Sunday, November 1, 2015

Kuchh to Bataiye


                                    कुछ तो बताइये
       परिवर्तन सृष्टि का नियम है चलते रहना जीवन और रूक जाना मृत्यु है। समाज के विकास में भी यही नियम है मान्यतायें बदलती है आवश्यकतानुसार विचार बदलते है सोच और दिशायें बदलती है। नही बदलते है तो हमारे शाश्वत नैतिक मूल्य। नैतिक मूल्यों के व्यवहारिक प्रयोग में निरंतर गिरावट देखी जा रही है। माता-पिता परिवार विद्यालय अध्यापक शिक्षा शास्त्री सभी हैरान परेशान है मौखिक रूप से हर व्यक्ति अपने स्तर पर दया करूणा सहयोग सम्मान आदि मानवीय गुणों की संवेदनाओं के लिये उपदेश देते रहे है लेकिन नतीजा कुछ भी नही। जितना नैतिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है लोग सर्तकता और सावधानी बरत रहे है उतने ही भयानक और विपरीत प्रभाव हमें दिखाई पड़ रहे है।
        क्या है इसका कारण कहाॅं हम चूक रहे है कौन है जिम्मेदार? कौन सी चीज हमें पतन की ओर खीच रही है सभी अपने-अपने दायित्व निवर्हिन को सही बता कर मीडिया पर दोष मढ़ रहे है। इसी पृष्ठ भूमि को लेते हुए वर्तमार समाज में गिरते नैतिक मूल्यों को कारण मीडिया ही है क्या सोचती है हमारी युवा पीढ़ी? भुक्त भोगी अनुभव करने वालों का किशोरों की क्या सोच है अनुभवों के धनी हमारे वरिष्ठ जन इसे किस तरह समझाना और समाधान देना चाहेंगे। यदि कुछ समय दे कर दिशा बोध हो सके तो आभारी रहँूगी मैं----       





Pita


                                   पिता
तुम बरगद की छाँव पिता हो
औ, घर की देहरी का दीवा
धुरी रहे परिवार की घर आॅंगन के प्यार की
तुम बरगद की छाँव पिता हो,
आँधी या तूफान हो, सागर विफरे
या फिर आया कोई भूचाल हो
हर बच्चे के लिए साथ मे
कस कर थामें हाथ हाथ में
साहस का वरदान पिता हो
ना कोई टूटे ना हो आहत
तुम बरगद की छाँव पिता हो!
        
       
          

Aankhein nm kr jaati hain


                  आँखे नम कर जाती है

कुछ यादेेें ऐसी होती है
जो दिल पर छाई रहती है
जितना भी दिल टूटा हो
बस आँखें नम कर जाती है

बचपन की स्कूलों की
प्यारे सखी सखाओं की
हॅंसी ठिठोली, जोर-जोरी,
छीना-छीनी, रूठा-रूठी
बस आँख नम कर जाती है

क्यों मौसम बदला करते है
क्यों तेज हवायें चलती है?
सब तितर-बितर हो जाता है
क्यों तेज कसक सी उठती है

क्यों समय बीत हर जाता है
क्यों भूल नही कुछ पाता है
दुख की हो या सुख की यादे
बस आँखे नम कर जाती है

कुछ यादें ऐसी होती है
जितना भी दिल टूट हो
बस आँखें नम कर जाती है
यों दिल पर छाई रहती है

   
  
  
   


Sunday, June 21, 2015

Kya Kahenge



                                     क्या कहेंगे?
       कोई इतना संवेदनहीन कैस होे सकता है वह भी आज के वर्तमान समय में मेरा मन न जाने कैसा-कैसा हो रहा है घर से परिव्यक्ता बेटी न जाने कितने सालों से रह रही थी। कभी जिसकी किलकारियों से घर गुन्जा था, चंचल नटखट क्रिया कलापों ने हसाया था युवा किशोरी से युवा होती बहन के अरमान जगे विवाह हुआ मगर भाग्य की मारी को वापस अपने बाबुल घर आना पड़ा। पति घर में पटी नही 65 वर्ष तक का जीवन माता पिता भाई बहन भाभी भतीजे भतीजी के साथ बीता। बीमारी ने जो घेरा तो मौत की नींद सुला कर ही छोड़ा और उसकी तेरही के दस दिन बाद ही भतीजे का मुण्डन उसी घर में यह कह कर कि ये शुभ कार्य तो हो सकता है। वो जो मरी है वो तो लड़की थी घर की उसका क्या यहाँ से क्या मतलब लड़कियाँ तो इस घर की नही होती अब गई नही ससुराल तो क्या हुआ मुण्डन कराया जा सकता है और हो गया सब कुछ रीति रिवाज के अनुसार। वाह री समाजिकता, साथ सामीप्य, यादें सब धरी की धरी रह गये। गून्जने लगे मुण्डन संस्कार के गीत। रो रही थी तो बस दो आँखे, माँ की आँखों से झर रहे थे आंसू  कोई देख न ले झट से भर-भर आती आँखों को पोछ लेती।
               निर्णय भी किसने लिया एक स्त्री ने, एक स्त्री को नकारने का भयंकर निर्णय। क्या पुरूष है मेद-भाव का उत्तरदायी? क्या पुरूष है कठोरता का प्रतीक? यह नारी ही है नारी की हन्ता तो भेद भाव की सृजन कर्ता उसे क्षमा नही किया जा सकता पुरूषों को दोष न दे। सुधारना है तो नारी सुधरे। नारी को सजा मिले। नारी हो नारी की शोषक है शोषक है------

