Sunday, May 5, 2013

Bada katora

                                                         बड़ा  कटोरा
      ये अचानक कहाँ  जाने की तैयारी कर रहे हो बबलू के बाबा देख नहीं रहे हो कितनी ठंडी हवा चल रही है बीमार पड़ोगे क्या? अपनी पत्नी का टोकना न जाने मुझे क्यों अच्छा नहीं लगा। झुझला कर बोला टोक दिया न! कितनी बार कहा है निकलते समय टोका न करो कल सच्चे भैया की बहूरानी का फोन अन्यथा बहुत बीमार है मुझे ढूढ़ रहे थे मुझे जाना ही होगा। नहीं, नहीं तुमने वहाँ न जाने की कसम खाई थी। भूल गये उस अपमान को किस तरह जलील किया था उन्होंने पैसे का और पद का इतन घमण्ड! नहीं, नहीं आप नहीं जायेंगे मैने एक तीखी नजर पत्नी पर डाली ’’ नहीं मुझे जाना ही होगा बड़े बाबूजी का नमक खाया है। बचपन से लेकर बड़े होने तक सच्चे भैया को सिखाया है पढ़ाया है मै बड़े बाबूजी को भूल नही सकता उनका कर्ज मुझे चुकाना है कह कर मैने जल्दी से झोला उठाया और बस स्टैण्ड की ओर बढ़ चला। बस से बनारस तक पहुचने में तीन घण्टा, फिर वहाँ  से बड़े बाबूजी का बंगला एक घण्टा।मेरी आंखों   के सामने सिनेमा बीते वर्षों के सिनेमा की रील चलने लगी
      बड़े बाबूजी ने मुझे गाँव व से तब अपने यहाँ  बुलवाया था जब मै 18 वर्ष की उम्र का था बारह की परीक्षा देकर आगे कुछ पढ़ने की इच्छा में उनके बंगले पर  पहुं चा था। उन्होंने अपने दो लड़को और दो लड़कियों को पाँच  से सातवीं कक्षा में ट्यूशन पढ़ाने का काम सौंपा था। खुद बड़े बाबूजी शाम को अपने दफतर में आराम कुर्सी पर बैठ मोटी-मोटी काम की किताबें पढ़ते रहते और दरवाजे पर चिक सामने बरामदे में बैठ कर सच्चे भइया और बच्चों को पढ़ाया करता। आठ बजते-बजते छुट्टी पाजाता घर का बाजार का कुछ छुटपुट काम कर खाना भी वही खाता महरा--रसोईघर से खाना परोस देती सब कुछ अच्छा चल रहा था। चालीस वर्षों की सच्ची सेवा सच्चे भइया बच्चे पढ़लिख कर अफसर बन गये शादी हुई बहुयें आई बच्चों नाती पोतों की किलकारी से घर आँगन गूंजा । और फिर बड़े बाबूजी के न रहने का मनहूस दिन और मेरा वापस गाँव  आने का संकल्प 20-30 साल का अन्तराल और फिर अचानक बहू रानी का फोन-हमें आपकी बहुत जरूरत है काका आ जाइये। पता नही क्यों कहना चाहते है बहुत बीमार है पिछली बाते सब भूल जाइये । यह सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया विशाल महलनुमा घर के एक बड़े से बन्द कमरे में आराम कुर्सी पर लेटे शून्य में छत को एक टक निहार रहे थे सच्चे बाबू दिन में भी अंधेरा। इतना बड़ा घर और हवा रोशनी  धूप पानी वर्षा की फुहार खुले वातावरण की इतनी कमी। बाहर तो इतना बड़ा खुला आकाश, उसमें तपती रोशनी की किरणे बिखेरता पीला दमकता सूरज मगर कमरे में उसका प्रवेश निषिध छोटी-छोटी झरोखे नुमा खिड़कियाँ । दुनियाँ  से कट कर कैसे रह सकता है कोई। बड़ा सा आयताकार डाईनिंगरूम। 12 लोगों के बैठने के लिए उसी से मैचिंग डाईनिंग टेबल। चारोां तरफ दीवारों पर अनगिनत फोटो ग्राफ्स। कहीं परिवार के साथ, कहीं पत्नी और कहीं बच्चों के साथ। पेन्टिग्स चप्पा-चप्पा दीवार को सुसज्जित। आलमारी तथा शोकेश में बेशकीमती क्राकरी, सजावटी चीजेंमगर जीवन्तता कहीं नहीं। जैसे किसी म्यूजियम में आकर बैठ गये हों अजीब-सी दहला देने वाली चुप्पी। ड्ाईंगरूम के बड़ा सा हाल हिंसक जन्तओं के शेर का भयानक कालीन पर चिंघाड़ता हाथी, दौड़ते, घोड़े, चमड़े के आवरण से मढ़ा हुआ घोटक का मुख
       यही था वह घर आज से लगभग 15-20 साल पहले। ज्यादा समय भी तो नहीं गुजरा। बाबूजी का पुराना घर छोड़कर असमें आयें हुये। बाबू जी का घर- बड़ा सा आँगन । खिलखिलाती धूप। चहचहाती चिडि़यों गौरैयों का झुण्ड। उस आँगन  गन में एक किनारे अमरूद का फलदार पेड़। दूसरी तरफ टीने के शेड के नीचे बॅंधी दो जरसी गायें। साफ सुथरे नाद, सुबह शाम 15-15 किलो दूध। एक चूल्हे पर दिन भर दूध का औटते रहना। दूध, दही रबड़ी मलाई का अम्बार। दरबार खुला सा रहता। हवा पानी धूप छाँव  आफरात। घर के हर लोगों को उपलब्ध, घर में सब भाई बहनों का, चाचा, चाची, मौसी, मौसा, बुआ, फूफा, घर के ही नहीं आस पड़ोस को भी मिला जुला कर बॅटता।
