क्या नैतिकता का पाठ जरूरी है?
कई बार सोचा है। सोचती ही रह गई हूँ कि हम आज बच्चों के जीवन की नींव ईमानदारी, कर्मठता, परिश्रम, धार्मिकता,मानवता, नैतिकता, पर रखने का प्रयास कर रहे है। यह सच भी है, कि प्रत्येक माता-पित के इस पक्ष के प्रति जागरूक रहने के कारण सफल भी होंगे। पर इन्हीं दृढ़ संस्कारों में पला बालक जब बड़ा होकर अपनी इसी मानवता के नैतिक मूल्यों की अमूल्य पूंजी लेकर जीवन के वास्तविक कर्म क्षेत्र में पहूँचता है, तो वह दुविधा में पड़ा सोचता रह जाता है, कि वह किस शक्ति को लेकर भटक रहा है-चाहे वह शिक्षा हो, नौकरी हो, व्यापार हो अथवा जीवन-यापन का कोई अन्य साधन। यही आदर्श उसे दर-दर का भिखारी बना देते है। जगह-जगह प्रताड़ना मिलती है उसको, उसकी ईमानदारी की, उसके उसूलों के पक्के होन की और या यूं कहिये उसकी मूर्खता की।
जो बेईमानी से, धोखे से, चापलूसी से, इधर-उधर की वाचालता, सच्चे-झूठे आरोप लगा कर, कालाबाजारी कर जीवन के उच्चतम शिखर पर पहूँच कर इतराता, विजय के क्षणों में समाज के सभी सुखों मान-सम्मान का उपभोग करते हुए न जाने कितनी आने वाली अपनी पीढि़यों के लिये सुन्दर भविष्य की स्थापना करता है,वही सफल है। इसके विपरीत ईमानदारी और सच्चाई की पोटली पकडे़ वह रास्ते की की ठोकरें खाता है। निराशा के क्षणों में दोषारोपण करता है, अपने उन आदर्श माता-पिता पर, जिन्होंने समय, समाज के साथ उसमें चलती नीतियों के अनुरूप चल सकने की शिक्षा नहीं दिलाई। वे सतयुग के लिये तैयार करते रहे इस कलयुग में!
यदि निराशा और असफलता के क्षणों में वह अपने ढांढस बंधाता है, यह कह कर कि जो बेईमानी, धोखाधड़ी, आन्याय करता है, दूसरों का गला काट कर आगे बढ़ता है, वह बाहय् रूप से अवश्य सुखी लगता है मगर उसे अपने किये का फल अवश्य भोगना पड़ता है, भगवान के घर देर है अन्धेर नहीं। उसको उसका फल मिलेगा ही। हो सकता है जीवन के अंतिम क्षणों में अनीतियों को अपनाने वाला क्षुब्ध हो, दुखी हो, लेकिन उससे क्या? उसने सारा जीवन तो ऐश-आराम भोगा परिवार ने सुख भोगा, समाज में इज्जत मिली, उसके सात खून भी माफ। उसके खिलाफ समाज में दबी जबान में कुछ अंगुलियां जरूर उठेंगी, मगर धन और पद की विशाल छाया में मुरझा जायेंगी।
इसके दूसरे पक्ष में यह कहा जा सकता है, कि ईमानदारी, कर्मठता, मानवता की राह पर चलते हुए भी लोग सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचे है! म्गर कितने? कितना प्रतिशत है उनका? नगण्य!
