Sunday, March 31, 2013

Agman

              आगमन                                                                         
नवमी तक तो देवी के अर्चना के फूल उपवन में इक्का-दूक्का ही दिख रहे थे। चढ़ाने के लिये फू लों  की माँग थी। अंधेरे मुँह  ही यू ये फूल , चहरदिवारी से फांद कर भक्तों के द्वारा तोड़ लिये जाते थे। सुना है चोरी से तोड़े गये इन फूलों को जब देवी पर चढ़ाया जाता तब आधा पुण्य और आशीष फूलों की देख-रेख करने वाले व्यक्ति को भी प्राप्त हो जाता है लेकिन दशमी के दो दिनों के बाद ही घर के बगीचे मे एक आनन्दमय उल्लास सा छा गया। गुड़हल के लाल बिन्दों जैसे लटकते फूलों से पेड़ो की झाड़ी भर गयी पीले फूलों वाली लतर गदरा कर खिल गई। पीली आभा चारों ओर फैल कर दिव्य वातावरण बना रही थी। आम के पेड़ों पर असमय ही बौर थे एक मात्र आम को टिकोरा /छोटा फल/ लटक कर शुभ आगमन की सूचना के पट लहरा रहा था। उसके नये कोमल पल्लव पहले ताम्बई, फिर धानी रंग में कुछ अनोखा सौंदर्य बिखेर रहे थे। द्वार पर खड़े दो कदम के पेडों के फूल पीले और हरे लड्डुओं के रूप में हॅंस कर अठखेलिया करते प्रतीत हो रहे थे। लगता था छोटे बच्चों के खेलने के लिये ललचाते टपाटप धरती पर आकर फुदकने लगते। नन्हे मुन्ने बच्चों /कन्याओं की टोली ने/भोजन पर आकर घर आँगन  गुलजार कर दिया। सबने खुश होकर भर पेट खाया। तश्तरियाँ  ली और भोली मुस्कान से चहकते हुए अपने बारे में जानकारी दी। पता नहीं कैसा अजीब सा पवित्र वातावरण दैनिक अनुभूति सी हो रही थी।
कई वर्षों से उदास निराश मन मे अचानक इक जोत सी जगी घर में मेहमान तो आने ही वाला था। बार-बार विचार आने लगे। अब की सब कुछ बदल दो। दस वर्षों से एक ही रंग बदलवा दों। और समय पर पेन्ट भी आ गया और सब मनचाहा होने लगा। नया  बाथरूम, छोटा-सा बेडरूम छोटी-सी पैसेज, मेरी इच्छा है कि किचन का प्रवेश उधर से ही हो। ड्राईंगरूम से नहीं। नीला, हरा, गुलाबी हर कमरे का अलग रंग। बहुत खुशनुमा। कितनी बिलनियों के घर बने, चिडि़यों का झूले पर एक दूसरे को चारा खिलाना, लड़ना झगड़ना चलकना। फाख्ता का सिर उठा कर गर्वीली मुद्रा में चहल-कदमी करना और हाँ  प्यारे गुलाबी रंगों के गुलाब के फूलों की लतर जो नारंगी के पेड़ के साथ गले मिलकर फूलों के सखा बन बैठे है। उपर से मानों आशीषों की वर्षा कर रहे हो। फिशपाम के बड़े गमलों ने श्रीमान जी की प्रेरणा पाकर ग्रील के सामने प्रवेश द्वार पर सामने मण्डप सा बना दिया है मानों कुटिया का प्रवेश द्वार अंगूर की लता का किचन की खिड़की के उपर जाकर छा जाना मन को भा रहा था कटिंग-शटिंग के बाउ कोमल पल्लवो का अंगूरी रंग उमंग की हिलोरे मन में जगा रहा था। घर के अन्दर द्वार पर गणेश जी विराज गये। श्री राम लक्ष्मण सीता एवं हनुमान जी, स्वागत कक्ष को भव्य बनाया। न मालूम कौन सी दिव्यात्मा के आने के शुभ संकेत मिल रहे थे पिछले व महीनों से।
24 सितम्बर अष्टमी के दिन अकाएक दिन के 1ः30 बजे फोन की घण्टी घनघना उठी। गुड न्यूज जिसकी आप आशा कर रही थी। वह आ गया एक नन्ही सी परी जादू की छड़ी, फूलों की लडी, खुशियों की   शायद इसके आगमन के लिये ही इतनी तैयारियाँ  चल रही थी ‘गौरी’ के आगमन के स्वागत का इतना भव्य और आलौकिक आयोजन शुरू हो गई दौड़ धूप, हलचल, गाड़ी चालक नाना नानी बाबा दादी और मामी बुआ की प्यारी दुलारी। बाबा दादी की सुन्दरी-मुन्दरी, सोना-मोना गौरी के आने से गूजने लगा घर आँगन । कमरे की दीवारों की नीली आभा और गौरी के गुलाबी के कपड़ों का काम्बीनेशन में कुछ अधिक ही मोहक लग रहा था।

