Sunday, December 30, 2012

main roii

  मैं रोई .
मैं रोई ,फूट -फूट कर रोई .
क्यूँकी ,

आज वह  मर  गई .
तेरह दिनों तक ज़िंदा लाश थी
.अहसास था ,स्पनंदन था
.ज़िंदगी से हार गई
..हाँ ,आज वह मर गई
 वह कौन  थी तुम्हारी ?
न देखा .न जान न पहचान ,
न बेटी ,न माँ न बहन .हाँ
वह सामाजिक रिश्ते में न सही ,
मगर मेरे मन का हिस्सा थी
,तन का टुकड़ा थी खून  से सिंची
.।मेरे सीने  से जकड़ी थी  मेरी अपनी थी
पीड़ा  हर आह सिहराया ,तड़पाया .
वह इंसानियत थी जो इतने करीब थी .
हैवानियत  के दरिंदों बोटी -बोटी काटी
 मासूमियत का परिंदा ,सपनों  का गुलिंस्ता
 .वह मासूम फाख्त्ता थी ,वह इंसानियत थी ,
जिसकी मौत   पर  मैं रोई फूट फूट कर रोई
,अपनी लाचारी पर ,अपनी कमजोरी पर
 ,मैं कुछ कर न सकी ,क्यों कुछ कर न सकी
मैं रोई  फूट -फूट कर रोई 

Tuesday, December 18, 2012

biitaawarsh

बीता वर्ष

बीता वर्ष ,गया  संघर्ष
.नूतन वर्ष मनाओ  हर्ष  ,
 खुशियों  की  सौगात लिये
,कलियों की  बारात  लिए
,रंग  बिरंगे  फूल खिलें हैं
,उपवन उपवन हिले मिले हैं ,
आशाओं से झूम रहा मन ,
कितने सपनें देख रहा मन ,
छोटी सी खुशियाँ अपार ,
कैसा भी हो मन का विकार
 निराशा  हो या अन्धकार
 मन में उमंग ,उठती तरंग
 नूतन  वर्ष मनाओ हर्ष
 बीता वर्ष गया संघर्ष
,

Sunday, December 16, 2012

patang

पतंग , ह वाओं  के रुख   से ,
ज़मीन पर  डोर के सहारे .
आकाश में कितनी ऊपर तक
जा सकती है ,देखा है तुमने ?

कभी सोचा  है है तुमने ?हाँ 
कभी सोचा है तुमने ?
सपनों को पूरा करने के लिए .
ऊचे  पर सफलता को  छूने के लिये
 ज़मीन पर मजबूती से खड़ा रहना
जरूरी है ,ज रूरी  है ,सच्चाई
इमानदारी ,और  मेहनत के डोर  की
पकड़  जरूरी  है ,ज़ रूरी है .
और  फिर देखो  ,हाँ वो देखो ,खुले
आकाश में  कहाँ कहाँ दौड़ती है ,भागती है
पहुंचती  है ,सफलता की पतंग .
ज़मीन   पर टिकी डोर के सहारे ,
कभी  देखा  है तुमने?कभी सोचा है तुमने?

कभी  सोचा है तुमने ?कभी देखा है तुमने ?

Monday, October 22, 2012

तुम  बोधिसत्व    हो
उस  बोधि  का   नन्हा  सा  एक  अंश 
 शक्तिशाली ,अणु बम  के समान प्रभावशाली ,
 असीम ऊ र्जा ,साहस  और शुदधता के अंश
तुम  बोधिसत्व हो .
निर्मल,सदय़ ,उदार हो ,उस बोधि का एक
नन्हा सा अंश ,
आंसुओं   को  पोंछ  दो,
चिंताओं  को  छोड़ दो
निराशा ,को दू र कर ,
सोचो ,अपने मूल रूप  को
अपराजित,अपरिमेय , जागृत .
तुम बोधिसत्व  हो
इश्वर के अंश ,निर्बंध ,
तुम्हें कोंई पराजित नहीं कर सकता
शक्तिशाली ,अणु   बम के समान   प्रभावशाली
तुम  बोधिसत्व हो
तुम बोधिसत्व हो .

