आज और हम
कहा जाता है कि, ईष्वर की सबसे सुन्दर श्रेष्ठ बुद्धिमान और विवेकी रचना है मनुष्य और यह भी सच है कि जरूरतें नये-नये आविष्कारों को जन्म देती हैं। परिवर्तन जीवन है सुख सुविधाओं का आकांक्षी मनुष्य लगातार नई-नई चीजे बना रहा है और स्वयं को वैज्ञानिक, प्रगतिवादी सिद्ध करता ही जा रहा है लेकिन यह सुविधाभोगी मानसिकता उपभोगवाद या सिद्धांत क्या वास्तव में हमें सही दिशा की ओर ले जा रहा है? इस सुविधभोगी उपभोगवाद ने हमें हमारे समाज को किस पतन की ओर ढ़केल दिया है-आइये देखे और समझे कि यह कैसे हमारी सुन्दर संस्कृति को अपसंस्कृति में, सोच को विकृत मानसिकता में बदल रहा है और दीमक की तरह जीवन को खोखला करता जा रहा है।
निरन्तर नये-नये आविष्कार गाड़ी, मोबाइल, कार लैपटाप, भोजन मे पीजा बरगर, डिब्बाबन्द भोजन के नये-नये पकार, शारीरिक श्रम व समय को बचानें के लिये वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि उपकरण जहाॅं एक ओर हमारी शक्ति और समय बचाते है वही दूसरी ओर बचाई गई शक्ति और समय से क्या हम अपना और प्रकृति दत्त सुविधाओं से तालमेल बैठा पा रहे है? नही....प्रकृति के दोहन से हम उससे दूर ही होते जा रहे है। हम आज सुविधावादी भोगवाद में आकंठ डूब गये है। इसने कितनी मानसिक विकरों इष्र्या द्वेष, लूट पाट, आदि को बढ़ावा दे दिया है नतीजा है कि हमारा नजरिया ही बदल गया है।
अगर सुविधा लेना और पाना ही हमारी इच्छा है आराम हमारा उद्देश्य है तो समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान का मापदण्ड महंगी गाडि़याॅं, धन सम्पत्ति, महगे मोबाइल आधिक से अधिक क्यों चाहने लगा है व्यक्ति एक सामान्य सा मोबाइल सुविधा और आवश्यकता दोनो ही पूरा कर सकता है फिर वह ब्लैकबेरी की ओर क्यों भाग रहा है। एक से संतुष्ट क्यांे नहीं? एक गाड़ी की जगह चार गाड़ियाँ, एक की जगह फोन को निरन्तर बदलते रहने की ललक और प्रदर्शन चाहे उसकी जरूरत हो या न हो। क्यों लगातार है कि यदि उसके पास अधिक से अधिक महंगे उपकरण, महंगी जीवन शैली पैसे से स्वयं को श्रेष्ठ प्रतिष्ठित होने को गर्व की अनुभूति। बस यही है आज के सामाजिक जीवन का आधार। आजा का सामाजिक जीवन मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की मानसिकता और फिर ऐसा करने में वह आस- पास से कट कर अकेला भावनात्मक रूप से टूटता ही क्यों न जाय? इस बात से भी इनकर नहीं किया जा सकता कि यह असंतुलन केवल 20-25 प्रतिशत लोगों की है लेकिन उनका प्रयोग इतनी अधिक मात्रा में है कि सामान्य 80 प्रतिशत भी उससे प्रभावित होता है और वैश्विक स्तर पर छा जाता है।
क्यों हो रहे है इतने अपराध! क्यों बिगड़ रहे है बच्चे क्यों परेशान है माता पिता परिवार! असुरक्षा का भय, भविष्य की चिन्ता और अधिक से अधिक धन बटोर लेनी की जुगत। सुख-चैन आत्म हत्यायें, तनाव न सहन करने के कारण, इसी भौतिकवाद से उत्पन्न प्रभाव है जिनके मकड़ जाल में फॅंसा मनुष्य न स्वयं जी रहा है और न दूसरों को जीने दे रहा है। छटपटा कर जब निकलना चाहता है तो कोई रास्ता नहीं दिखता।
न कोई विज्ञापन, न कोइ सलाह! इस उपभोगतावाद के वर्तमान स्वरूप में अमूल्य परिवर्तन नही किया जा सकता क्योंकि यह मनुष्य के स्वभाव पर आधारित और जुड़ी हुई। हाँ इतना जरूर है कि आत्म-अवलोकन से स्वयम को समझाते हुए इसे कम जरूर किया जा सकता है। व्यक्तिगत प्रयास ही कारगर होगा।
