Sunday, September 29, 2013

Campus gossip


                                                                 कैम्पस-गासिप
     कितना नीरस है एक स्कूल टीचर का कार्यक्रम। बरसों लगाता एक ही सा बोरिंग पाठ्यक्रम, करेक्शन । सुबह नौ बजे से दोपहर तक की घण्टियों में बँटी जिन्दगी। वही क्लास, वही बच्चों के साथ दिन की शुरूआत ऐसम्बली, प्रार्थना,न्यूज रीडिंग, और अन्त में जनगणमन। बच्चों की अटेंडेन्स कुछ डाँटडपट, उपदेश, अनुशासन की बाते और भविष्य सुधारने के एक लेक्चर के बाद पाठों का पढ़ाना शुरू।
     मगर हाँ, शैक्षिक सत्र के शुरू होने के साथ साल में दो बार कुछ दिनों के लिये नई हलचल, नये बैच के स्टूडेन्ट्स, नई रूटीन, और फिर जनवरी फरवरी का महीना, साल का अन्त होते-होते कुछ फुरसत के पल।
     फरवरी का महीना विद्यालय में-दशम व द्वदश वर्ग के छात्रों का फेयरवल, टेस्ट, प्रीटेस्ट की कापियों का करेक्शन रिजल्ट फिर एक ब्रेक बस एक दो दिन का, इन दिनों स्टाफ रूम का रंग ही बदला हुआ दिखाई देता, कापियों का ढ़ेर के पीछे छिपे टिचर्स के चेहरे अब बाल सूर्य की तरह दमकते चंचल चुहुल करते, चहकते एक दूसरे को छोड़ते रिलैक्स्ड दिखाई पड़ता चिर प्रतिक्षित फुरसत के कुछ पल छिन मस्ती से भरे।
      हाँ तो अब बताओं। नये सेशन अप्रैल में क्या-क्या होने वाला है? इस फाइनल बैच में तो छुट्टी मिली। भज्जी क्या कहते हो?’’ क्या कहें? तुम्हें क्या यार! तुम तो मैनेजमेन्ट के तुरूप के पत्ते हो! ताश के जोकर! जहाँ चाहो जैसे चाहो फिट हो जाओगे बस-बस तुम्हारा फ्यूचर नेक्स्ट सेशन में पक्का, बिल्कुल पक्का, कौन सा सब्जेक्ट है जो तुम पढ़ा नहीं सकते? फिजिक्स, केमेस्ट्री, बायो, मैथ यहाँ तक कि इको और कामर्स पर भी तुम्हारी पूरी पकड़ है। जैक आॅफ आल ट्रेड का मुहावरा तुम्ही पर तो फिट बैठता है। मिस्टर बनर्जी ठहा कर हँस पड़े। मेज पर जोर से मुक्का है मारते हुये बोले-तो हो जाये पार्टी इसी बात पर।
     और पप्पे जी। आपका बायो डिपार्टमेन्ट! तो कुछ गरदिश में दीख रहा है। बाय द वे कितने स्टूडेन्ट थे अबकी 12वीं में चार-- बस--- केवल चार। कोई बात नहीं इस साल से नया कम्पलसरी सब्जेक्ट जो आ गया है एनवायरमेन्टल इसलिये पूरा का पूरा क्लास जनरल पढ़ना पड़ेगा और या तो फिर क्लास 1 से 12 बायो आपके नाम हो जायेगा। आपकी नौकरी पक्की! ऐशकरोजी ऐश, पप्पे जी! मिस्टर खान ने अपनी केमेस्ट्री खत्म की गहरा सावला रंग अनएजूमिंग सी पर्सनेलिटी छोटा कद, दूबला पतला शरीर। है लेकिन कोई न कोई गजब का आकर्षण इनमें साहित्य और विज्ञान का सुन्दर और संतुलित काम्बीनेशन! बतो मेें कुछ हास्य और व्यंग का पुट वाक् चातुर्य और बहुमुखी रूचियाँ। किसी सब्जेक्ट पर भी बाते कर लीजिए। फुलकान्फीडेन्स चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया‘‘।छोटे बड़े आबाल वृद्ध सबकी सद्भावना प्राप्त और स्नेह दुलार से भरपूर शिष्ट पापाजी के नाम से लोकप्रिय किसी को चाकलेट टाफी देकर प्रसन्न करते, तो किसी को दोहे शायरी या कविताओं की पंक्तियों से रिझाते देखे जा सकते है व्यंग और चुटकुले तो उनकी पाकेट में ही रहते। ये है हमारे मिस्टर वर्मा।
       छोटा कद गेहुआ रंग गोल चेहरा कमानीदार सुनहला चश्मा स्लिम-ट्रिम       कद काठी छोटी पतली मँूछें। खली पीरियड में अपने स्वयं के रोलर से सिगरेट बनाकर पीते या कभी-कभी पर्सनेलिटी को गंभीर और गरिमामय बनाने के प्रयास में पाइप से धुआ उड़ाते दार्शनिक और स्टूडियस’’ होने का आभास देते लोगों में बाबू मोशाय के नाम से लोकप्रिय मिस्टर भट्टी की अपनी खासियत है। लड़को के बीच के छोटे -मोटे झगड़े निपटाते सुलह कराते समझाते देखे जा सकते है।           
      प्रसिद्ध माडल जान अब्राहम से साम्यता रखने वाले मिस्टर झा का पोनर इम्प्रेशन पतली लम्बी छः फीट की काया गौरवर्ण पतली म ूछे सुबदर श्वेत चमचमाती दन्त पंक्ति पतला लम्बा चेहरा तीखी सुतवानाक, बोलने में कुशल मन्दहास्य कुछ लजाया शरमाया आकर्षक व्यक्त्वि, किसी भी कार्यक्रम के कुशल संचालक (आयंकर) कम्प्यूटर जगत के जाने माने ज्ञाता। कुलमिला कर तीखे व्यक्तित्व वाले मिस्टर झा सर, चाल इतनी तेज की कि बगल से तेज हवा का झोका सर्र से निकल गया हो।
