती है सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर 75 प्रतिशत नारी ही नारी की शोषक है बाकी 25 प्रतिशत ही पुरूष वर्ग। जरा मन को टटोल कर देखें निष्पक्ष होकर सोचे क्या बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्रियाँ ही बालिकाओं के मन में तुलना कर उन्हें हीन और कुंठित नही बनाती।
दहेज प्रथा के द्वारा महिलाओं का शोषण भी कम भयंकारी और आतंककारी नही है। जितनी भी दहेज से सम्बन्धित दुर्घटनाये, आत्महत्यायें घटी है। क्या उन मौंतो में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सास और ननन्दों का हाथ नहीं। क्या उन परिवारों की महिलाओं ने अपने आचार व्यवहार से उस घर में आने वाली वधू को कुयें में छलांग लगा कर, मिट्टी का तेल छिड़कर आग लगाने, गले में फाँसी का फंदा डाल कर मर जाने को विवश नहीं किया? नई नवेली वधू को सामाजिक प्रतिबन्धों की दुहाई लगाकर घुट-घुट कर मरने के लिये बाध्य करने वाला कौन है? महिला या पुरूष? अपना सबकुछ छोड़कर नये घर में प्रेमस्नेह की आशा लगा कर आने वाली लड़की के आचार व्यवहार प्रतिदिन की दिनचर्या के लेखे-जोखे को नमक मिर्च लगाकर बढ़ा चढ़ाकर आॅफिस से थके मांदे पति को अवगत कराने वाला कौन है? स्त्री या पुरूष? अपने ही बेटे और बेटी के लालन पोषण में अन्तर रखने वाला कौन है माता या पिता? पिता तो एक बार दोनों को बराबर समझ लेता है कुंठा से ग्रसित नहीं होता पर स्त्री माँ। अन्तर की गहरी दीवार तो वही खड़ी करती है।तो महिलाये यदि शोषण से मुक्त होना चाहती है तो मेरा यही अनुरोध है कि हम महिलायें उदार हृदय बने। संकीर्ण आलोचनात्मक वृत्ति को छोड़कर एक दूसरे को आगे बढ़ाने, सुखी देखने की कोशिश करें तभी शोषण से मुक्त हो सकती है। अपनी हीनता और संकीर्णता की मनोवृत्ति के बेडि़यों को काटना होगा।
आर्थिक कमी के कारण भी बहत सी स्त्रियों का कार्य क्षेत्र में नौकरी आदिमे शोषण होता है। कम पैसा देकर उसकी आवश्यकता और गरीबी का फायदा उठाकर ए एम्प्लोयर एक्सप्लोयट (शोषण) करते है। आज कल फैशनपरस्ती दिखावें, बाहरी पोम्प और शो में रखी जाने वाली लड़कियाँ जब बड़ी होती हे तो सेक्रेट्री रिसेप्निष्ट स्टेनो आदि आकर्षक बेतनो वाले पदो के प्रलोभनो से आकर्षित होकर ऊँचा नीचा समझे बिना ऐसे जाल में फँस जाती है कि पुरूषो की लोलुपदृष्टि से बच पाना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है और एक बार दलदल में फँसी जितना वह निकलने की कोशिश करती है धँसती ही जाती है।
अतः अच्छे बुरे का ज्ञान, अपना भला बुरा सोच सकने की शक्ति, स्पष्ट वादिता है आदि लड़कियों में बचपन से ही अंकुरित करना होगा। भले ही आपा उसे एक बार परिपक्वता कह दे या ऐसा लगे कि यह स सब जान समझकर बूढ़ी काकी या प्री-मेच्योर बनायी जा रही है तो यह समय की माँग है तभी वह लड़की अपनी जागरूकता, स्पष्ट वादिता, सही सूझ-बूझ के कारण बड़ी होने पर किसी के अन्धशोषण का प्रतिकार कर अपनी रक्षा स्वयं कर सकने में समर्थ होगी।
महिला वर्ष, वूमेन्स लिब, नारी स्वतन्त्रय आदि के आन्दोलनों से अधिकारों के प्रति सचेत, आपादमस्तक कान बनी महिला साधारण से साधारण घटना को लेकर, उसे शोषण का ही एक रूप मान कर विद्रोह करने के लिये तत्पर हो जाती है वास्तविकता तो यह हे कि कई बार शोषण न होते हुए भी हम उसको शोषण मान बैठते है जो सही नही है। आवश्यकता है खुले विचारों से सोचने समझने की।
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