Sunday, May 3, 2015

Jeewan Darshan

जीवन दर्शन मानवीय सम्बन्धों की निरर्थकता पर अब मन में अजीब सा भय और विरक्ति सी आती जा रही है। जीवन में कब कौन सा पक्ष प्रधन हो जाये और (जिसे हम मूल मुख्य धारा समझते है) मूल मुख्य धारा से आदमी कट जाये या हट जाय कुछ पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है तब मन शायद तटस्थ हो चुका होता हैं। कर्तव्य की प्रधानता की दुहाई देकर हर प्रतिक्रिया और कार्यों की वैधता, की मान्यता दी जाने लगी हे जब तक कोई स्वयं उन परिस्थितियों से नही गुजरता तब तक उस पक्ष की भावनाओं को, विचारों की सत्यता उपयोगिता पर मन को टिका ही नहीं पाता टिकाये भी तो कैसे? हर व्यक्ति, हर पक्ष हर पहलू सही है अपने-अपने दृष्टि कोण से वैसे तो हर व्यक्ति अपने परिस्थितियों के हिसाब से सर्वोत्तम निर्णय लेता है निर्णय और प्राथमिकता व्यक्तिगत है अन्ततः ‘‘ऐकला चलो रे की स्थिति आ जाती है’’ चाहे जहा से, चाहे जिस रास्ते से चलो गन्तव्य एक है। वृद्धावस्था की प्राप्ति और फिर मृत्यु का वरण। और जन्म से मृत्यु तक का यह पथ? यह मार्ग? इसे ही हम जीवन की संज्ञा दे देते है। समय सीमा ही जीवन है सारी भाग दौड़, धन सम्पत्ति न्याय अन्याय धोखा धड़ी इसी अन्तिम लक्ष्य की आपाधापी है शनैः-शनैः भावनाये मुस्काने लगती है। कार्यक्षमता कम होने लगती है टूटने लगता है और उजागर होकर यर्थाथता, स्र्वाथ सब हावी हो जाता है। मुख्य धारा में अनेक धारायें या यूँ कहिये अनेक नन्ही-नन्ही धाराये (सोते) फूट पड़ते हे और जीवन की नैया अनेक विभिन्न प्रकार के थपेड़े खाती, भाग्य के पतवार के सहारे हवा के रूख पर झकोले खाती डोलती रहती है। सागर का जल चंचल हे लहरे उत्ताल है कभी शान्त कभी आन्धी और तूफान। कभी हल्की और सूकून देने वाली ठंडी हवा। कुनमुनाती धूप। मगर किसी का स्थायित्व नही शायद कर्तव्य भावना से प्रधान है हर कोई यही कहता है एक जन्म से, एक बूँद से एक चैतन्य से विस्तृत होते-होते अति विशाल होकर फैल जाता है जीवन और पचास वर्षाें के बाद संकुचन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है वह विशाल तैल बिन्दु, खण्ड से बिन्दु में और छोटे बिन्दु में अपने में सीमित हो जाता है व्यक्ति

No comments: