लहू के दो रंग
किसी की वाणी में इतना भी जादू हो सकता है, खेलों में इतना अधिक प्रभाव हो सकता है कि उसे देखे बिना ही केवल पढ़ उसके पीछे चल पड़े थे। वैसा ही कुछ शायद मेरे साथ भी था। स्थानीय समाज सेविका श्रीमती दामोलकर को देखने का मौका मुझे कभी न मिला था जब तब उनकी वार्तायें रेडियो पर सुनी थी। स्थानीय दैनिक-अखबार में अक्सर उनके लेख छपते। रविवार के दिन तो विशेष कालम में उनका लेख पढ़कर मेरा मन रोमान्चित हो उठता। दया से द्रवीभूत हो उठता मेरा मन समाज के उन असहाय शोषित निर्धन वर्ग विशेष के प्रति।कितनी कयणामयी होगी वह ममता की मूर्ति। आज जब अपना विश्लेशण करने बैठी हूँ तो लगता है कि कहीं मेरा किशोर मन उनके प्रति एन्फालुएल्टेड या हीरो वर्शिप की भावना से ग्रसित था।
इस बार हिन्द्री दैनिक में उनका लेख था ‘‘हम एयर कन्डिशन्ड भव्य सुख सविधाओं से युक्त कमरे में बैठ कर उस मजदूर दलित वर्ग के दुख और शोषण की कल्पना भी नहीं कर सकते। छोटे-छोटे बालकों से मजदूरों के समान रात दिन काम करवाना उनके साथ अन्याय ही नहीं उनकी हत्या करना है छोटी सी खिलती कली को मसल डालना है। हमें इसके विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए। ’’कितनी ही सभाये उनके द्वारा आयोाजित हुई होंगी। कितनों को उन्होंने मानवीय अधिकारों की लड़ाई में विजय दिलावाई। बच्चों को हमने अधिकार दिलवाये उनके माँ बाप, तथा नारियों को शोषण की नारकीयता से मुक्ति दिलवाई। धन्य है वह नारी जिसने इतनी जागरूकता फैलाई। चैतन्यता का बीज बोया उनकी अपने व्यक्तिगत अस्तित्व से परिचय करवाया।’’
जब-जब मैं कुछ दूर पर बन रहे सामने वाले घर में बच्चों को दौड़ कर एक-एक ईटों को उठाते, करीने से सजाते, जमीन को खोदने का असफल प्रयास करते मैं देखती तो म मिसेज दामोलकर की बड़ी याद आती है। काश वह यहा होती तो मैं उन्हें यह दृश्य दिखला पाती।
राची के अशोक विहार पुरम कालोनी बड़ी पाश, मुख्य शहर से दूर, दोनों तरफ गाव से घिरी, एक तरफ छोटी पहाड़ी नदी के निकट बसी बड़ी तेजी से विस्तार पा रही है। चैड़ी साफ सुथरी सड़कें सुन्दर सा मार्केट, कम्यूनिटी हाल कुछ नये नर्सरी स्कूल आदि तथा एक से बढ़कर एक सुन्दर घर तथा भव्य इमारते। किसके पास कितना पैसा है और वह उच्चवर्ग की किस श्रेणी में स्वयं को रखता है इसका अन्दाजा इमारतों, भवनों को देखकर बड़ी ही सहजता से लगाया जा सकता है। गाव के पास बसा होने के कारण गाव की मोहकता, शहर की भीड़-भाड़ से दूर बहुत शान्त और मनोरम। कुनमुना-कर सोये शान्त शिशु सा। सुबह बड़ी ही सुहावनी।