Friday, August 17, 2012

   मन   उदास है
 मुट् ठियों    से   रेत  जैसे  ,  छूटता सब  जा रहा है .
कौन  सी  है तिक्तता  या कौन सी रिक्तता ,
दिल डूबता सा जा रहा है .
क्यूँ  ये  सूनापन घिरा है, क्यूँ ये बेचैनी  बढी है ,
रौशनी में भी अँधेरा  छा  रहा है ,
मुट्ठियों  में रेत  जैसे छूटता   सब जा रहा है .
यूँ तो  सब कुछ पास  है
 फिर भी .अकेला लग रहा है ,छू ट ता सब जा रहा है .
 गहरे भवंर  में , और दलदल पास है ,
छूटता   इक -इक सहारा जा रहा  है
सुस्त  अलसाया हुआ  मन ,
भीत   भरमाया हुआ मन .
 क्यूँ  सहमता जा रहा है ,छू ट ता सब जा रहा है .

Saturday, August 4, 2012

mun ke paakhii

   मन    के   पाखी

उड़  जा ,उड़  जा   मन   के पाखी ,
 तू   अनंत    की    ओर .
 तन का   पिंजर    छोड़ ,
उड़  जा , उड़  जा , मन के  पाखी ,
 तू  अनंत की    ओर .

 अंगों   के बंधन  में कसमस ,
और  छूटने को  फिर   . बेबस
उड़   जा, उड़  जा , मन  के पाखी ,
तू अनंत   की   ओर .
 दूर  दूर  फिर ऊंचा ऊंचा  ,
धरती  का फिर कुछ   ना  दीखे
यह  संसार भरम  की  बाती ,
इसका  ना  कोई   छोर .

उड़   जा   उड़   जा ,मन  के   पाखी .
तू  अनंत की ओर.

चहक   रहा था ,महक  रहा .था
जीवन  का यह उपवन सारा .
मौसम  का जब  तेवर बदला ,
सब  कुछ तहस नहस कर डाला .
समय ,भाग्य  को किसने   जाना?
जाना  ,फिर भी  कब पहचाना

उड़   जा , उड़ जा ,मन  के पाखी .
 नए  भोर की ओर   ,
 नव बसंत  की ओर   .
तू  अनंत की ओर .




Monday, July 23, 2012

 बुढ़ापे     का     बचपन
लौट   रहा है  शायद बचपन ,याद  आ रही है पलपल की .
घिसी  बर्फ के गोलों पर ,रंग बिरंगे  मीठे  शरबत 
 बेसन की स्वादिष्ट lataii   चट पट  चाट   रसीले गुपचुप
कालेज  के बाहर  की gupshup खिल खिल
 ,ठिलठिल मस्त मौज की .


शायद  बचपन   लौट रहा है ,याद आ रही है पल पल की         
काँधें  पर  लटकाए   कांवर  फेरी वाला  आता  था , 
रबडी    दही  और   मलाई  ,पूछ पूछ खिलवाता था
" फेरी वाला कब  आएगा  ?उसे  देखने  जाती  हो  "
पेपर ,फिल्टर  और सोख्ता    मिली  मलाई     खाती  हो ?

ऊपर से माँ  थी चि ल्लाती ,डांट -डपट  कर  मुझे बुलाती
शायद बचपन लौट रहा है ,याद आ रही है पल पल की .
वही  रूठना , वही मनाना ,वही फूलना वही पिचकना .

तब अम्मा और बाबूजी थे ,अब है बेटा बेटी अपना ,
फुसलाते बहलाते रहते ,तरह  तरह के मान मानते .
क्यूँ  रुठी हो ?क्यूँ बिफरी हो ?क्यूँ भूखी हो?क्यूँ फूली हो?

 मुझको खाना है जुबजूबी या फिर   चाकलेट  की गोली '
छोडो  भी माँ ,अब  यह जिद  अपनी . मधुमेही हो यह क्यूँ भूलीं ?
अच्छा  .... देखो टच मोबाइल ,तुम्हें चाहिए था ना  बोलो ?
लैपटाप  पर काम करोगी ....मीठे की जिद छोड़ो .....?