 गोलमटोल गोलगप्पे से चेहरा, धनी  मूँछें बालों का एक गुच्छा अलसाया सा चैड़ा उन्नत ललाट पर झूलता गुरूगंभीर आवाज, धीरे-धीरे सोच-सोच कर बोलने पर विशिष्ट लहजा, सधे कदमों से चलना उठना, बैठना और काम न होने पर हाथ पीछेे कमर पर बाँधे स्टाफ रूम मे ही चहलकदमी करते रहना मैथ्स के मिस्टर नागर के व्यक्तित्व का एक हिस्सा है। उई माँ तो पागल हो जाऊँगी के परेशान स्वर स्टाफ रूम में अक्सर ही गँूजते रहते। क्या लिखा है लगता है हिन्दी का लिटरेरी ट्रान्सलेशन आई विल ड्रिंक हिज ब्लड मै उसका खून पी जाऊँगा। शेक्सपीयर तो अपनी यह दुरदशा देख कर शायद किसी नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेंगे। ‘‘ही वाज ब्वाइलिंग विथ ऐंगल’’वह गुस्से में उबल रहा था। ‘‘आई वान्ट टू टच योर लेग’’ ‘‘व्हाट अ हरिबुल लाइन?’’ मेरी तरफ देख कर हाथ पैर पटकती वह चिल्लाने लगती। मै स्टाफ रूम की खिड़की से कूद जाऊँगी क्या? किस बुरी घड़ी में मैने इंगलिश में एम0 ए0 कर ट्रेनिंग ली की मुझे ऐसे बच्चे पढ़ाने पड़ रहे है। कितनी भी मेहनत करा, समझाते-समझातेे गला सूख जाता है मगर फिर वही ढ़ाक के तीन पात। उनकी आँखों से आँसू टपकने वाले होते है। बेचारी मिस खन्ना।
        कभी गम्भीर, कभी मन्द-मन्द मुस्कराते, और अपनी ही कही बात पर जोर से ठहाका लगाते। चाहे और किसी को हँसी आये या नहीं मगर खुद ही हँस कर दूसरो का ट्यूब लाइट बताने का लहजा थोड़ी देर के लिये सबको शरमिन्दा कर देता। बड़ी कक्षा के छात्राओं से बेहद दोस्ताना व्यवहार और लोकप्रियता-सस्ती चिप्पड़ लोकप्रियता के प्रतीक मिस्टर दूबे जिसे सब मिस्टर डूबे’’ के नाम से सम्बोधित करते। कक्षा में पढ़ाते-पढ़ाते कोई न कोई काण्ड कर ही देते और आग बबूला होकर क्लास से बाहर निकल आते। छोटे-मोटे गोरे इतने कि गुस्से में लाल आग का गोला ही लगते। स्टाफरूम में कापी किताब पटक कर नये जमाने के छात्रों के लिये अपशब्द कहते झनकते पटकते और फिर शान्त हो जाते। स्तब्ध शान्त अन्य शिक्षक अनकी ओर हतप्रभ देखते ही रह जाते मौन बिल्कुल मौन।
        दुबली-पतली नाजुकता की परिभाषा रंग बिरंगी गुडि़या सी सजधज, गले की आवाासज को दबाकर बनावटी-सी शी्रल्ड आवाज, प्रत्येक को नाम से सम्बोधित कर गुड माॅर्निंग मिस्टर शर्मा या फिर कोई और नाम। पर होता है सबका व्यक्तिगत सम्बोधन प्रशांसा करने लायक कलात्मक शौक विशेषकर स्वयं को प्रस्तुतिकरण। भव्य सुन्दर गौरवर्ण किन्तु भावहीन चेहरा। सब कुछ यान्त्रिक संवेदनाशून्य व्यवहार। सबके प्रति कोई न कोई व्यंग भरा कमेन्ट। कभी-कभी स्टाफ में प्रवेश कर वातावरण को गंभीर बना जाती मिस रूबी। कोई व्यक्तित्व इतना बोझिल भी हो  सकता है यह सोचने को विवश करता है।
        अनुशासन की छड़ी तेजतर्रार, स्पष्टवादी छोटी-सी फिरकनी की तरह इधर-उधर दौड़ती, फुर्ती इतनी की फ्रन्टियर मेल का खिताब पा चुकी गंभीर तनाव ग्रस्त चेहरा। मुस्कान तो कभी भूले भटके ही इधर का रास्ता नापती है और खुदा न खास्ता भटक गई तो अन्दर का हृदस मोम की तरह कोमल हेल्पफुल । फिल्मों के मस्ती भरे रोमान्टिक गीतों को गुनगुनाता चहकता चेहरा देखा जा सकता है। किन्तु ये पल दुर्लभ ही होते है। मिसेज महाजन का जबाब नही।
          लम्बा चैड़ा आकार, छः फीटी काया, तीखी धूप सा गोरारंग चैड़ा माथा  लम्बी कमर तक झूलती केशराशि कुल मिला कर झाँसी की रानी खेल कूद में राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली स्पोर्ट्स वुमेन का आपना ही स्थान है स्टाफ रूम में जिसके प्रवेश करते लगता है भूकम्प  एक झटका और डोलने लगती है धरती। कुर्सी पर बैठे लोग उछलपड़ते है जगहें बदल जाती है हलच लमच जाती है। धराप्रवाह व्यंग, धक्का मुक्की छेड़ छाड़। खुशनुमा माहौल। सभी क्या लेडिज क्या जेन्ट्स सब मधुर रस में सराबोर हो जाते। मानों होली के रंगों की पिचकारी चलरही हो रंग अबीर गुलाल आस-पास छलक बरस रहे है। टिफिन को लेकर छीना झपटी, धूम-धूम कर हा किसी के टिफिन को सूघते खाते। बस एक ही लाइन याद आती है’’ होली खेले मिस राधा- होली खेले मिस राधा (स्टाफ रूम)
   आनन्द मन की अनुभूति है वह बाहर से नही आती जब अन्दर बाहर का वातावरण सहज हो तो खुशियाँ छलक पड़ती हैं। संतोष और अपनेपन का अहसास ही इसका मूल कारण होता है। काम करने की जगह हो अपनेपन के साथ जोड़ कर कार्य की गुणवत्ता और करने के जोश को बदला जा सकता है। और इन्ही दिनों की मस्ती, पूरे साल रह-रह कर मन को चहका कर प्रेरित करती रहती है। काम में डूबा हर शिक्षक सोच-सोचकर  मन ही मन मुस्करा उठता है और जुट जाता है कापी करेक्शन तथा नोट की तैयारी में। नये पाठों के लिये। कमर कस लेता है कि अबकी कुछ नया होकर रहेगा। आकाश में एक नया तारा चमकेगा। स्कूल हमेशा की तरह कोई नया कीर्तिमान स्थपित करेगा।                 

