Sunday, March 23, 2014

MAHILA SASHAKTIKRAN

                                                             महिला सशक्तीकरण
     महिला सशक्तीकरणजी-एक तेजी से प्रचलित होता हुआ उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न आर्थिक स्तर की महिला जगत में उत्सुकता व महत्वाकांक्षा को बढ़ाता एक कर्ण प्रिय शब्द। जो प्रायः ही किसी न किसी रूप में अपनी झलक दिखाकर लोगों को भरमा (भ्रमित) ही देता है।
   सामान्यतः इसका अर्थ जन-जन में यह है कि आर्थिक रूप से सशक्त होना ही
सशक्तीकरण है यह एक संकुचित अर्थ है किन्तु मूल सन्दर्भ से इसका एक प्रमुख अंग माना जा सकता है।
   मेरे विचार से यदि देखा और समझा जाये तो महिला सशाक्तीकरण एक व्यापक और विस्तृत अर्थ अपने में समेटे हुये है।
   महिलाओं के सोच-विचार करने की क्षमता, परिस्थिति के अनुसार निर्णय ले पाने की मजबूती, आर्थिक स्वतन्त्रता के साथ उन कार्यों-विचारों को कार्यकप में परणित करने की क्षमता योग्यताओं और कुशलताओं का विकास। इस प्रक्रिया को मजबूत कनाने में जो चीजे सहायक होती है वह है ज्ञान शिक्षा, सूचनाये, धन, साहस, सहनशीलता, आत्मविश्वास, विचारों, सिद्धांतों की स्पष्टता, प्रस्तुत कर सकने की साहस। ये सभी एक-दूसरे पर निर्भर है अनन्योयाश्र्रित है।
   एक और भ्रांति जो महिलाओं कन्याओं की मानसिकता में जन्म ले रही है वह स्वयम् को पुरूषों के समकक्ष ही नही हर क्षेत्र में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का दम्य। जो उन्हें मूल उद्देश्य सशक्तीकरण से भटका कर उन्हें हर उस क्षेत्र में प्रवेश कर स्वयं को सफल सिद्ध करने की ललक।
   बस यही से शुरू हो गई एक ऐसी होड़, एक ऐसा संघर्ष जिसका कोई अन्त नही है। हर उस क्षेत्र में अपनी योग्यता सिद्ध करने तथा सफलता के झण्डे गाड़ने के प्रयास में धोबी का कुत्ता न घर का घाट का।
    दोहरे-तिहरे उत्तरदायित्वों को निभाने के चक्कर में थकी हारी, टुकड़ो-टुकड़ो में बटी नारी प्रायः अपने प्रमुख उत्तरदायित्वों से न्याय नही कर पाती और आत्म हीनता और ग्लानि से आजीवन ग्रसित रहती है। अपराधबोध उन्हें जीने नही देता महत्वाकांक्षा दम्म विषमताओं से जूझते जी तोड़ परिश्रम अन्ततः उन्हे कहीं तोड़ ही देता। मातृत्व, ममता परिवार, और महत्वाकांक्षाओं नौकरी पदोंन्नति, आदि के बीच पिसती नारी से कोई पूछे।
    प्रकृति से उदाहरणों से यदि देखे तो परिवार की देखरेख लालन-पालन, शिशुओं के जन्म देने के साथ ही एक ऐसा दायित्व है जिसे अन्ततः स्त्रियों को ही निभाना पड़ता है दूसरा वर्ग पक्ष पुरूष उसमें सहायक सहयोंगी की ही भूमिका निभाता है। उसकी जगह तो कोई दूसरा ले ही नही सकता। इसी अनिवार्य उत्तरदायित्वो को निभाने के लिये ईश्वर ने अनेक मौलिक और को कोमल तत्वों से स्त्रियों को सवाँरा है। विषम से विषम परिस्थितियों में अनुकूल, सहज सामान्य सहनशीलता धैर्यं का मेल स्त्रियों के हिस्सें में है।
    यह कहा जा सकता है कि पशु पक्षियों के सामाजिक व पारिवारिक रचना मनुष्य के समाज से बिल्कुल भिन्न है। बच्चों के जन्म होने से शुरू होते तैयारी के साथ लालन-पालन में पक्षी-युगल अपने बच्चों के समक्ष होते ही अपने माता-पिता और अन्य सहोदरों से अलग हो जाता है। जीवन पर्यन्त एक दूसरे से जुड़े नहीं रहते। प्रौढ़ से वृद्ध होते-होते जनक को देखने वाले व परवरिस करने की जिम्मेदारी नही होती। कत्र्तव्य बोध से उन्हे तार-तार नही होना पड़ता है शायद मूल प्रवृति या इन्सटीन्क्ट ही उनकी बुद्धि को संचालित करती है। मनुष्य के पास भी ऐसी ही अन्र्तदृष्टि, (विवेक) की प्रकृति प्रदत्त प्रवृत्तियाँ है मगर एक वह अपनी मूर्खता के कारण विषम से विषम तार-जाल में उलझता जाता है और अपने लालच से उसमें फंसता जाता है। सन्तोष और महत्काक्षाओं में सामान्य अनुपात न होने के कारण सामाजिक पारिवारिक आर्थिक शैक्षिक सभी तरह की परेशानियों से दो चार होना पड़ता है। परिस्थितियों के अनुसार सही निर्णय ले पाने की क्षमता का कुशाग्र विकास, संवेदनशील इन्सान सुखी और मानसिक रूप से सुखी व संतुष्ट रहता है। प्रकुति हमें कब कहाँ और कैसे स्वयं को संतुलित रहना चाहिये का सुन्दर उदाहरण दिखाती है। स्वयं को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और सन्दर्भ में सशक्त बनाना ही महिलाओं को सशक्त करना है। इसमें कोई दो राय नहीं।
 

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