पास के गाव के अधनंगे बच्चे, कन्धे पर दोनो ओर छोटी-छोटी बांस की टोकरिया रखे, घूमने के आकर्षण से घिरे गोबर लकड़ी चुनने के बहाने टोलियाँ बनाकर सुबह-सुबह ही निकल पड़ते हैं। शायद उन लोगों में भी होड़ लगी रहती है कि कौन सबसे पहले और सबसे ज्यादा सामान इकट्ठा करता है। या फिर सिर पर टोकरी, हाथ में छोटी-छोटी कुदालियाँ लिये गाव की स्त्रियाँ गायों के लिये, घास छिलने, साहब लोगों के बड़े विशाल बॅगलों के चक्कर काटती है। दो तीन औरतों लड़कियों का दल रहता है। मौका देखते ही धड़ाधड़ गेट खोल कर भीतर घुस जाता है। आठ बजते सभी घरों से मोटर गाडि़यों का निकलना शुरू हो जाता है 10 बजते पूरी कालोनी खाली।
मै इसी कालोनी के एक बड़े बंगले के गैरेज पोर्शन में रहती हॅू कालेज में बीण्एण् की छात्रा हूँ । अपनी मासी के साथ लगभग दो साल से रह रही हूँ 10 बजे से मेरे क्लास होते है। अक्सर ही बाल्कनी में आ खड़ी होती हूँ । सामने कुछ दूरी पर दो मंजिला घर बन रहा है। बड़े जोर शोर का रूप सजाया सवांरा जा रहा है। मैं देखती हूँ 9 बजते-बजते मजदूरों और रेजाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक मेमसाबह रोज समय पर घर बनवाने आती है। कोई दिन भी ऐसा नहीं बीतता जिस दिन किसी मजदूर के पैसों को लेकर झड़प न होती हो चेहरा आदि तो दिखाई नहीं पड़ता मगर हल्ला गुल्ला सबका घेरा बनाकर एक साथ खड़ा हो जाना और फिर कुछ देर बाद काम का शुरू होना दिखाई पड़ता था।
दो तीन दिन से देख रही हूॅं कि गोबर चुनने वाले छोटे-छोटे बच्चों की टोली जुटी उस घर के मेम साब के आस-पास खड़ी होती है और काफी हंस कर बाते करती रहती है। नंगे बदन 8-12 साल के दुबले पतले बच्चे। मुझे लगा कितनी अच्छी होगी वो।
दूसरे दिन ठीक नौ बजे वही बालक टोली बड़ी मुस्तैदो से अपने काम में जुटी है। फावड़ा लिये कोई खोद रहा है कोई घास उखाड़ कर फेंक रहा है कोई ईंटे लगा रहा है। वे बाल गोपाल ही लग रहे थे। फूलों की क्यारी बन रही थी फूल जैसे कोमल हाथों से। बच्चों में काम करने का उत्साह, गोबर से भरे बहंगी को कोने में रखकर कपड़े के एक छोटे टुकड़े से अधोतन को ढ़के हुए ये बालगोपाल कितने दृढ़ प्रतिज्ञ लगते। आशा दीप से जल रहे उनके नेत्र धन प्राप्ति के लोभ में साम्यर्थ से भी अधिक कुछ करने की तैयारी कर रहे थे।
मई जून की चिलचिलाती धूप। बाहर गर्म हवा के बगूले और लू एक क्षण भी बाल्कनी में खड़ा होना मुश्किल है। कालेज से लौटते-लौटते 12ः 30-01ः 00 बज ही जाता है। गला प्यास से सूख जाता है पसीने से तरबतर आकर घर में तेजी से पंखा खोल देती हूँ मगर ये कर्मयुद्ध के सिपाही नन्हें बाल मजदूर तैनात हे अपने मोर्चे पर। कुछ देर तक लेटती हूँ मगर मन नहीं लगता तो दरवाजा खोल कर बाहर झाकती हूँ गर्म हवा का एक झांेका, झपास मार कर अन्दर घुस जाता है। खड़े होकर सामने देखती हूँ घर बनने का काम पूर्ववत हो रहा है उस पर इन गर्म तीखी प्रकाश और ताप काह कोई प्रभाव नहीं। दरवाजा बन्दकर फिर