Sunday, September 22, 2013

Nari shoshan se mukti kaise


                                                          नारी शोषण से मुक्ति कैसे
    नारी शोषण जहाँ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है वहाँ न ही इस पहलू पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है और न ही निराकरण का कोई ठोस कदम उठाया जा रहा है। केवल लेशमात्र के लिये पटना, बम्बई दिल्ली आदि बड़े शहरों में दिखाने जा रहे है नारे लगाये जा रहे है प्रदर्शन किये जा रहे है। पर क्या एक प्रतिशत भी सफलता प्राप्त हो सकी है। जितना विरोध प्रदर्शन में नारो की आवाज बुलंद हो रही है उतना ही जाने-अनजाने में शोषण का रूप गर्हित और विकृत हो बढ़ता जा रहा है।
      शायद लोगो को शोषण का सही अर्थ ही स्पष्ट नहीं है और इसी धूमिलता के कारण उससे मुक्त होने में समर्थ नहीं हो पा रही है। क्योंकि जब तक कारण नहीं जान लेते निराकणरण का प्रश्न ही नहीं उठता जब तक हम शोषण के विभिन्न रूपों और मूल कारणों को नही समझ लेते मुक्ति के हमारे सारे प्रयास असफल रहेंगे आइये हम देखे कि मुख्यतः शोषण हमें समाज के किन-किन क्षेत्रों में दृष्टिगत होता है। वे है सामाजिक पारिवारिक एवं आर्थिक क्षेत्र।
       प्रतिदिन किसी न समाचार पत्र में बलात्कार सम्बन्धी दुर्घटना का विवरण देखने को मिलता है यदि 100 में से कोई एक व्यक्ति सामान्य स्तर से थोड़ा ऊँचा उठ कर उस लड़की से विवाह कर समाज में सम्मानित सामान्य जीवन बिताना चाहता है तो समाज उसकी आलोचना कर जीना दूभर कर देता है चूँकि उससे लड़की का कोई दोष नहीं अतः महिलाओं को उसकी आलोचना कर उसे गिरने की चेष्टा न कर उदार हृदय होकर उसे वही सम्मान दे जो अपनी बहू बेटी को देती है तो आदर्श की प्रेरणा से उठा हुआ व्यक्ति भी सहज हो सकेगा। समाज की महिलाओं को ही उसे स्वीकार करना होगा सहज बनाना होगा उँगलियाँ उठाने के बजाय उसकी सहायता करनी होगी।
      बहुत आश्चर्य होगा आपको यह जानकर कुछ क्षणों के लिये विश्वास नहीं होगा ऐसा लगेगा किसी न गरम सीसा पिघला कर कानों में डाल दिया जब आप यह सुनेगी कि अधिकतर महिलायें ही महिलाओं का शोषण करती है सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर 75 प्रतिशत नारी ही नारी की शोषक है बाकी 25 प्रतिशत ही पुरूष वर्ग। जरा मन को टटोल कर देखें निष्पक्ष होकर सोचे क्या बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक स्त्रियाँ ही बालिकाओं के मन में तुलना कर उन्हें हीन और कुंठित नही बनाती।
        दहेज प्रथा के द्वारा महिलाओं का शोषण भी कम भयंकारी और आतंककारी नही है। जितनी भी दहेज से सम्बन्धित दुर्घटनाये, आत्महत्यायें घटी है। क्या उन मौंतो में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सास और ननन्दों का हाथ नहीं। क्या उन परिवारों की महिलाओं ने अपने आचार व्यवहार से उस घर में आने वाली वधू को कुयें में छलांग लगा कर, मिट्टी का तेल छिड़कर आग लगाने, गले में फाँसी का फंदा डाल कर मर जाने को विवश नहीं किया? नई नवेली वधू को सामाजिक प्रतिबन्धों की दुहाई लगाकर घुट-घुट कर मरने के लिये बाध्य करने वाला कौन है? महिला या पुरूष? अपना सबकुछ छोड़कर नये घर में प्रेमस्नेह की आशा लगा कर आने वाली लड़की के आचार व्यवहार प्रतिदिन की दिनचर्या के लेखे-जोखे को नमक मिर्च लगाकर बढ़ा चढ़ाकर आॅफिस से थके मांदे पति को अवगत कराने वाला कौन है? स्त्री या पुरूष? अपने ही बेटे और बेटी के लालन पोषण में अन्तर रखने वाला कौन है माता या पिता? पिता तो एक बार दोनों को बराबर समझ लेता है कुंठा से ग्रसित नहीं होता पर स्त्री माँ। अन्तर की गहरी दीवार तो वही खड़ी करती है।तो महिलाये यदि शोषण से मुक्त होना चाहती है तो मेरा यही अनुरोध है कि हम महिलायें उदार हृदय बने। संकीर्ण आलोचनात्मक वृत्ति को छोड़कर एक दूसरे को आगे बढ़ाने, सुखी देखने की कोशिश करें तभी शोषण से मुक्त हो सकती है। अपनी हीनता और संकीर्णता की मनोवृत्ति के बेडि़यों को काटना होगा।
      आर्थिक कमी के कारण भी बहत सी स्त्रियों का कार्य क्षेत्र में नौकरी आदिमे शोषण होता है। कम पैसा देकर उसकी आवश्यकता और गरीबी का फायदा उठाकर ए एम्प्लोयर एक्सप्लोयट (शोषण) करते है। आज कल फैशनपरस्ती दिखावें, बाहरी पोम्प और शो में रखी जाने वाली लड़कियाँ जब बड़ी होती हे तो सेक्रेट्री रिसेप्निष्ट स्टेनो आदि आकर्षक बेतनो वाले पदो के प्रलोभनो से आकर्षित  होकर ऊँचा नीचा समझे बिना ऐसे जाल में फँस जाती है कि पुरूषो की लोलुपदृष्टि से बच पाना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है और एक बार दलदल में फँसी जितना वह निकलने की कोशिश करती है धँसती ही जाती है।
       अतः अच्छे बुरे का ज्ञान, अपना भला बुरा सोच सकने की शक्ति, स्पष्ट वादिता है आदि लड़कियों में बचपन से ही अंकुरित करना होगा। भले ही आपा उसे एक बार परिपक्वता कह दे या ऐसा लगे कि यह स सब जान समझकर बूढ़ी काकी या प्री-मेच्योर बनायी जा रही है तो यह समय की माँग है तभी वह लड़की अपनी जागरूकता, स्पष्ट वादिता, सही सूझ-बूझ के कारण बड़ी होने पर किसी के अन्धशोषण का प्रतिकार कर अपनी रक्षा स्वयं कर सकने में समर्थ होगी।
       महिला वर्ष, वूमेन्स लिब, नारी स्वतन्त्रय आदि के आन्दोलनों से अधिकारों के प्रति सचेत, आपादमस्तक कान बनी महिला साधारण से साधारण घटना को लेकर, उसे शोषण का ही एक रूप मान कर विद्रोह करने के लिये तत्पर हो जाती है वास्तविकता तो यह हे कि कई बार शोषण न होते हुए भी हम उसको शोषण मान बैठते है जो सही नही है। आवश्यकता है खुले विचारों से सोचने समझने की।