चलो घूमने ,तुम्हें दिखाएँ पिक्चर .या ...गाने सुनवाएं


होने वाली मैं    सत्तर की ,बता रही मैं अपने मन की
शायद बचपन लौट रहा है  याद आ रही है पलपल की 

Saturday, July 14, 2012


bitya


  बिटिया     मेरी
गूंज  उठी  कलरव  से  फूलों  की बगिया मेरी
 घर   आंगन    में बोल  उठी बिटिया  मेरी ,

 चहक  चहक   कर फुदक   रही , फूल फूल    पर

 थिरक   रही, गुन -गुन -गुन की मधुर   ध्वनी  से ,

 गूँज रही , फूलों  की बगिया मेरी ,बोल  उठी बिटिया मेरी

मम्मी ,पापा,बाबा ,दादी कहती , घर आँगन में डोल रही
\कभी  पीठ  पर  ,कभी  पाँव  पर बैठी झूला झूल रही ,
बिटिया मेरी  घर आँगन  में बोल उठी बिटिया मेरी
कभी  नाचती धुन पर ,टी .वी  के    गानों   पर
कभी   ठुमकती   रुनक झुनक   कर पायल को      छनकाती
 घर आँगन में धू म  मचाती बोल रही बिटिया मेरी 

  बिटिया     मेरी
गूंज  उठी  कलरव  से  फूलों  की बगिया मेरी
 घर   आंगन    में बोल  उठी बिटिया  मेरी ,

 चहक  चहक   कर फुदक   रही , फूल फूल    पर

 थिरक   रही, गुन -गुन -गुन की मधुर   ध्वनी  से ,

 गूँज रही , फूलों  की बगिया मेरी ,बोल  उठी बिटिया मेरी

मम्मी ,पापा,बाबा ,दादी कहती , घर आँगन में डोल रही
\कभी  पीठ  पर  ,कभी  पाँव  पर बैठी झूला झूल रही ,
बिटिया मेरी  घर आँगन  में बोल उठी बिटिया मेरी
कभी  नाचती धुन पर ,टी .वी  के    गानों   पर
कभी   ठुमकती   रुनक झुनक   कर पायल को      छनकाती
 घर आँगन में धू म  मचाती बोल रही बिटिया मेरी 
  बिटिया     मेरी
गूंज  उठी  कलरव  से  फूलों  की बगिया मेरी
 घर   आंगन    में बोल  उठी बिटिया  मेरी ,

 चहक  चहक   कर फुदक   रही , फूल फूल    पर

 थिरक   रही, गुन -गुन -गुन की मधुर   ध्वनी  से ,

 गूँज रही , फूलों  की बगिया मेरी ,बोल  उठी बिटिया मेरी

मम्मी ,पापा,बाबा ,दादी कहती , घर आँगन में डोल रही
\कभी  पीठ  पर  ,कभी  पाँव  पर बैठी झूला झूल रही ,
बिटिया मेरी  घर आँगन  में बोल उठी बिटिया मेरी
कभी  नाचती धुन पर ,टी .वी  के    गानों   पर
कभी   ठुमकती   रुनक झुनक   कर पायल को      छनकाती 
 घर आँगन में धू म  मचाती बोल रही बिटिया मेरी 

Friday, March 23, 2012

दिवस परम्परा

गौरैया दिवस

ओह
,यह ' दिवस परम्परा ' मेरी समझ न आई ,

सुबह
सवेरे जब झूले पर मैं गौरिओं को दाना देने आई .
शोर मचाती चीं चीं करती मेरे इर्द गिर्द घिर आईं
कानों को सुख देने वाला मधुर मनोहर शोर नहीं था ,
यह तो कलरव या कल्लोल नहीं था
अरे- अरे यह आज हुआ क्या ?
मैं उन्हें देख घबराई

गौरैयों ने शायद व्याकुल होकर एक सभा बुलवाई
डरी - डरी सी , सहमी- सहमी भोली - भाली औ निरीह सी ,
घर - घर में हर छज्जे , छत में लटक रहे क्यों झूले नभ पर ?
क्या कोई षड्यन्त्र रचा है ? दाने पानी सुंदर मटके रख कर
बुला रहे क्यूँ हमें हरख कर? शहरों की ये नई अदाएं हमें रास न आईं ।
" 'गौरिया का दिवस " मनाकर कहीं और कुछ शामत आई ?
गौरियों ने व्याकुल होकर एक सभा बुलवाई'
ओह यह दिवस परम्परा मेरी समझ न आई'