लेट जाती हूँ । पास में अधूरी पड़ी पुस्तक को फिर से उठा कर लेती हूँ । कुछ पल पढ़ती हूँ कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आती है। उठती हूँ -दो छोटे बच्चे एक घायल बच्चे को सहारा दिये दरवाजे पर खड़े है। कुछ दवा दीजिये न’? कितनी ज्यादा चोट लगी है इसे,कहाँ से लगी चोट? उस घर में हम काम करते है। तुम लोग --- क्या काम करते हो ---? अभी सुबह का स्कूल है दिन भर खाली रहते हैं। थोड़ा कमा लेते है।’’कितना मिल जाता है?- - - मैने घाव को पानी से धोते हुए पूछा हम तीनों के एक-एक रूपया रोज। दो दिन हो गये 6 रूपये मिल गये कुल पैसों मे 6 रूपये और मिल जायेंगे क्या करोगे इन रूपयों का।’’ एक दूसरे के पीछे छिपते शरमाते 8-12 वर्षों के उत्साही बच्चे बोले 3,5,7 मे पढ़ते हैं हम। थोड़ा-थोड़ा जमा कर लेंगे स्कूल के पोशाक के लिये।’’ और नाम क्या तुम लोगों का,- बाही, मुन्ना और बन्दी।
बन्दी उसमें सबसे बड़ा था बाही उसके बाद और मुन्ना शायद सबसे छोटा। लेकिन काम करने का उत्साह, की चमक उसमें सबसे ज्यादा थी। जिस लगन से वे काम करते मेरे मुख से तारीफ निकल ही जाती। और एक दबी सी आह भी। इतने छोटे बच्चे कुल मिला कर किसी भी तरह उतना ही काम कर लेते है दो दिन की मेहनत का मात्र 2 रूपये इतना शोषण कलप-कलप उठता मेरा मन काश मैं मिसेज दामोलकर से मिल पाती उन्हे दिखलाती कि मजदूरी महंगी हो जाने के कारण दर-दर भटकते इन बच्चों पर क्या गुजर रही है। जरा से पैसो के लालच में अपनी शक्ति से कितना अधिक करने का प्रयास है इनका और काम करने में सफल भी है।
लाल दवा लगाकर सहानुभूति से मैंने कहा लो इससे ठीक हो जायेगा?। कभी जरूरत हो तो यहीं आ जाना और वे उछलते कूदते चले गये।
उस दिन कालेज मे ही पता चला था बाल मजदूर नवजागरण पर मिसेज दामोलकर का भाषण निकट के मैदान में होने वाला है। अन्तिम दो पीरियड न होने के कारण मैं उनका भाषण सुनने का मोह न छोड़ सकी काफी भीड़ थी बड़ा जोरदार भाषण रहा। मैं उनके बोलने के ढंग पर मुग्ध थी कितनी सटीक, भावपूर्ण सहज और मार्मिक उक्तियाँ थी मंच से उतरते ही सबने उन्हें घेर लिया बड़े प्यार से दुलारते सहलाते वे एक देवी सी लग रही थी। मेरा मन श्रद्धा से झुक गया। निश्चय किया अपने घर के सामने होने वाली घटना से मै उन्हें अवश्य परिचत करवाउंगी इनसे जरूर मिलवौंगी जहां ये शोषण हो रहा है संसार में कितने तरह के लोग है कहाँ ये दामेलकर, और कहाँ वह कठोर निर्दयी निष्ठुर भावहीन इमारत वाली महिला दोनों ही अलग म्गजतमउम पर।
भाषण के प्रभाव से डूबता उतराता मेरा युवा मन कुछ कर गुजरने को ब्याकुल हो उठा रात भर उन्हीं कल्पनाओं में खोयी रही। सोचा पहले 9 बजे जाकर बच्चों के साथ उन महिला से मिलूँगी तब दामेलकर को लेकर जाऊँगी । वे जरूर मेरे आयेगी करूणामय, बच्चों के लिये तो उनका रोम-रोम विह्वल है।