Sunday, March 24, 2013

Adhikar


                                             अधिकार
बात चाहे संसद की हो या सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए पदों  के आरक्षण की हो अथवा सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार की। पुरूष वर्ग के आँखों  की किरकिरी बेटियाँ , माताये या बहने ही क्यों? मेरी यह समझ में नहीं आता
अभी मैं पुरूषवर्ग के एक प्रतिनिधि भाई के रूप में चरचा करना चाहूँगी क्योंकि इस समय पारिवारिक समस्याओं में यह भी दहेज समस्या की तरह फैलता जा रहा है जिसका न कोई आदि है और न अन्त। जब से इस बिल को मान्यता मिली है कि पिता की सम्पत्ति मे बेटियों का भी अधिकार है और कार्यरूप् में परिणित किया गया है बेटियों का मायका, भाई बहन का सम्बन्ध दाँव पर लगा हुआ है
पिता के रूप में एक पुरूष अपने बेटे-बेटियों को बराबर नहीं तो सम्पत्ति का कुछ भाग देने का मन तो अवश्य बनाने लगा है कहीं  -कही पर लिख कर कानूनी तौर पर मजबूत बनाकर पिताओं ने वसीयत लिखी हे और कहीं पर मौखिक रूप से /कह कर /बॅटवारा किया है या उन्हें दिया है। लेकिन है कि उन्हें यह भी लिखकर भाइयों को दे देना है कि‘हमें इसमें से कुछ नही चाहिए हम अपना अधिकार भाइयों के पक्ष में हमेशा के लिए छोड़ते है। अगर वे ऐसा नही करती तो उनकी पढ़ी लिखी वकील पत्नी भी उनका /पुरूषों/ पक्ष लेती दिखी। सच का सामना’ में पुरूषों  की हवस का व्योरा उनकी अपनी बेटिया पत्निया सहन करती रहीं और यह सब जान कर भी समाज परिवार से जुड़ी रहने को विवश रही? कहने का मतलब है कि सामान्यतः घरों में 20  लड़कियो का जीवन सुरक्षित और सम्मानित है।
महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा ने कहा कि बालिकाओं को बचाया जाना चाहिए क्या इसलिए कि बचाने के बाद आग लगा कर दहेज के लिए जला दिया जाय गर्भवती स्त्रियों को यह भी अधिकार नहीं  िकवह अपनी बच्ची को जन्म देकर उसके सुरक्षित भविष्य को निश्चित कर सके।
पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों, बालिकाओं के लिये कुछ भी स्वतंत्र नहीं। मेरे विचार से यदि स्त्री स्वयं सोच सके कि वह अपनी बच्ची के अस्तित्व और सम्मानित जीवन के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने परिवार के साथ स्वयं खड़ी रहेगी घर परिवार समाज के सामने उसके साथ मिल कर लड़ेगी लेकिन तिल-तिल कर अपनी पढ़ी-लिखी स्वतंत्र एवं उदार विचारों वाली प्यारी दुलारी बेटी को जीवित लाश नहीं बनने देगी। तभी इस संसार में उसकों लायें।
स्त्रियों की पग-पग पर दुर्दशा, जब जन्म देने वाले परिवार के, अपने खून के सगे सम्बन्धियों चाचा, पापा, ताया मामा आदि के बीच रह क रवह सुरक्षित नही है तो बनाये गये सम्बन्ध ससुराल आदि से तो आशा करना भ्रम है।
इससे बेहतर तो यही होगा कि भ्रूण हत्या को कानूनी सर्मथन दे दिया जाये। कम से कम समाज में परिवार में माताओं को अपनी बेटियों को जीते जी मरते तो नहीं देखना पड़ेगा।
कानून की लाचार न्याय व्यवस्था? समाज सरकार कितना भी ढ़ोल बजा ले प्रगति का, उदार मानसिकता का मगर हे वह वहीं का वहीं बर्बर , संवेदनहीन और अनैतिक कितनी बेटियांे की बलि दी जायेगी इस आशा में कि कभी तो स्थिति बदलेगी कभी तो उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा। बस एक ही उपाय है इसका उनको संसार में लाने का पूरा अधिकार जन्म देने वाली माॅं को ही होना चाहिये वह भी वैधनिक।