       कचनार की कलियों की टिकियाँ , कटहल कटहली के कबाब, कोफ्ता, नीबू करौदा, आम पपीता अनार अमरूद का आनन्द। अंगूर की लतर, जूही, चमेली के फूलों की गदराई बेल गमकती महकती तारों से नन्हे सफेद फूलों की महक। हर को खुशी बाँट ते  दुख-सुख को सुनते समझते खुशी और गम के हिन्डोले में फूलते कब दिन बीत जाते बच्चों को कभी डांट  पड़ती तो सामने गोल आकार के बने लान में गोल-गोल चक्कर लगा कर इवनिंग walk के बहाने सुनहले भविष्य के सपने बुनते कितने घण्टों बीत जाते। नौकर बुलाने जाता चलिये आठ बज गये है खाना खाने। और सब रसोईघर में पहुँच हूँ  जाते। मिट्टी का चूल्हा, लकड़ी पर बनती पकाती दाल की सोंधी महक रोटी सब्जी। अम्मा गरम-गरम रोटियाॅं सेकती और पीछे पर बैठकर आलूकी मसालेदार लहसुन मिर्च वाली भुजिया के साथ। भाइयों के लिये टेबल लगाती जब मैने देखाना आम्मा का एक व्यवहार जरूर पक्षपात  पूर्ण रहता  बड़े से कटोरे मे सच्चे बाबू भइया के लिये अलग से बड़े काटोरे में खीर और बहनों के लिये उससे छोटे कटोरियों में खीर। स्कूल से लौटकर आते शाम के नाश्ते में यह भेदभाव देखकर सभी एक बार माॅं से इसके प्रति विरोध जरूर प्रकट करते और हमारी अम्मा साहब जो कम बोलती मुस्करा कर बात टाल जाती। और फिर सब कुछ सहज सामान्य। बाकी दो भाई हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई करते छठे  छमासे -------घर --आते -जाते
        दिन पंख लगा कर उड़ चलें। दिन महीने में महीने सालों में और दशक -दशक वर्षों का समूह। सब बड़े हो गये विवाह बच्चे नौकरिया और बहनों का आना कम होता गया। एक दिन वह भी आया जब माँ  न रहीं। रह गये पिता भाई भाभी और भतीजे। मायका तो जब तक मा माँ रहती है तभी तक रहता  है  माँ का यानी मायका तब क्या पता था माॅ ने अपनी मन्द मुस्कान से मन ही मन बाबूजी को क्या संदेश दिया था कि अपनी अर्जित सम्पत्ति को वह पाॅच भागो में बराबर-बराबर बाॅट गये। कारण चाहे जो भी रहा हों। लिखित रूप में कानूनी कार्यवाही से तीन बहनों और दो भाइयों में बराबर का हिस्सा। तब तक काश संम्पत्ति में बेटियों के अधिकार को काशन नही था। मगर माॅ की बेटियों को आर्थिक स्वतन्त्रता और सम्मान की अधिकारिणी मानने वाली माॅ ने अवसर मिलते ही अपने अन्र्तमन की अदम्य इच्छा को पूरा करवा ही दिया था। मगर वह भाई बचपन से ही बड़े कटोरे की खीर दूध, दही और मलाई वाले भेदभाव को जीवन भर न भुला सकें। और सम्पत्ति का यह विभाजन सदैव जीवन भर उनकी आॅख को किरकिरी बना रहा थोड़ा-थोड़ा छोटा-सा भाग देकर समस्त पर ---- अधिकार जमा कर कुछ वर्षों तक साम्राज्य का उपयोग करने का झूठा दम्भ खा। मगर ईश्वर की लाठी में आताज नहीं होती सुना था देखा नही था। जीवन के अन्तिम वर्षों में इतनी पीड़ा, शारीरिक व मानसिक कष्ट अहम् बहुत बुरा होता है। स्वयं को सही सिद्ध करने में कितने झूठो का सहारा, छल, प्रपंच अपनों से कट-छट कर चुपचाप लेटे उफ-उफ! कर करवटे बदलतें, विशाल कमरा, दो  झूलने वाली कुर्सी, दवाओं से भरी रैक, आलमारी एक छोटी-सी खिड़की। जिस में से मुठ्ठी भर धूप और प्रकाश ही आ सकता है। क्या इसी के लिये इतना सब माया जाल रचा था?
       दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में चिकित्सीय सहारों पर लेटें, मानसिक रूप पूर्ण चैतन्य तार्किक, अनुभूतियों से चैकन्ने आने वाले अतिथियों से कहते मैं भीष्मपितामह हूँ  मैं भीष्म पितामह इस शरशैया पर लेटा शारीरिक कष्ट भोगता जीवन का अन्त देख रहा हूँ । विवश, हताश। इसी जीवन में यही पर अपने पिता के प्रति किये विश्वास घात, दुष्कर्मों का फल मिलता है मै इसका जीता जागता उदाहरण हूँ । मुझे क्षमा करना मेरे प्रिय जनों मुझे क्षमा करना। चाटुकारों  से घिरा, विमूढ़ मुझे क्षमा करना। मुझे क्षमा करना मेरे बच्चों को मेरी गलतियों की सजा न देना।

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