 

soch


                                                                       सोच   
      पिता को नाराज कर रोहन अपने बच्चों और के साथ इस नये पाश  इलाके के बंगले में रहने चला आया सारे प्यार आदर त्याद के बन्धन तोड़ कर। पाँच वर्ष की आयु में माँ के गुजर जाने के बाद पापा का बस एक ही उद्देश्य था कि उसकी माँ के सपने को पूरा कर रोहन को बड़ा डाक्टर बनाये। उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। हर क्षण पल माँ को भूले नही और रोहन को भी याद दिलाते रहे कि उसे डाक्टर ही बनना हे कोई कोर कसर नही छोड़ी। वही पुराना घर, गलियाँ आस-पास के वातावरण से बचाते छिपाते वे अपने लक्ष्य में सफल हुये। बड़े घर में ब्याह कर दुल्हन रोहन के लिे लाये बच्चे हुये बगिया खिल गई। और एक दिन रोहन ने कहा वह ‘‘रूपा’’ उसकी बीवी चाहती है कि घर बदल कर नये पाश कालोनी में रहना चाहिये। बच्चो की संगत सही नही है। गन्दी पुरानी गली, छोटे विचारों वालो की संगति!
       अचानक ही क्रोधित पिता बोले क्या? बाप दादा का घर छोड़कर दूसरे घर में तुम यही पढ़कर इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचे हो यही अब खराब और गन्दी जगह लगने लगी। नही यह नही हो सकता। तुम बीबी के गुलाम हो गये हो क्या। होश में बात करो। समझाने की बहुत कोशिश की रोहन ने। मगर पिता की एक ही रट थी। तुम्हारी माँ के सपने को मैने यही रह कर कितनी तकलीफे सह कर पूरा किया है और तुम------
    रोहन के मुँह से निकला पापा मेरी माँ भी तो आपकी पत्नी ही थी। आपने अपनी पत्नी के सपने को पूरा करने के लिये क्या नहीं सहा? मेरी पत्नी तो सिर्फ एक मकान बदलने की बात कर रही है क्योंकि बच्चो के लिये यहाँ का माहौल अब ठीक नहीं है।
      बड़े जब कोई काम स्वयं कर उसे सही सिद्ध करते है तो छोटों के वही करने पर उन्हे एतराज क्यों? यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया है। जो रिश्ता बेटे की माँ के साथ पिता का था वही बेटे का अपनी बच्चों की माँ के साथ ही तो है।                                                  

