Sunday, November 23, 2014

Anubhav


                                   अनुभव
     मेरे स्कूल की बस शहर के मेन रोड को छोड़ कर एक कच्चे-पक्के चौंड़ी सड़क की ओर घूमजाती है अरैल के महुआरी गाँव की ओर।
      भारत के विकास और समृद्ध के दर को मेट्रोपोलियन शहर की भव्य इमारतों, अट्टालिकाओं, यातायात के साधनों से नही आक जाना चाहिए। सही तस्वीर तो फुटपाथ पर बीत रही जिन्दगी और गाँवों में होने वाले जीवन के लिये संघर्षों के बीच इन्सानियत को जीवित देख कर समझा जाये ंतो शायद सब कुछ ठीक-ठीक समझ में आ सकें।
    यह गाँवों के बीच गुजरती बस उस गाँव के बच्चों के लिये एक सुखद रोमांचक आश्चर्य सा है। इक्का-दुक्का बस चढ़ने वालों को घेर कर अन्य आतुर बच्चों का उत्साहित स्वर- आ गई, आ गई स्कूल ले जाने वाली गाड़ी। और सबको छोड़कर दो बच्चे चढ़ जाते है बस पर छोड़ने आई माताओं में कुछ मैक्सी पहने, उस पर दुपट्टा डाले, कुछ तैयार। तो कुछ पिता पैन्टशर्ट में कोई घुट्टना चढ़ाये ही खड़े रहते है बस स्टाप पर-
      दो बच्चे चढ़ जाते है बस पर। रह जाती है बच्चो की  टोली तालियाँ बजाती। उस विद्यालय के मैनेजमेंट को हैट आॅफ जो गाँवों के उस इलाके में बच्चों के बीच अपने विद्यालय की पहचान ले गये। जहाँ पर शायद कोई किरण भी न थी विषय ज्ञान की जिसे हम विद्यालयी शिक्षा कहते है। नैनी जेल घूम तक की सीधी सड़क पर दौड़ती हमारे स्कूल की बस घूम पड़ती है माधवपुर गाँव की ओर कहीं पर कच्ची मिट्टी के घर कही इटों को मिट्टी से जोड़ते कमरों की तैयारी एक ही लम्बी कतार में बनते कमरे सटे-सटे घर शायद दो-दो कमरों के खपड़ैल या सीमेन्ट सीट से ढ़के कच्चे-पक्के मकान। आठ दस घरों के बाद एक हैन्डपम्प पर बूढ़े बच्चे औरतों, लड़कियों-लड़कों का झुण्ड कोई ब्रश कर रहा है कोई दातून से दातों को रगड़ रहा है, तो कोई घड़े में पानी भरने के लिये लाइन में लगा है। कुछ लोग बगल में ही पानी भर कर कपड़े पछार धो रहे है। मगर ये सारी गतिविधियाँ उस पाँच वर्गगज के सीमा में ही इर्द-गिर्द। धैर्य के साथ शालीनता से न एक दूसरे पर कुदृष्टि ना ही छींटाकशी। न मार न पीट अधनंगे बच्चे, मटमैले कपड़ों में कुछ बुजुर्ग स्त्रियाँ युवतियाँ युवक। शायद यह कम आय वर्ग वालों की बस्ती है। ठेले वाले, सब्जी वाले, मजदूर रेजा, बढ़ई, मिस्त्री या छोटा-मोटा काम कर जीवन यापन करने वालों के परिवार जीवन जीने की जिजीविषा हाडतोड़ परिश्रम, कहीं मिट्टी के लिपे-पुते चूल्हे, दो चार ईटों को जोड़ कर लकडि़या लगा कर कण्डे जलाकर चाय रोटी बनाते लोग स्त्री-पुरूष एक साथ मिलकर काम करते दिखाई पड़ते। असली भारत का 80 प्रतिशत तो यही बसता है महानगरों के ऊँची- ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर, या 20 प्रतिशत उच्चवर्ग के सुविधाभोगी लोगों को देखकर देश को उन्नत, शिक्षित या विकास की ओर तेजी से बढ़ते देशों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
          
      

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