मेरी पहली विदेश यात्रा
एक संस्मरण
जब नई दिल्ली एयर पोर्ट से हवाई जहाज ने उड़ान भरी तो एक पल के लिये लगा-कुछ छुट रहा है अजीब सी घबराहट बेचैनी शायद आकाश मार्ग का पहला सफर, और उम्र का 62वाँ पड़ाव और बुढ़ापे का जुड़ाव घर आँगन घरती मही फूल उपवन घर के पेड़ों पर लटके फूलों पर दाना चुगते गौरैयों का झुण्ड, गोलकी श्यामा पक्षियों का कलरव, मछलियों की कदमों की आहट सुनतें ही पानी में तालाब में हलचल। अंगूरों की लता पर बुलबुल कावन घोंसला और सीटी बजाना। सारे के सारे चित्र सिनेमा की रील की तरह आँखों के सामने घूमने लगें। जीवन के अन्तिम समय में जब साँस टूटने लगती है तो बीता हुआ सारा जीवन याद आने लगता है शायद वही स्थिति लग रही थी मानों धरती ही छूट रही हो सारा संसार आकाश छूट रहा हो।
रन वे पर धीरे-धीरे सरकता जहाज अचानक सर्र से आकाश छूने लगा ‘‘आपकी यात्रा मंगलमय हो की उद्घोषणा---- ओह तो हम आकाश के शून्य में है?
बड़ा पागल है मन पिछला पिछला छूटा और सपने तिरने लगे आँखों में कैसी होगी विदेश की धरती, हवाये, आकाश बादल लोग रहन-सहन। सुना तो बहुत था जितने लोग उतनी बाते उतने ही अनुभव हर का अपना देखने का नजरिया और सोच पास-पास सट कर बैठे लोग। शान्त चुपचाप, धीरे-धीरे चलते। सब आवश्यकताओं की सुविधाओं से सम्पन्न। मानों मिनी रूप में हमारा दिन प्रतिदिन का संसार।
छोटी-छोटी सीटे, सामने छोटा सा टी0वी0 उसके नीचे छोटी-सी फोल्डेबल टेबल प्रत्येक यात्री के लगभग। वर्ग गज के क्षेत्रफल में। चलने-फिरने के लिये हाथ पैर सीधा करने के लिये गैलरी लगभग 200 यात्री। बाथरूम की व्यवस्था। सीटिंग व्यवस्था तो हमारे बस की तरह ही था बस फर्क इतना था कि यह एयर बस थी और बाथरूम की, खाने-पीने की व्यवस्था साथ ही थी। स्मार्ट एयर होस्टेस सुन्दर-सुन्दर परियों की तरह ट्राली पर खाना नाश्ता ड्रिंक सर्व करते शालीन सभ्य होंठो पर मुस्कान चिपकाये ये हेल्पर हैट्स आॅफ टू देम हर किसी से वेज और नाॅनवेज की च्वाइस पूछते एक बार तो सोचा इतने सारे ड्रिंक्स पहले तो ट्रायल के लिये चाय ली कुछ जमी नही तो सोचा अबकी काॅफी चखी जाय। मगर यह क्या! एक घूँट ने ही मुँह का जायका खराब कर दिया। शायद कोई नई ब्रैन्ड रही होगी। तुरन्त ट्रे में रखी अपनी प्रिय कोक ही मुझे संतुष्ट कर सकी। खाना नाश्ता का स्वाद बिल्कुल फरक था मगर नाम था एशियन फूड कुल मिला कर अच्छा फाॅर अ चेंज।
परिवर्तन का अनुभव होने लगा था।
हमारा गन्तव्य था डी0सी0 ----और फिर वहाँ से वर्जीनिया निकट का एक उपनगर आठ घण्टे की हवाई यात्रा के बाद पहला ठहराव था पेरिस एयर पोर्ट। वहाँ की सुन्दरता स्वच्छता और भव्यता का प्रतिनिधित्व कर रहा था। वहाँ से हम बाहर नहीं जा सकते थे। एकदम चमचमाता, समस्त आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न। रोबोट की तरह चुपचाप भाव विहीन चेहरों से चलते-फिरते लोग केवल खटखट ट्राली के हिलने-डुलने की आवाज। अपने-अपने सामानों को स्वयं ही सुन्दर हल्की फुल्की ट्रालियों में ढ़केलते यात्री। शारीरिक रूप से स्लिम ट्रिम, कुछ लोग दुबले पतले चूसे चुसके आम की तरह कांति विहिन चेहरे तो कुछ हृष्टपुष्ट मगर बहुत कम। शारीरिक मापदन्ड के अनुसार परफेक्ट फुर्तीले मगर रौनक नही तेजहीन अपने में खोये हुये मैं ढ़ूढ़ रही थी उस जीवन की उत्फुल्लता को, उस जिन्दगी को जो मेरे साथ-साथ हँसती खेलती इलाहाबाद से दिल्ली तक घरों, बाजारों रेलवे स्टेशनों यहाँ तक कि रेल के कम्पार्टमेन्ट में बच्चों बड़ो और यात्रियों के चेहरे तथा व्यवहार में झलक रही थी। ऐसा भी कठोर अनुशासन, भावों का नियन्त्रण किस काम का। अति सर्वत्र वर्जयेत। अस्वाभाविक असहज और कृत्रिम।
मशीन की तरह नियन्त्रित ढ़ंग से पारो बोट की तरह सधे और नपे तुले कदम। चहल-पहल तो कहीं दिखाई ही नही दे रही थी। कभी एक कहानी पढ़ी थी कि एक राजा ने वरदान माँगा था कि वह जिस-जिस चीज को छुयेगा वह सोना हो जायेगी। शायद यहाँ पर लोगों को वरदान था कि यहाँ की धरती पर पैर रखते ही सब कुछ यंत्रवत रोबोट की मुड़ी में आ जायेगा। भौतिकता एश्वर्य की चकाचैंध से किंकित्वयं विमूढ़ तो मै भी थी। ठहराव के समय में मेरे बगल में बैठी एक यात्री अपनी गोद में लेपटाॅप रख कर कानों में म्यूजिक के लिये इयरप्लग लगाये काम में व्यस्त थी और थोड़ी-थोड़ी दूर पर टेलीविजन स्क्रीन पर लगातार आती जाती चित्रावलियाँ थोड़ी देर के लिये अपनी ओर आकर्षित कर लेती।
अभी अपनी सफर पेरिस तक ही रखते है उसके आगे का सफर वाशिंगटन तक का अगले किश्त में।
जब दिल्ली से चाल्र्स डी गौल एयर हवाई अड्डे से उड़े तो ऐसा लग रहा था कि हम किसी लोकल एयर बस में बैठे हो क्योंकि आधे से अधिक यात्री तो फ्रेन्च लग रहे थे। यात्रियों की संख्या कम थी आठ घण्टे की यात्रा थी।
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