Sunday, September 15, 2013

Mn ka thahrav


                                                                           मन का ठहराव
धीरे-धीरे शाम घिर आई है। मच्छरों की भनभनाहट से बचने के लिये छः बजते-बजते सभी दरवाजे खिड़कियाँ बन्द कर देती हूँ। सोनू और मोनू अभी तक खेल कर वापस नहीं लौटे है जैसे-जैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है मेरे मन की घबराहट भी बढ़ रही है। आजकल दोनों ही लड़के अनकहे हो गये है। कुछ भी कहो सुनते ही नहीं। जिद क्रोध और विद्रोह जैसे नाक पर रखा है। कमरे की बत्ती जलाकर मै बेचैनी से उनका इन्तजार कर रही हूँ किसी काम में मन भी तो नहीं लग रहा हैं रह-रह कर पिछली बाते मेरे दिमाग में घूम रही है
       रवि के आफिस से लौटने के पहले से ही मै झुझलाई बैठी रहती। बीमार बच्चे की रें रें, सोनू मोनू का स्कूल में अच्छा न करना, बिजली, पानी की झंझट अलग। सबका मुझे एक ही समाधान दिखाई  पड़ता। रवि पर सारा दोष मढ़ कर चीख चिल्ला कर अपन गुस्सा मै उतार देती और सोचती मैने अपना कत्र्तव्य निभा दिया। टी0 वी0 पर महिला स्वतंत्रता के चर्चे, स्त्रियों के अधिकार माँगों के लिये लड़ना और अपने को पति से तुलना कर कम समझना ही मेरा काम था। रवि दिन भर आफिस में खटते हैं तो मैं कौन सी मखमल की सेज पर पड़ी रहती हूँ । एक पाँव पर खड़ी होकर घर संभालती हूँ । रवि का क्या जरा सी तबियत ढीली हुई तो दो दिन की छुट्टी  लेकर बैठ जाते है और चाय, काफी, सूप की हुकुमबाजी अलग। सारा घर उठा कर अपनी तीमारदारी में लगा लेते और मैं-- कहीं नौकरी की होती तो अपना कैरियर होता कुछ पैसे मेरे अपने नाम के होते और मेरा भी वही रोब होता जो रवि का। थोड़ा ढ़ाढ़स तो रहता। बच्चे केवल मेरे ही तो नहीं। रवि की भी तो उनके प्रति जिम्मेदारी है। और रवि के साथ जो पल स्वर्ग के समान मधुर और सुखदायी लगने चाहिए थे वे लड़कट कर मुँह फुलाकर बीत जाते मै क्या चाहती थी समझ ही न पाती। रवि को एक आदर्श पिता की तरह होना चाहिए। उसका घर में दबदबा होना चाहिए पिता का रोल सबसे महत्वपूर्ण होता है और इसी बहस में एक दूसरे से असन्तुष्अ कितने वर्ष खिसकते चले गये बच्चे कब बचपन से किशोरावस्था में जा पहुंचे पता ही न चला। आपस की तू तू मैं मैं की बहस में यह सुध ही न रही कि अपने दायित्वों की पूरी तरह न निभा सकने के कारण कब बच्चों के अनुशासन की डोर ढ़ीली पड़ गई। बच्चे घर को छोड़ कर बाहर दोस्त  रेडियों, चैक चैराहे पर खड़े आवारगी में मस्त रहने लगे। और रवि ने भी रोज-रोज की झिक-झिक से परेशान होकर बाहर की पोस्टिंग लेती मुझे तो समझा दिया कि ‘‘यहाँ पर बच्चों के पढ़ने की अच्छी सुविधा है कैरियर का सवाल है एक ही जगह रहना ठीक होगा कोई असुविधा नहीं होगी।’’ राजी! समय बीतते क्या देर लगती है?
     रवि  ने तो एक सुन् दर सुविधा पूर्ण घर बनवा कर मेरे लिये जीते जी एक कब्र बनवा दी, हाँ मुझे तब वह अपनी कब्र ही लगा था। रवि कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे बाहर की चवेजपदह जो थी। कुछ उड़े उड़े से, बहके-बहके से खूब खुश। घर में गाय  का खूँटा एक जगह  बाँध दिया और उसकी रस्सी के आस-पास तक ही बच्चों का दायरा कैरियर की सीढियाँ चलते कहाँ से कहाँ पहुँच गये रवि काम-- काम-- काम-- उत्तदायित्व --और बड़े उत्तरदायित्व घर पत्नी, बच्चे कब सब नगण्य हो उठे। महीने दो महीने पर घर आने का सिलसिला जीवन का अंग बन गया। मैं रवि से दूर बहुत दूर होती चली गई। उनका घर आना मुझे मेहमान के घर आने सा लगता अपनापन था भी कहाँ  जो था वह भी मै अपनी ही तरह से जीवन जीने लगी अपना पन खत्म हो चला। मै अपने अहं