सुबह का मुझे बेसब्री से इन्तजार था बाल मण्डली आ जुटी थी आज उनकी संख्या ज्यादा थी धीरे-धीरे मैं उस इमारत की ओर बढ़ रही थी। दूर से एक मध्यम कद, की, सिल्क की प्रिंटेड साडी दिखाई पड़ रही थी चेहरा साफ नहीं था डाटने की काम न करने की किसी बात पर जोर-जोर से बिगड़ रही थी, ‘‘अगर इतने ईट उठाकर ठीक से नहीं रखे गये जगह पूरी साफ न हुई तो कल के पैसे भी नहीं दूंगी न जाने कहाँ से चले आते हैं ये छोकरे, नालायक कहीं के’’ मेरी ऑंखें उन बच्चों को खोज रही थी मगर वे दिखाई न पड़ रहे थे निकट पहुँच कर पीछे से क्रोध और आक्रोश से लगभग चीखकर मैने कहा सुनिये मैडम -- क्या अपने इन बच्चों को काम पर लगाया है--- वह अचानक घूमी - ‘‘क्यों क्या बात है? आपको क्या तकलीफ है? रूक्ष और झुंझलाये स्वर मे उन्होंने घूमकर कहा-
मेरा मुख आश्चर्य से खुला रह गया आवाक- - - कल की भाषण देने वाली मिसेज दामेलकर , मेरी आदर्श - - -हाँ बिल्कुल वहीं - - - वही- - - चेहरा - - - आप --? हकलाते हुए मेरे आगे शब्द मुँह में ही रह गये क्या क्या हुआ? क्या चाहिये।
मेरा सारा जोश ठंडा पड़ चुका था जी मेरे मन की अमोल प्रतिमा खण्डित हो चुकी थी कुछ नहीं - -- सारी धीमी गति से मैं लौट पड़ी सोच रहीं थी मिसेज दामेलकर का कौन सा रूप सही है वह कि यह---?
किसी की वाणी में इतना भी जादू हो सकता है, खेलों में इतना अधिक प्रभाव हो सकता है कि उसे देखे बिना ही केवल पढ़ उसके पीछे चल पड़े थे। वैसा ही कुछ शायद मेरे साथ भी था। स्थानीय समाज सेविका श्रीमती दामोलकर को देखने का मौका मुझे कभी न मिला था जब तब उनकी वार्तायें रेडियो पर सुनी थी। स्थानीय दैनिक-अखबार में अक्सर उनके लेख छपते। रविवार के दिन तो विशेष कालम में उनका लेख पढ़कर मेरा मन रोमान्चित हो उठता। दया से द्रवीभूत हो उठता मेरा मन समाज के उन असहाय शोषित निर्धन वर्ग विशेष के प्रति।कितनी कयणामयी होगी वह ममता की मूर्ति। आज जब अपना विश्लेशण करने बैठी हूँ तो लगता है कि कहीं मेरा किशोर मन उनके प्रति एन्फालुएल्टेड या हीरो वर्शिप की भावना से ग्रसित था।
इस बार हिन्द्री दैनिक में उनका लेख था ‘‘हम एयर कन्डिशन्ड भव्य सुख सविधाओं से युक्त कमरे में बैठ कर उस मजदूर दलित वर्ग के दुख और शोषण की कल्पना भी नहीं कर सकते। छोटे-छोटे बालकों से मजदूरों के समान रात दिन काम करवाना उनके साथ अन्याय ही नहीं उनकी हत्या करना है छोटी सी खिलती कली को मसल डालना है। हमें इसके विरूद्ध आवाज उठानी चाहिए। ’’कितनी ही सभाये उनके द्वारा आयोाजित हुई होंगी। कितनों को उन्होंने मानवीय अधिकारों की लड़ाई में विजय दिलावाई। बच्चों को हमने अधिकार दिलवाये उनके माँ बाप, तथा नारियों को शोषण की नारकीयता से मुक्ति दिलवाई। धन्य है वह नारी जिसने इतनी जागरूकता फैलाई। चैतन्यता का बीज बोया उनकी अपने व्यक्तिगत अस्तित्व से परिचय करवाया।’’
