दो कबूतर
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
ऊपर से नीचे, दाये से बाये
तीखी निगाहों, कुछ खोजते जमीं पर
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
सोचते से, घूरते से लगते है
जैसे कोई फिलाॅसफर
सुबह से शाम, रात से सुबह
भागती, दौड़ती क्यों है जिन्दगी?
कोई रूकता क्यों नही, कोई?
ठहरता क्यों नहीं? संतोष,
क्यों नहीं है आराम क्यों नहीं है?
किस चीज का है चक्कर
मन शान्त क्यों नहीं है?
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
जैसे हो कोई फिलाॅसफर
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
ऊपर से नीचे, दाये से बाये
तीखी निगाहों, कुछ खोजते जमीं पर
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
सोचते से, घूरते से लगते है
जैसे कोई फिलाॅसफर
सुबह से शाम, रात से सुबह
भागती, दौड़ती क्यों है जिन्दगी?
कोई रूकता क्यों नही, कोई?
ठहरता क्यों नहीं? संतोष,
क्यों नहीं है आराम क्यों नहीं है?
किस चीज का है चक्कर
मन शान्त क्यों नहीं है?
छत की ऊँची मुँडेर पर
ये जो बैठे है दो कबूतर
जैसे हो कोई फिलाॅसफर
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