में डूबी क्रोध बराबरी के हिस्का हिस्की में रवि के प्यार, उनके धैर्य, तथा कसक को तब समझ ही न पायी पाँच वर्ष का लम्बा अन्तराल ----- कैसे दिन बीतते चले गये। अब मेरी आँखे खुली विचारों में एक नया मोढ़ आया जीवन में जोर की ठोकर सोनू, मोनू का अजीब-सा व्यवहार खोये-खोये से रहना, अपने को बहुत असुरक्षित सा महसूस करना उनके मित्रो का परिवेश कालेज की गतिविधियाँ उन सब ने मुझे बाह्य कर दिया अपने बीते हुये उन पलों को फिर से बहुत करीब से देखने के लिये। हाँ रवि बहुत हिम्मत कर तुम्हे पत्र लिख रही हूँ । मुझे समझने की कोशिश करना
     रवि मेरे,
            ऐसा लगता जब तुम यहाँ थे तुम्हारी एक-एक अव्यक्त उपस्थिति हमेशा व्याप्त रहती थी भले ही तुम बच्चों के साथ पढ़ाने के लिये न बैठते, पहाड़े न रटवाते, साइन्स और गणित के प्रॉब्लम सोल्ब न करते मगर तुम्हारे घर सोनू मोनू के रहने मात्र से एक अनुशासन का भाव, प्रभाव रहता। उन्हें लगता कि शाम को पापा आने वाले है। उन्हें उदण्डता अच्छी न लगेगी। भले ही तुमने उन्हे कभी डाँटा न हो फटकारा न हो लेकिन आदर मिश्रित भय रहता था उनकी आँखों में तुम्हारे लिये। जिसे मैं अब तुम्हारे बाहर जाने के बाद महसूस करती हूँ जब तक तुम यहाँ थे मैने कभी नहीं समझा
            अब कब सुबह होती है कैसे दिन बीतता है कुछ पता ही नहीं चलता। तुम्हारे घर पर न रहने से लगता है कोई काम ही नहीं है न खाना बनाने की रूचि न घर को सजाने सवारने का उत्साह न स्वयं ही सजे धजे रहने की ललक। सब कुछ अचानक मर सा गया है बाहरी दुनियाँ, आस-पास किसी का कुछ अता पता नहीं कहाँ आओ कहाँ जाओं जैसे जीवन ही ठहर गया हो ऐसा लगता हे मेरे मन का आत्मविश्वास ही खत्म हो गया है। शायद मेरे मन के दीपक की बाती तुम ही थे मेरे सूरज तुम्ही थे जिसकी रोशनी पाकर मै चमकती चन्दा की तरह। चाँद भी शायद नहीं जानता कि सूरज की रोशनी पाकर ही वह शान्त स्निग्ध मधुर चाँदनी बिखेरता है मैं समझ ही न पाई कि आज के युग में समानता का दरजा पाकर भी आर्थि रूप् से स्वतन्त्र हो कर भी सुखसुविधाओ से घिर कर शायद भी स्त्री के मन का कोई कोना खाली ही रह जाता है जीवन साथी के बिना अकेला हो जाता है। शायद मैं बहक रही थी। अब मै समझ गई हूँ दोनों का सहयोग ही घर को चला सकता है तलाश रहती है घर के अन्दर का दायरा मेरा अपना है अनुशासन प्यार सहयोग ये गुण  घर में माँ से परिवार को मिलते है और साहस, आत्मविश्वास संयम सहनशक्ति अनेक विषम परिस्थितियों में रह सकने की कठोर क्षमता बच्चा अपने पिता से सीखता है पिता का रहना मात्र ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठ परिश्रम जीवन के आदर्श कही न कही बच्चों के कोमल मन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है।
नौकरी करने की ललक घर को बन्धन मानकर बाहर सुख संतोष ढ़ूढ़ने की व्याकुलता मानकर अर्थहीन सा लगता है पढ़ लिख कर नौकरी करना ही जीवन का उद्देश्य नही, विचारों का उन्नयन और आवश्यकता पड़ने पर सहारा बन सकना’’ तुम्हारे ये विचार विल्कुल ठीक थे। मन का ठहराव, धैर्य जीवन के कुछ निश्चित आदर्श बहुत जरूरी है। तुम लौट आओ रवि, मैं पल-पल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। 
                                                                                                                             तुम्हारी 
                                                                                                                                  रेनू                                                                                       