आत्मिक संतोष और आदर्शों को पालन करते रहने की गर्वानुभूति की बात कह कर भी इस पक्ष की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डाला जा सकता है। ठीक है। परन्तु मनुष्य केवल आदर्श और आत्मिक संतोष पर ही तो जीवित नहीं रह सकता है, उसको चाहिए जीवन-यापन के लिये धन, समाज में मान-सम्मान और अपने बच्चों का सुन्दर भविष्य।
यह नौकरी, व्यापार, शिक्षा, प्राइवेट फर्म में काम करने वाले लोगों में, मेहनत, नैतिकता और मानवता को तिलांजलि देकर क्या-क्या हथकंडे, एक दूसरे को नीचा गिरा कर काट कर आगे बढ़ने के लिये अपनाये जाते है, सभी जानते है।
क्या हाल है इसका? क्यों न फिर मनुष्य को जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में आनेवाले राजनीति, धोखाधड़ी अन्याय और षड्यंत्र तथा अनीतियों से भी परिचित कराया जाय, उसके संभावित समाधानों से अवगत कराया जाय, ताकि समय आने पर वह अपनी जीविका, मान-सम्मान तथा पद की रक्षा करने में सफल हो सके।
कई बार सोचा है। सोचती ही रह गई हूँ कि हम आज बच्चों के जीवन की नींव ईमानदारी, कर्मठता, परिश्रम, धार्मिकता,मानवता, नैतिकता, पर रखने का प्रयास कर रहे है। यह सच भी है, कि प्रत्येक माता-पित के इस पक्ष के प्रति जागरूक रहने के कारण सफल भी होंगे। पर इन्हीं दृढ़ संस्कारों में पला बालक जब बड़ा होकर अपनी इसी मानवता के नैतिक मूल्यों की अमूल्य पूंजी लेकर जीवन के वास्तविक कर्म क्षेत्र में पहूँचता है, तो वह दुविधा में पड़ा सोचता रह जाता है, कि वह किस शक्ति को लेकर भटक रहा है-चाहे वह शिक्षा हो, नौकरी हो, व्यापार हो अथवा जीवन-यापन का कोई अन्य साधन। यही आदर्श उसे दर-दर का भिखारी बना देते है। जगह-जगह प्रताड़ना मिलती है उसको, उसकी ईमानदारी की, उसके उसूलों के पक्के होन की और या यूं कहिये उसकी मूर्खता की।
जो बेईमानी से, धोखे से, चापलूसी से, इधर-उधर की वाचालता, सच्चे-झूठे आरोप लगा कर, कालाबाजारी कर जीवन के उच्चतम शिखर पर पहूँच कर इतराता, विजय के क्षणों में समाज के सभी सुखों मान-सम्मान का उपभोग करते हुए न जाने कितनी आने वाली अपनी पीढि़यों के लिये सुन्दर भविष्य की स्थापना करता है,वही सफल है। इसके विपरीत ईमानदारी और सच्चाई की पोटली पकडे़ वह रास्ते की की ठोकरें खाता है। निराशा के क्षणों में दोषारोपण करता है, अपने उन आदर्श माता-पिता पर, जिन्होंने समय, समाज के साथ उसमें चलती नीतियों के अनुरूप चल सकने की शिक्षा नहीं दिलाई। वे सतयुग के लिये तैयार करते रहे इस कलयुग में!
यदि निराशा और असफलता के क्षणों में वह अपने ढांढस बंधाता है, यह कह कर कि जो बेईमानी, धोखाधड़ी, आन्याय करता है, दूसरों का गला काट कर आगे बढ़ता है, वह बाहय् रूप से अवश्य सुखी लगता है मगर उसे अपने किये का फल अवश्य भोगना पड़ता है, भगवान के घर देर है अन्धेर नहीं। उसको उसका फल मिलेगा ही। हो सकता है जीवन के अंतिम क्षणों में अनीतियों को अपनाने वाला क्षुब्ध हो, दुखी हो, लेकिन उससे क्या? उसने सारा जीवन तो ऐश-आराम भोगा परिवार ने सुख भोगा, समाज में इज्जत मिली, उसके सात खून भी माफ। उसके खिलाफ समाज में दबी जबान में कुछ अंगुलियां जरूर उठेंगी, मगर धन और पद की विशाल छाया में मुरझा जायेंगी।
इसके दूसरे पक्ष में यह कहा जा सकता है, कि ईमानदारी, कर्मठता, मानवता की राह पर चलते हुए भी लोग सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुंचे है! म्गर कितने? कितना प्रतिशत है उनका? नगण्य!
आत्मिक संतोष और आदर्शों को पालन करते रहने की गर्वानुभूति की बात कह कर भी इस पक्ष की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डाला जा सकता है। ठीक है। परन्तु मनुष्य केवल आदर्श और आत्मिक संतोष पर ही तो जीवित नहीं रह सकता है, उसको चाहिए जीवन-यापन के लिये धन, समाज में मान-सम्मान और अपने बच्चों का सुन्दर भविष्य।
यह नौकरी, व्यापार, शिक्षा, प्राइवेट फर्म में काम करने वाले लोगों में, मेहनत, नैतिकता और मानवता को तिलांजलि देकर क्या-क्या हथकंडे, एक दूसरे को नीचा गिरा कर काट कर आगे बढ़ने के लिये अपनाये जाते है, सभी जानते है।
क्या हाल है इसका? क्यों न फिर मनुष्य को जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में आनेवाले राजनीति, धोखाधड़ी अन्याय और षड्यंत्र तथा अनीतियों से भी परिचित कराया जाय, उसके संभावित समाधानों से अवगत कराया जाय, ताकि समय आने पर वह अपनी जीविका, मान-सम्मान तथा पद की रक्षा करने में सफल हो सके।
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