जब-जब मैं कुछ दूर पर बन रहे सामने वाले घर में बच्चों को दौड़ कर एक-एक ईटों को उठाते, करीने से सजाते, जमीन को खोदने का असफल प्रयास करते मैं देखती तो म मिसेज दामोलकर की बड़ी याद आती है। काश वह यहा होती तो मैं उन्हें यह दृश्य दिखला पाती।
राची के अशोक विहार पुरम कालोनी बड़ी पाश, मुख्य शहर से दूर, दोनों तरफ गाव से घिरी, एक तरफ छोटी पहाड़ी नदी के निकट बसी बड़ी तेजी से विस्तार पा रही है। चैड़ी साफ सुथरी सड़कें सुन्दर सा मार्केट, कम्यूनिटी हाल कुछ नये नर्सरी स्कूल आदि तथा एक से बढ़कर एक सुन्दर घर तथा भव्य इमारते। किसके पास कितना पैसा है और वह उच्चवर्ग की किस श्रेणी में स्वयं को रखता है इसका अन्दाजा इमारतों, भवनों को देखकर बड़ी ही सहजता से लगाया जा सकता है। गाव के पास बसा होने के कारण गाव की मोहकता, शहर की भीड़-भाड़ से दूर बहुत शान्त और मनोरम। कुनमुना-कर सोये शान्त शिशु सा। सुबह बड़ी ही सुहावनी।
पास के गाव के अधनंगे बच्चे, कन्धे पर दोनो ओर छोटी-छोटी बांस की टोकरिया रखे, घूमने के आकर्षण से घिरे गोबर लकड़ी चुनने के बहाने टोलियाँ बनाकर सुबह-सुबह ही निकल पड़ते हैं। शायद उन लोगों में भी होड़ लगी रहती है कि कौन सबसे पहले और सबसे ज्यादा सामान इकट्ठा करता है। या फिर सिर पर टोकरी, हाथ में छोटी-छोटी कुदालियाँ लिये गाव की स्त्रियाँ गायों के लिये, घास छिलने, साहब लोगों के बड़े विशाल बॅगलों के चक्कर काटती है। दो तीन औरतों लड़कियों का दल रहता है। मौका देखते ही धड़ाधड़ गेट खोल कर भीतर घुस जाता है। आठ बजते सभी घरों से मोटर गाडि़यों का निकलना शुरू हो जाता है 10 बजते पूरी कालोनी खाली।
मै इसी कालोनी के एक बड़े बंगले के गैरेज पोर्शन में रहती हॅू कालेज में बीण्एण् की छात्रा हूँ । अपनी मासी के साथ लगभग दो साल से रह रही हूँ 10 बजे से मेरे क्लास होते है। अक्सर ही बाल्कनी में आ खड़ी होती हूँ । सामने कुछ दूरी पर दो मंजिला घर बन रहा है। बड़े जोर शोर का रूप सजाया सवांरा जा रहा है। मैं देखती हूँ 9 बजते-बजते मजदूरों और रेजाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक मेमसाबह रोज समय पर घर बनवाने आती है। कोई दिन भी ऐसा नहीं बीतता जिस दिन किसी मजदूर के पैसों को लेकर झड़प न होती हो चेहरा आदि तो दिखाई नहीं पड़ता मगर हल्ला गुल्ला सबका घेरा बनाकर एक साथ खड़ा हो जाना और फिर कुछ देर बाद काम का शुरू होना दिखाई पड़ता था।
दो तीन दिन से देख रही हूॅं कि गोबर चुनने वाले छोटे-छोटे बच्चों की टोली जुटी उस घर के मेम साब के आस-पास खड़ी होती है और काफी हंस कर बाते करती रहती है। नंगे बदन 8-12 साल के दुबले पतले बच्चे। मुझे लगा कितनी अच्छी होगी वो।