Sunday, September 8, 2013

DEKHEN , SOCHEN AUR SAMJHEN

 
                                           देखें, सोचें और समझें   
     बढ़ती हुई आबादी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा की समस्या भी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। कम्पटीशन की युग है हर क्षेत्र में दौड़ है ढ़ेरो स्कूल खुल गये ढेरों शिक्षक एवं शिक्षकायांे मगर माता-पिता की चिन्ता का कोई ओर छोर नहीं। प्रत्येक परिवार की जो होड़ कोशिश रहती है कि वह अपने बच्चे को एक अच्छा से अच्छा नागरिक और सफल सुखी जीवन व्यतीत करने योग्य समर्थ बना दें। और यही उनके जीवन का उद्देश्य होता है। अगर बच्चे बन गये तो मानो उनका अपना जीवन सफल हो गया नही तो सब बेकार नीरस फीका।
      आधुनिक युग का व्यसत जीवन, मानसिक दबाव, आर्थिक समस्यायें महँगाई, छोटे होते परिवार ये सब विवश कर देते हैं कि माता-पिता दोनों ही नौकरी करें। ऐसे जीवन की भाग दौड़ में बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग कब और कहाँ उपेक्षित हो जाता है वे समझ ही नहीं पाते। या कभी-कभी परिवार का असंतुलित वातावरण, कुण्ठायें ही बच्चों के विकास को अवरूद्ध करने लगती हैं।
    बच्चो के सुन्दर व्यक्त्वि की नींव गहरी और मजबूत हो सद्गुणों का उनमें विकास हो इसकी चिन्ता माता-पिता को सबसे अधिक होती है। जैसे-जैसे परिस्थितियाँ बदल रही हैं मान्यतायें भी बदल रही हैं। आज के व्यस्त माता-पिता सोचते है कि बच्चों को अच्छे महँगे स्कूल में डाल कर उनमें अच्छे गुणों के बीज बो सकते है जो समय पाकर अच्छी तरह हो पुष्पित पल्लवित हो जायेगें।
     और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये उन्हे अच्छे विद्यालय शिक्षण, अनुशासन, सर्वागीण विकास करने वाले स्कूलों की तलाश रहती है। और जिस विद्यालय में इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की संभावना दीख पड़ती है वह भरसक प्रयास कर बच्चों का भविष्य पूर्ण विश्वास के साथ सौंप देते है और इस तरह से सारी भागदौड़, मानसिक तनाव से मुक्त हो जाते है।
    हम सभी जानते है, और आप हमसे सहमत भी होंगें कि विद्यालय और अभिभावक दोनों का लक्ष्य एक ही है- बच्चों का सही उचित विकास और सही मार्ग दर्शन। यदि दोनों का उद्देश्य एक हो और आपसी सहयोग तथा सही तालमेल हो तो परिणाम निश्चित रूप से अच्छे ही होगें। पदचनज अगर अच्छा है तो वनजचनज अच्छा ही होगा। यह सही है किन्तु जरूरी नहीं क्योंकि बच्चों के व्यक्त्वि के निर्माण और विकास में और भी बहुत सी चीजें का प्रभाव उस पर पड़ता है।
     आपके थोड़े से सहयोग से हम अपने लक्ष्य को पा सकते है।
    जैसा कि सब लोग अच्छी तरह जानते है कि टेलिविजन मीडिया बहुत अधिक लोगों को प्रभावित कर रहा है जो संस्कृति विकसित हो रही है वह बहुत प्रशंसनीय नही है और यह भविष्य के लिये शुभ संकेत नही है यहएक अपशिक्षा है अपसंस्कृति है। गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है। सावधान और सतर्क होने की आवश्यकता है। अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये तैयार रहे।
    10 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु का अन्तराल बहुत ही संवेदनशील और महत्वपूर्ण है यानी हम कह सकते है कि कक्षा-5 से कक्षा-10 तक का समय संगति की आवश्यकता होती है क्योंकि यह समय बच्चों में मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक बदलाव का उत्सुकता कभी-कभी उन्हे भटकाव की ओर ले जा सकता है छोटे होते एकल परिवार माता-पिता का अधिक व्यस्त होना और बच्चों में उनके जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकता है और अन्य चीजो में रूचि  लेने लगता है और अपनी एक नई दुनियाँ बन जाती है, खेलों की, मित्रों की, पढ़ाई से दूर। पढ़ाई के तो विद्यालय में कुछ ही घण्टे होते है और घर में बाकी समय आस-पास का, घर का पास पड़ोस का, खेल कूद का।
     आइये कुछ रचनात्मक सुझावों पर विचार करे ताकि उस पर अमल कर काफी हद तक अपने प्रयासों में सफल हो सकें।
(1) शैक्षिक वातावरण घर पर भी बनायें।
(2) समय पर स्कूल पहुँचने के लिये प्रोत्साहित करे।
(3)े अकारण ही विद्यालय से छुट्टी लेने की आदत न डलवायें बच्चो की गतिविधियों से अवगत रहे उनकी दोस्ती किन और कैसे लोगों से है इसकी जानकारी रखे। उनके दोस्तो के परिवार से भी अच्छा सम्बन्ध रखें। नजर रखे कि खाली समय में उनके क्या कार्यकलाप है।
(4) अपशब्दों का प्रयोग न करें। घर में शान्ति बनायें रखें। परिवार में आपस की बातचीत और व्यवहार में पद की गरिमा का पूर्ण ध्यान रखें। आपस की डाँट डपट लड़ाई झगड़े के माहौल से दूर रहें।                 
(5) जो बाते विद्यालय में बताई जा रही है वैसा ही नैतिक व्यवहार अनुशासन का पालन घर पर भी करें ताकि घर और विद्यालय का नैतिक वातावरण एक सा रहंे।  
(6) बच्चो के साथ दोस्ताना व्यवहार रखें ताकि वे अपनी बाते खुल कर बता सकें छिपाये न।  
(7) आवश्यकता से अधिक पैसा देकर उनकी आदतें न बिगाड़े यह आपके प्यार और देखभाल का प्रतीक है। मगर ये उसे गलत रास्ते पर ले जा सकते है। सामान लाने के लिये पैसा दे तो उसका हिसाब अवश्य लें।
(8) रात का भोजन माता-पिता बच्चों के साथ करें इससे आपसी प्यार और लगाव बढ़ता है।
    वर्तमान में टेलीविजन मीडिया लोगों को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है और गलत शिक्षा का प्रबल साधन हो गया है वह अपना साकारात्मक उद्देश्य से भटकाकर रचार्थपूर्ति और धन कमाने का माध्यम बनता जा रहा हे फलतः जो संस्कृति विकसित हो रही है वह भविष्य के लिये शुभ संकेत नहीं है यह एक अपशिक्षा है, अपसंस्कृति है सावधान और सर्तक होने की आवश्यकता हे अतः बच्चों के साथ-साथ स्वयं पर भी नियन्त्रण और अनुशासन रख कर त्याग करने के लिये अभिभावको को तैयार रहना है।
     छोटे-छोटे एकल परिवार, माता-पिता का अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अधिक व्यस्त रहना, बच्चों के जीवन में रूचि न लेने के कारण बच्चों को अधिक समय तक अकेले रहने के लिये विवश करता है मन भटकाता है अन्य चीजो में रूचि लेने  लगता है। टेलीविजन की तरह पत्र पत्रिकायें विभिन्न चैनल एक नई दुनियाँ ही उनके सामने खोल देते है। उनके अपने घर में यह सब नहीं है तो बाहर उपलब्ध है। मनभटकता है और एक नई दुनियाँ बन जाती है उनकी अपनी। खेलों की मित्रों की, नई-नई जिज्ञासाओं को पूरा करने की। पढ़ाई से दूर, सही मनोरंजन से हट कर जिसका पता ही अभिभावकों को समय से नहीं लगता।
         किसी भी वस्तु के दो पहलू होते ही हे इससे भयभीत व घबराने के स्थान पर समस्या के सकारात्मक समाधानों की आवश्यकता है। यदि कोई चाहे तो उसकी उपयोगिता को ध्यान में रख कर लाभ उठा सकते है और यदि स्वयं पर नियंत्रण और संयम नहीं विवेक नही तो भविष्य को नष्ट भी कर सकता है। कुछ नया जानने करने में वे कदम उठा ही लेते है जो--------- जब माता-पिता या बच्चों को सब कुछ समझ में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है अभिभावक सब परेशानियों को समझ रहे है। जान रहे है मगर आकर्षण इतना जबरदस्त है कि सुनामी की लहरों की तरह भयंकर ऊँचाईयों में उठ कर घर की सुख शान्ति मन का चैन सब निगल ही लेती है सब कुछ दाँव पर लगा है नित नई घटनायें नयी सूचनायें तरह-तरह के दिल दहला देने वाली वारदातें घट रही है जब तक एक से निपटने का उपाय कोई सोचता हे कोई दूसरी नई विधि खोज ली जाती हैं बस अभी के लिए इतना ही।  
                        
