Sunday, March 24, 2013

Adhikar


                                             अधिकार
बात चाहे संसद की हो या सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए पदों  के आरक्षण की हो अथवा सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार की। पुरूष वर्ग के आँखों  की किरकिरी बेटियाँ , माताये या बहने ही क्यों? मेरी यह समझ में नहीं आता
अभी मैं पुरूषवर्ग के एक प्रतिनिधि भाई के रूप में चरचा करना चाहूँगी क्योंकि इस समय पारिवारिक समस्याओं में यह भी दहेज समस्या की तरह फैलता जा रहा है जिसका न कोई आदि है और न अन्त। जब से इस बिल को मान्यता मिली है कि पिता की सम्पत्ति मे बेटियों का भी अधिकार है और कार्यरूप् में परिणित किया गया है बेटियों का मायका, भाई बहन का सम्बन्ध दाँव पर लगा हुआ है
पिता के रूप में एक पुरूष अपने बेटे-बेटियों को बराबर नहीं तो सम्पत्ति का कुछ भाग देने का मन तो अवश्य बनाने लगा है कहीं  -कही पर लिख कर कानूनी तौर पर मजबूत बनाकर पिताओं ने वसीयत लिखी हे और कहीं पर मौखिक रूप से /कह कर /बॅटवारा किया है या उन्हें दिया है। लेकिन है कि उन्हें यह भी लिखकर भाइयों को दे देना है कि‘हमें इसमें से कुछ नही चाहिए हम अपना अधिकार भाइयों के पक्ष में हमेशा के लिए छोड़ते है। अगर वे ऐसा नही करती तो उनकी पढ़ी लिखी वकील पत्नी भी उनका /पुरूषों/ पक्ष लेती दिखी। सच का सामना’ में पुरूषों  की हवस का व्योरा उनकी अपनी बेटिया पत्निया सहन करती रहीं और यह सब जान कर भी समाज परिवार से जुड़ी रहने को विवश रही? कहने का मतलब है कि सामान्यतः घरों में 20  लड़कियो का जीवन सुरक्षित और सम्मानित है।
महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा ने कहा कि बालिकाओं को बचाया जाना चाहिए क्या इसलिए कि बचाने के बाद आग लगा कर दहेज के लिए जला दिया जाय गर्भवती स्त्रियों को यह भी अधिकार नहीं  िकवह अपनी बच्ची को जन्म देकर उसके सुरक्षित भविष्य को निश्चित कर सके।
पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों, बालिकाओं के लिये कुछ भी स्वतंत्र नहीं। मेरे विचार से यदि स्त्री स्वयं सोच सके कि वह अपनी बच्ची के अस्तित्व और सम्मानित जीवन के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने परिवार के साथ स्वयं खड़ी रहेगी घर परिवार समाज के सामने उसके साथ मिल कर लड़ेगी लेकिन तिल-तिल कर अपनी पढ़ी-लिखी स्वतंत्र एवं उदार विचारों वाली प्यारी दुलारी बेटी को जीवित लाश नहीं बनने देगी। तभी इस संसार में उसकों लायें।
स्त्रियों की पग-पग पर दुर्दशा, जब जन्म देने वाले परिवार के, अपने खून के सगे सम्बन्धियों चाचा, पापा, ताया मामा आदि के बीच रह क रवह सुरक्षित नही है तो बनाये गये सम्बन्ध ससुराल आदि से तो आशा करना भ्रम है।
इससे बेहतर तो यही होगा कि भ्रूण हत्या को कानूनी सर्मथन दे दिया जाये। कम से कम समाज में परिवार में माताओं को अपनी बेटियों को जीते जी मरते तो नहीं देखना पड़ेगा।
कानून की लाचार न्याय व्यवस्था? समाज सरकार कितना भी ढ़ोल बजा ले प्रगति का, उदार मानसिकता का मगर हे वह वहीं का वहीं बर्बर , संवेदनहीन और अनैतिक कितनी बेटियांे की बलि दी जायेगी इस आशा में कि कभी तो स्थिति बदलेगी कभी तो उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा। बस एक ही उपाय है इसका उनको संसार में लाने का पूरा अधिकार जन्म देने वाली माॅं को ही होना चाहिये वह भी वैधनिक।

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