दूसरे दिन ठीक नौ बजे वही बालक टोली बड़ी मुस्तैदो से अपने काम में जुटी है। फावड़ा लिये कोई खोद रहा है कोई घास उखाड़ कर फेंक रहा है कोई ईंटे लगा रहा है। वे बाल गोपाल ही लग रहे थे। फूलों की क्यारी बन रही थी फूल जैसे कोमल हाथों से। बच्चों में काम करने का उत्साह, गोबर से भरे बहंगी को कोने में रखकर कपड़े के एक छोटे टुकड़े से अधोतन को ढ़के हुए ये बालगोपाल कितने दृढ़ प्रतिज्ञ लगते। आशा दीप से जल रहे उनके नेत्र धन प्राप्ति के लोभ में साम्यर्थ से भी अधिक कुछ करने की तैयारी कर रहे थे।
मई जून की चिलचिलाती धूप। बाहर गर्म हवा के बगूले और लू एक क्षण भी बाल्कनी में खड़ा होना मुश्किल है। कालेज से लौटते-लौटते 12ः 30-01ः 00 बज ही जाता है। गला प्यास से सूख जाता है पसीने से तरबतर आकर घर में तेजी से पंखा खोल देती हूँ मगर ये कर्मयुद्ध के सिपाही नन्हें बाल मजदूर तैनात हे अपने मोर्चे पर। कुछ देर तक लेटती हूँ मगर मन नहीं लगता तो दरवाजा खोल कर बाहर झाकती हूँ गर्म हवा का एक झांेका, झपास मार कर अन्दर घुस जाता है। खड़े होकर सामने देखती हूँ घर बनने का काम पूर्ववत हो रहा है उस पर इन गर्म तीखी प्रकाश और ताप काह कोई प्रभाव नहीं। दरवाजा बन्दकर फिर लेट जाती हूँ । पास में अधूरी पड़ी पुस्तक को फिर से उठा कर लेती हूँ । कुछ पल पढ़ती हूँ कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आती है। उठती हूँ -दो छोटे बच्चे एक घायल बच्चे को सहारा दिये दरवाजे पर खड़े है। कुछ दवा दीजिये न’? कितनी ज्यादा चोट लगी है इसे,कहाँ से लगी चोट? उस घर में हम काम करते है। तुम लोग --- क्या काम करते हो ---? अभी सुबह का स्कूल है दिन भर खाली रहते हैं। थोड़ा कमा लेते है।’’कितना मिल जाता है?- - - मैने घाव को पानी से धोते हुए पूछा हम तीनों के एक-एक रूपया रोज। दो दिन हो गये 6 रूपये मिल गये कुल पैसों मे 6 रूपये और मिल जायेंगे क्या करोगे इन रूपयों का।’’ एक दूसरे के पीछे छिपते शरमाते 8-12 वर्षों के उत्साही बच्चे बोले 3,5,7 मे पढ़ते हैं हम। थोड़ा-थोड़ा जमा कर लेंगे स्कूल के पोशाक के लिये।’’ और नाम क्या तुम लोगों का,- बाही, मुन्ना और बन्दी।
बन्दी उसमें सबसे बड़ा था बाही उसके बाद और मुन्ना शायद सबसे छोटा। लेकिन काम करने का उत्साह, की चमक उसमें सबसे ज्यादा थी। जिस लगन से वे काम करते मेरे मुख से तारीफ निकल ही जाती। और एक दबी सी आह भी। इतने छोटे बच्चे कुल मिला कर किसी भी तरह उतना ही काम कर लेते है दो दिन की मेहनत का मात्र 2 रूपये इतना शोषण कलप-कलप उठता मेरा मन काश मैं मिसेज दामोलकर से मिल पाती उन्हे दिखलाती कि मजदूरी महंगी हो जाने के कारण दर-दर भटकते इन बच्चों पर क्या गुजर रही है। जरा से पैसो के लालच में अपनी शक्ति से कितना अधिक करने का प्रयास है इनका और काम करने में सफल भी है।
