विकास-एक मिथ्या
बड़ी ऊँची-ऊँची अट्टलिकायें
चमकते, दमकते, फिसलनभरे संगमरमर के फर्श,
मिट्टी की सोंधी महक को तरसते
अपने सच्चे वजूद को, उसकी खुशबू को खोजते,
हम कहाँ थे कहाँ आ गये है?
फर्श से अर्श पर,
जमीं से आसमां पर
ऊँचाइयों को नापते-नापते जड़ों से
कट ही गये हैं।
हवा में लटकते, त्रिशंकु से भटकते
न धरती पर न आसमां में
न जाने कहाँ खो से गये है
अपने वजूद को खोजते-खोजते भटक से गये है।
न ठंडी हवाये, न सूरज की रोशनी
न वर्षा की बूँदे न मेघों की गरजन
न पंक्षी, न फूलों की सिहरन
फ्लैटनुमा घरों में बँध से गये है
न जाने क्यों हम कहाँ से कहाँ आ गये हैं
ये कैसा विकास? ये कैसा सुन्दरीकरण
कैसी फिजाये?
न मशीन ही रह गये है,
न इन्सान बन सके है।
मिट्टी की सोंधी महक को खोजते,
अपने पन के प्यार को तरसते
हम ये कहाँ से कहाँ आ गये है।
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