Sunday, September 1, 2013

Jeevan Kya Hai


                                                              जीवन क्या है?
  जीवन क्या है? समय सरिता का बहता हुआ प्रवाह नित्य, नूतन नवीन पर समय की झुर्रिया पड़ जाती है और वह शनैः-शनैः शिथिल शुष्क होकर मृतप्रय हो जाता है। ठूँठ नीरस, उम्र की परतो से कुरकुर खोखले खोडरो से मुक्त वृक्ष की तरह मानव जीवन भी वृद्ध हो जाता है। लेकिन उसमें भी आशा का अंकुर कहीं छिपा रहता है। एक मिटा तो दूसरा बीज अंकुरित हुआ उसी के बगल से उसी से सिंचित दूसरे नये जीवन की प्रगति का ही नाम जीवन है। तिल-तिल गल कर बूँद-बूँद गिर कर प्रकाश देती है मोम की यह जीवन वर्तिका, जलती जाती है। मिटती जाती है।
    हर वर्ष आता है और अपने स्मृति चिन्ह छोड़ कर चला जाता है। जीवन की नश्वरता से निराश न हो। असफलता के अंधेरे से घबरा कर आँखें न बन्द कर ले। नश्वरता में भी पुर्नजीवन है। अंकुरण प्रस्फुटित हो रहे है। मिटकर गलकर ही तो एक नये पौधे वृक्ष का निर्माण होता है। बीतते समय के पीछे घने घटाघोप बादलो के बीच मचलती बिजली आशा की किरण पर भरोसा रखें। कब कौन प्राण दायिनी बन जाये कहाँ नही जा सकता।
    वाह! रे निष्ठुर अभिमानी समय दर्प से युक्त, लेकिन कितने निरीह! सब कुछ नष्ट, अस्त व्यस्त, समाप्त करने का झूठा दम्म दिखा कर परास्त करने के नशे में चूर ठहर जा इस वृक्ष को दिखा कर क्या समझना चाहता है? कि रग-रग पर तूने अपने विकट कायल हाथो से इसे ठूठ, नीरस शुष्क और मृतप्राय बना दिया है और मानव जीवन भी तेरे हाथों अन्त में निरीह असहाय और दयनीय हो जाता है यही न!कितना भोला है तू! अरे पागल! एक मिटा तो दूसरा अंकुरित हुआ? तेरे अहंकार की खिल्ली उड़ाता हुआ उसी वृक्ष के रक्त से सिंचित नई कोपलो के हाथ फैलाये तुझे विदा देता हुआ आशा का कोमल अंकुर वृक्ष की जड़ो से सटा धरती को मिट्टी को जकड़ा कोमल अंकुर उसी की अस्थियों रक्त मज्जा से सिंचित बीज का अंकुरण प्रगति का तुम पर विजय का प्रतीक है।
    समय से भयभीत काल से त्रस्त मेरे मन। हिम्मत न हार। असफलता के अंधेरे से घबरा कर अपनी आखे न बन्द कर लें।
    मन मेरे आँसू न बहा। संघर्षों में ही बड़े-बड़े संकल्प जन्म लेते है और असफलता के चट्टानो को चूर-चूर कर देते है।
    उद्यमेन ही सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। परिश्रम से का सिद्ध होते है। मनोरथ से नही।                       

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