Shiksha---jeene ki kala

                                                    शिक्षा-जीने की कला
समाज के वर्तमान समय में बच्चों में शिक्षा के प्रति लोगों में एक क्रान्ति की भावना का विकास हुआ है। चली आई हुई वर्तमान शिक्षा पद्धति और उसके प्रभाव ने लोगो को निराश और हतोत्साहित किया है। और जब चारों ओर से सब दरवाजे बन्द दिखाई पड़ते है तो एक नया झरोखा और आशा की किरण, प्रकाश का दीपक प्रस्फुटित हो उठता है। जनमानस उद्विग्न और व्याकुल होकर सोचने लगता है नई दिशाये, नये विचार सिद्धांत बदलाव तथा परिवर्तन। यह परिवर्तन सकारात्मक होता है, उद्देश्यपूर्ण होता है और अनेक लोगों का सामूहिक प्रयास सार्थक होने लगता है। जन समर्थन मिलने लगता है। परिणाम, प्रभाव अपनी पूरी सक्रियता से दिखाई पड़ने लगता है। प्रायः संघर्षों में नये संकल्प बनते है।
आप सबकी चिन्ता का विषय यही है कि शिक्षा में गुणवत्ता का विकास किस प्रकार हो तथा उसके सुधार से वह आज के युवा वर्ग को किस प्रकार सहायता कर सकती है। सही और गलत उचित और अनुचित की पहचान करने में तथा समाज के आस-पास के वातावरण के पति जागरूकता तथा उसे समझने तथा जानने मे।
    शिक्षा हमारे देश में कल के सक्षम नेताओं के विकास करने में कैसे सहायक हो सकती है? ऐसे नेता जो सबको समान रूप् से न्याय दिलाने में समर्थ हो। जो जड़ से जाति -पाति , उच-नीच, गरीब और अमीर के भेद को जड़ से उखड़ फेके और देश को सुरक्षा प्रदान कर प्रगति के पथ पर अग्रसर करें। हमारे सपनों के भारत को मूर्त रूप दे सकें।
नैतिकता का पतन सही गलत अनुचित की सीमा को पार कर जाना। विवके बुद्धि का। यह बताता है कि शिक्षा अपनी गुणवत्ता के प्रभाव को जमा पाने में असफल सी हो रही है। दोष किसे दिया जाय। यह समय इन आलोचनाओं पत्यालोचनाओं का नही है वरन् ठोस कदम उठाने का है। शिक्षा का व्यापक अर्थ है मानवीय संवेदनाओं के साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समुचित विकास छात्रों के सन्दर्भ-कक्षाये उत्तीर्ण करते हुए अंको और डिग्री के प्रशस्तिपत्र किसी को शिक्षित नही बनातें। वह ज्ञान का भण्डार विकसित करते है सूचनाओं को एकत्रित करते है यह भी शिक्षा का एक भाग, अंग है जिसे हम थेओरी  कह सकते है। परन्तु डिग्री वास्तविक शिक्षा में तभी कार्यान्वित /बदलती है/ जब उन सूचनाओं और ज्ञान को हम नित्य प्रति दैनिक जीवन में आवश्यकता पड़ने पर समाज, मनुष्य के कल्याण के लिये इस्तेमाल करने में स्वतंत्र सफल और सक्षम हो। वह तभी सार्थक है। संवेदनाओं के साथ सामाजिक नैतिक आर्थिक रानैतिक सभी क्षेत्रों में उसे लागू कर सके।