कहा जाता है कि, ईष्वर की सबसे सुन्दर श्रेष्ठ बुद्धिमान और विवेकी रचना है मनुष्य और यह भी सच है कि जरूरतें नये-नये आविष्कारों को जन्म देती हैं। परिवर्तन जीवन है सुख सुविधाओं का आकांक्षी मनुष्य लगातार नई-नई चीजे बना रहा है और स्वयं को वैज्ञानिक, प्रगतिवादी सिद्ध करता ही जा रहा है लेकिन यह सुविधाभोगी मानसिकता उपभोगवाद या सिद्धांत क्या वास्तव में हमें सही दिशा की ओर ले जा रहा है? इस सुविधभोगी उपभोगवाद ने हमें हमारे समाज को किस पतन की ओर ढ़केल दिया है-आइये देखे और समझे कि यह कैसे हमारी सुन्दर संस्कृति को अपसंस्कृति में, सोच को विकृत मानसिकता में बदल रहा है और दीमक की तरह जीवन को खोखला करता जा रहा है।
निरन्तर नये-नये आविष्कार गाड़ी, मोबाइल, कार लैपटाप, भोजन मे पीजा बरगर, डिब्बाबन्द भोजन के नये-नये पकार, शारीरिक श्रम व समय को बचानें के लिये वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि उपकरण जहाॅं एक ओर हमारी शक्ति और समय बचाते है वही दूसरी ओर बचाई गई शक्ति और समय से क्या हम अपना और प्रकृति दत्त सुविधाओं से तालमेल बैठा पा रहे है? नही....प्रकृति के दोहन से हम उससे दूर ही होते जा रहे है। हम आज सुविधावादी भोगवाद में आकंठ डूब गये है। इसने कितनी मानसिक विकरों इष्र्या द्वेष, लूट पाट, आदि को बढ़ावा दे दिया है नतीजा है कि हमारा नजरिया ही बदल गया है।
अगर सुविधा लेना और पाना ही हमारी इच्छा है आराम हमारा उद्देश्य है तो समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान का मापदण्ड महंगी गाडि़याॅं, धन सम्पत्ति, महगे मोबाइल आधिक से अधिक क्यों चाहने लगा है व्यक्ति एक सामान्य सा मोबाइल सुविधा और आवश्यकता दोनो ही पूरा कर सकता है फिर वह ब्लैकबेरी की ओर क्यों भाग रहा है। एक से संतुष्ट क्यांे नहीं? एक गाड़ी की जगह चार गाड़ियाँ, एक की जगह फोन को निरन्तर बदलते रहने की ललक और प्रदर्शन चाहे उसकी जरूरत हो या न हो। क्यों लगातार है कि यदि उसके पास अधिक से अधिक महंगे उपकरण, महंगी जीवन शैली पैसे से स्वयं को श्रेष्ठ प्रतिष्ठित होने को गर्व की अनुभूति। बस यही है आज के सामाजिक जीवन का आधार। आजा का सामाजिक जीवन मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की मानसिकता और फिर ऐसा करने में वह आस- पास से कट कर अकेला भावनात्मक रूप से टूटता ही क्यों न जाय? इस बात से भी इनकर नहीं किया जा सकता कि यह असंतुलन केवल 20-25 प्रतिशत लोगों की है लेकिन उनका प्रयोग इतनी अधिक मात्रा में है कि सामान्य 80 प्रतिशत भी उससे प्रभावित होता है और वैश्विक स्तर पर छा जाता है।
क्यों हो रहे है इतने अपराध! क्यों बिगड़ रहे है बच्चे क्यों परेशान है माता पिता परिवार! असुरक्षा का भय, भविष्य की चिन्ता और अधिक से अधिक धन बटोर लेनी की जुगत। सुख-चैन आत्म हत्यायें, तनाव न सहन करने के कारण, इसी भौतिकवाद से उत्पन्न प्रभाव है जिनके मकड़ जाल में फॅंसा मनुष्य न स्वयं जी रहा है और न दूसरों को जीने दे रहा है। छटपटा कर जब निकलना चाहता है तो कोई रास्ता नहीं दिखता।
न कोई विज्ञापन, न कोइ सलाह! इस उपभोगतावाद के वर्तमान स्वरूप में अमूल्य परिवर्तन नही किया जा सकता क्योंकि यह मनुष्य के स्वभाव पर आधारित और जुड़ी हुई। हाँ इतना जरूर है कि आत्म-अवलोकन से स्वयम को समझाते हुए इसे कम जरूर किया जा सकता है। व्यक्तिगत प्रयास ही कारगर होगा।