लाल दवा लगाकर सहानुभूति से मैंने कहा लो इससे ठीक हो जायेगा?। कभी जरूरत हो तो यहीं आ जाना और वे उछलते कूदते चले गये।
उस दिन कालेज मे ही पता चला था बाल मजदूर नवजागरण पर मिसेज दामोलकर का भाषण निकट के मैदान में होने वाला है। अन्तिम दो पीरियड न होने के कारण मैं उनका भाषण सुनने का मोह न छोड़ सकी काफी भीड़ थी बड़ा जोरदार भाषण रहा। मैं उनके बोलने के ढंग पर मुग्ध थी कितनी सटीक, भावपूर्ण सहज और मार्मिक उक्तियाँ थी मंच से उतरते ही सबने उन्हें घेर लिया बड़े प्यार से दुलारते सहलाते वे एक देवी सी लग रही थी। मेरा मन श्रद्धा से झुक गया। निश्चय किया अपने घर के सामने होने वाली घटना से मै उन्हें अवश्य परिचत करवाउंगी इनसे जरूर मिलवौंगी जहां ये शोषण हो रहा है संसार में कितने तरह के लोग है कहाँ ये दामेलकर, और कहाँ वह कठोर निर्दयी निष्ठुर भावहीन इमारत वाली महिला दोनों ही अलग म्गजतमउम पर।
भाषण के प्रभाव से डूबता उतराता मेरा युवा मन कुछ कर गुजरने को ब्याकुल हो उठा रात भर उन्हीं कल्पनाओं में खोयी रही। सोचा पहले 9 बजे जाकर बच्चों के साथ उन महिला से मिलूँगी तब दामेलकर को लेकर जाऊँगी । वे जरूर मेरे आयेगी करूणामय, बच्चों के लिये तो उनका रोम-रोम विह्वल है।
सुबह का मुझे बेसब्री से इन्तजार था बाल मण्डली आ जुटी थी आज उनकी संख्या ज्यादा थी धीरे-धीरे मैं उस इमारत की ओर बढ़ रही थी। दूर से एक मध्यम कद, की, सिल्क की प्रिंटेड साडी दिखाई पड़ रही थी चेहरा साफ नहीं था डाटने की काम न करने की किसी बात पर जोर-जोर से बिगड़ रही थी, ‘‘अगर इतने ईट उठाकर ठीक से नहीं रखे गये जगह पूरी साफ न हुई तो कल के पैसे भी नहीं दूंगी न जाने कहाँ से चले आते हैं ये छोकरे, नालायक कहीं के’’ मेरी ऑंखें उन बच्चों को खोज रही थी मगर वे दिखाई न पड़ रहे थे निकट पहुँच कर पीछे से क्रोध और आक्रोश से लगभग चीखकर मैने कहा सुनिये मैडम -- क्या अपने इन बच्चों को काम पर लगाया है--- वह अचानक घूमी - ‘‘क्यों क्या बात है? आपको क्या तकलीफ है? रूक्ष और झुंझलाये स्वर मे उन्होंने घूमकर कहा-
मेरा मुख आश्चर्य से खुला रह गया आवाक- - - कल की भाषण देने वाली मिसेज दामेलकर , मेरी आदर्श - - -हाँ बिल्कुल वहीं - - - वही- - - चेहरा - - - आप --? हकलाते हुए मेरे आगे शब्द मुँह में ही रह गये क्या क्या हुआ? क्या चाहिये।
मेरा सारा जोश ठंडा पड़ चुका था जी मेरे मन की अमोल प्रतिमा खण्डित हो चुकी थी कुछ नहीं - -- सारी धीमी गति से मैं लौट पड़ी सोच रहीं थी मिसेज दामेलकर का कौन सा रूप सही है वह कि यह---?
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