यह एक कठिन कार्य अवश्य है। मगर असंभव नहीं। कहा जा सकता है बचपन से जो बच्चों के अन्दर नैतिकता के बीज बोये जाये वो बड़े हेकर पनपेंगे और समाज तथा मानवीय स्तर पर, हर वर्ग को ऊंचा  उठायेगे उसकी जड़े काफी गहरी और मजबूत होगी। है तो बड़ा ही आदर्शात्मक। परन्तु विडम्बना यह है कि ऐसी नयी पौध बढ़ने से पहले ही समाज के तथाकथित महान ठेकेदारों द्वारा कुचल दिये जाते हैं। इससे पहले कि नये स्वच्छ वातावरण का निर्माण वो कर सके वर्तमान जीवन के भ्रम के चकाचैंध में खो जाते है।
      आवश्यकता है कि उन्हे भी युक्तियाँ  मालूम हो कि इस विषम चक्रव्यूह से सफलतापूर्वक निकल कर अपने आदर्शों और सिद्धांतो का परचम लहरा सके। उन्हे अपने आदर्शो पर हर हालत में सफल होकर दिखाना होगा। तभी सारे प्रयास सफल होंगें। सुझाव मात्र यह है कि जिस प्रकार वट वृक्ष की लम्बी जटाये वृक्ष के उपरी भाग से लटक कर जमीन में गहरी मजबूत जड़े बनाती है उसी प्रकार समाज में, घर में परिवार में, कार्यक्षेत्र में, आॅफिस में बाजारों  में उपर-नीचे, अगल-बगल चारों दिशाओं से परिवर्तन की प्रक्रिया क्रियाशील हो एक ही समय में एक ही साथ तो अपेक्षित परिवर्तन होने में समय न लगेगा।
 जिनके पास वर्तमान में यह शक्ति / धन, पद, बल/है उन्हें जाग्रत करना होगा। उन्हें विश्वास कर इस कार्यक्षेत्र के लिये उन्मुख करना कहीं अधिक व्यवहारिक होगा। उसके परिणाम तुरन्त दिखाई पड़ेगे अपेक्षा इसके कि जमीन को खोद कर नीव ही बदली जायें।
सत्यता, इमानदारी, कार्यकुशलता नैतिकता के धनी व्यक्तियों को ढ़ूढ कर अधिक से अधिक संख्या में उजागर किया जाये। मान्यता दी जाये ।तो वही दूसरो के लिये आदर्श और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का विषय और प्रेरक बनेगा सही दिशा में सोचने के लिये लोग बाध्य होने लगेंगे और जब लोगों को इसकी प्रमाणिकता व्यवहारिक जीवन में अधिक से अधिक मिलने लगेगी तो समाज का वातावरण बदलने में समय न लगेगा। यह परिवर्तन उपर-नीचे, बड़े-छोटे, नये पुराने अगल-बगल चारों ओर से होगा और इसके हवा पानी में ये कोमल स्वस्थ नैतिकता के बीज पनपेंगे, विकसित होंगे, लहलहायेंगे और कोई भी भ्रष्टाचार, बेइमानी धोखाधड़ी षड़यंत्र का प्रचण्ड झोंका उन्हें मुरझा नहीं सकेगा।