Sunday, June 20, 2010

महा नगर में

अभी तो हाथ पकडे , साथ साथ चल रही थी ज़िंदगी ।
उछलते कूदते ,नाचते गाते , कभी खिलखिलाते ,कभी गुदगुदाते ।
मेरी ज़िंदगी ।
छोटे शहर में समय थम गया था, घर , परिवार बच्चे ,शाद घुल गया था ।
महानगरी की चका चौंध में ये समय भगा चला जा रहा है ,
दौड़ते दौड़ते थक गई ज़िन्दगी ,उदास , हताश हो गई ज़िंदगी ।
कभी खिलखिलाती , कभी गुनगुनाती थी जो कभीकहाँ ?
चली गई वह मेरी जिन्दगी .

3 comments:

sanu shukla said...

sundar....

Anamikaghatak said...

महानगरी की चका चौंध में ये समय भगा चला जा रहा है ,
दौड़ते दौड़ते थक गई ज़िन्दगी ,उदास , हताश हो गई ज़िंदगी
bahut sundar bhaav........prayaas achchha hai

संजय भास्‍कर said...

सानदार प्रस्तुती के लिऐ आपका आभार