  
                  

Sunday, September 1, 2013

Jeevan Kya Hai


                                                              जीवन क्या है?
  जीवन क्या है? समय सरिता का बहता हुआ प्रवाह नित्य, नूतन नवीन पर समय की झुर्रिया पड़ जाती है और वह शनैः-शनैः शिथिल शुष्क होकर मृतप्रय हो जाता है। ठूँठ नीरस, उम्र की परतो से कुरकुर खोखले खोडरो से मुक्त वृक्ष की तरह मानव जीवन भी वृद्ध हो जाता है। लेकिन उसमें भी आशा का अंकुर कहीं छिपा रहता है। एक मिटा तो दूसरा बीज अंकुरित हुआ उसी के बगल से उसी से सिंचित दूसरे नये जीवन की प्रगति का ही नाम जीवन है। तिल-तिल गल कर बूँद-बूँद गिर कर प्रकाश देती है मोम की यह जीवन वर्तिका, जलती जाती है। मिटती जाती है।
    हर वर्ष आता है और अपने स्मृति चिन्ह छोड़ कर चला जाता है। जीवन की नश्वरता से निराश न हो। असफलता के अंधेरे से घबरा कर आँखें न बन्द कर ले। नश्वरता में भी पुर्नजीवन है। अंकुरण प्रस्फुटित हो रहे है। मिटकर गलकर ही तो एक नये पौधे वृक्ष का निर्माण होता है। बीतते समय के पीछे घने घटाघोप बादलो के बीच मचलती बिजली आशा की किरण पर भरोसा रखें। कब कौन प्राण दायिनी बन जाये कहाँ नही जा सकता।
    वाह! रे निष्ठुर अभिमानी समय दर्प से युक्त, लेकिन कितने निरीह! सब कुछ नष्ट, अस्त व्यस्त, समाप्त करने का झूठा दम्म दिखा कर परास्त करने के नशे में चूर ठहर जा इस वृक्ष को दिखा कर क्या समझना चाहता है? कि रग-रग पर तूने अपने विकट कायल हाथो से इसे ठूठ, नीरस शुष्क और मृतप्राय बना दिया है और मानव जीवन भी तेरे हाथों अन्त में निरीह असहाय और दयनीय हो जाता है यही न!कितना भोला है तू! अरे पागल! एक मिटा तो दूसरा अंकुरित हुआ? तेरे अहंकार की खिल्ली उड़ाता हुआ उसी वृक्ष के रक्त से सिंचित नई कोपलो के हाथ फैलाये तुझे विदा देता हुआ आशा का कोमल अंकुर वृक्ष की जड़ो से सटा धरती को मिट्टी को जकड़ा कोमल अंकुर उसी की अस्थियों रक्त मज्जा से सिंचित बीज का अंकुरण प्रगति का तुम पर विजय का प्रतीक है।
    समय से भयभीत काल से त्रस्त मेरे मन। हिम्मत न हार। असफलता के अंधेरे से घबरा कर अपनी आखे न बन्द कर लें।
    मन मेरे आँसू न बहा। संघर्षों में ही बड़े-बड़े संकल्प जन्म लेते है और असफलता के चट्टानो को चूर-चूर कर देते है।
    उद्यमेन ही सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। परिश्रम से का सिद्ध होते है। मनोरथ से नही।