Sunday, April 6, 2014

DO AKHEN

                                          दो आँखें                    
शायद ये आँखें रिमोट की है
रूप रंग आकार से परे
एक अहश्य पाप कर्म से उपजे
अवसाद की, आत्माग्लानि से
कसकते मन की आँखे जो
पीठ पर चिपक गई है?
                            हर वक्त हर साँस हर कदम पर हावी
                            ये आत्माग्लानि की आँखें
                            देख रही है घूर रही है कचोट रही हैं
                            एक ऐसी फाँस गड़ी है जो मन प्राण
                            छटपटा रहे है, प्राण कंठ तक आकर
                            भी नही जा रहे है सब कुछ ईश्वर के हाथ
जन्म मृत्यु चाह कर भी नही मिलती
कठपुतली-सा नाच रहा, नाच रहा जीवन है 
छपाक से किसी ने कुछ फेंका रिमोट से
पीठ पर चिपक गई है दो आँखे------
                            विश्वास के निरीह भोले ‘‘फ़ाख्ते’’ को
                            निर्ममता से टेंटुआ दबाकर मार डाला गया है
                            वहशीयत ने एक बार फिर अपना वहशीपन
                            दिखाया है
                            बाप बेटी, बहू ससुर और इन्सानी रिश्ते खतरे में
                            है
हज्जाम में सब नंगे है किसी कोई इन्सानियत का जामा (लिबास) पहनाये
रात के अन्धेरे में हर पुरूष एक सा है, दिन में सबके चेहरे निष्पाप है
आदर्शों के पुतले है, भगवान के चेले है सत्संग में गुरू के तख्ते पर विराजमान है
न्याय अन्याय पाप निष्पाप देखते-देखते
किसी ने शायद कुछ फेका रिमोट से और
पीठ पर चिपक गई दो आँखें
कही से अचानक छपाक से 
कुछ फेंका रिमोट से
और पीठ पर चिपका गई दो आँखे।
  
कदम कुछ आगे बढ़े
हाथ उठे ओंठ मुस्कुराये
एक हलचल सी हुई मन में
कुछ चटका कुछ दरका
और रेगने लगी सर्पिल, अंगोर सी आँखें
पीठ पर चिपक गई हैं दो आँखें

पीठ पर चिपक गई है दो आँखें
बहती बयार की सिहरन
फूलों के प्यार की थपकन
जैसे ही घोलने लगी रंग
दहक उठी अंगार सी आँखें

पीठ पर चिपक गई दो आँखें
कही से अचानक किसी ने कुछ
फेका रिमोट से, पीठ पर चिपक गई दो आँखें।

अंगार से पीठ पर फफोले से उभर आये
तपन से, जलन से, तनमन फुकने लगा

प्रियतम के विश्वास घात का विष चढ़ने लगा
सब कुछ स्याह, निर्जीव सा जीवन घिसटने लगा
किसी ने रिमोट से कुछ फेंका
और पीठ पर चिपक गई दो आँखें  
  
  
  
  
  

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