Park mein ek Sham



                                पार्क में एक शाम
बैंगलूर के पाॅश इलाके व्हाइट फिल्ड का सुन्दर पार्क चारों-ओर लम्बी ऊँची मल्टीस्टोरीड इमारतें, भव्य और आकर्षक, समस्त आधुनिक सुविधाओं से लैस मगर शाम होते-होते ही 5-7 के बीच पार्क भर जाता बिल्डिंग में रहने वाले 10-12 वर्ष तक के बच्चों और उनकों लेकर आने वाले आयाओं से। कुछ बच्चे झूलों पर झूल कुछ सीढ़ी से फिसलते, सी-साॅ में उछलते तो कुछ छड़ो को पकड़ कर बन्दरों की तरह लटकते व्यायाम करते। रंग-बिरंगे फूलों की तरह-तरह की नयी ड्रेस, शोर गुल दौड़ते भागते। ऊपर से सातवीं मंजिल की बालकनी में खड़े होकर इस मोहक दृष्य को पास से जाकर देखने का लोभ मैं रोक न पाई और लिफ्ट से नीचे आ गई। अभी कुछ ही दिनों पहले अपने बेटे-बहू के घर हम लखनऊ से आये थे।
पोती का और बेटे-बहू के पास कुछ दिन बिताने का सुनहला अवसर। और फिर बैंगलोर से माॅर्डन का आन्नद कुछ दिन बिताने का सुनहरा अवसर और फिर बैंगलोर के ऐसे माॅर्डन सिटी का आनन्द और अमेरिका के लाइफ स्टाइल का रूप बताया जाता था मन में थोड़ा सा वह भी लालच भी था।
     लिफ्ट से उतर कर हम उसी पार्क में आ गये जहाँ जिन्दगी शायद अपने सबसे सुन्दर रूप  में खेल रही थी चारों तरफ देखा बड़े बुजुर्गों के बैठने के लिए बेंचेज भी बनी थी पार्क का एक चक्कर लगा कर हम भी वही बैठ गये जिया भी वही थी अपने दोस्तो में मस्त थी बहुत देर तक तो इधर-उधर दौड़ती भागती दिखाई दी मगर कुछ देर बाद नजर न आई उसकी आया अपने अन्य आया दोस्तों के साथ गप्प मारते दिखाई दी जिया की ओर उसका ध्यान न था पेड़ के नीचे बेंच पर बैठे हम उसके दादा-दादी देख रहे थे अचानक कि अपने से छोटे बच्चों के साथ छुआ छुई खेल रही थी खिलखिला रही थी उन्हें प्यार से खेला रही थी मगर उसके  अपने हम उम्र बच्चे उसके साथ नही थे कहा गई उसकी दोस्तें वे भी आयी होंगी यहाँ मैने भी एक चक्कर लगाने की सोची और धीरे-धीरे चल पड़ी उस ओर। उसकी चारों दोस्त झूला झूल रही थी मगर जिया, तो अलग ही अपने नन्हे दोस्तों में मस्त थी किसी को झूला झुलाती किसी के पीछे भागती सहलाती दुलराती। कही रेत के ठेर पर बैठ कर घर बनाती खुद लीडर बनी उन छोटे बच्चों की टोली को ले चलती लेकिन अपनी उम्र के लड़कियों के साथ नही बड़ा आश्चर्य हुआ उसका यह रूप देखकर अचानक उसके दोस्त ने पीछे से धक्का देकर गिरा दिया गिर कर उठी गुस्से से जिया ने उसे देखा आर तड़ से एक झापड़ जड़ दिया अरे! यह क्या इतना गुस्सा क्या हुआ मै दौड़ी उसकी मम्मा भी आ गई सब आया अपने-अपने बच्चों के लिए दौड़ पड़ी बच्चे उनसे चिपक गये कुछ मम्मियां भी जुट गयी तमासा सा खड़ा हो गया और घेरे के बीच जिया अपने रेत के बनाये घर के पास छोटे राहुल का हाथ पकड़े खड़ी थी चुप एकदम चुप घूर-घूर कर सबको देखती हुई। कोई उसको कुछ कहने का साहस न कर सका
    आगे बढ़कर अन्याय के बिरोध करने का गुण साहस शायद जन्मजात ही होता है कोई सिखा नही सकता केवल परिष्कृत कर सकता है सही दिशा दी जा सकती है आवश्यकता है बच्चो के क्रिया कलापों को ध्यान से देखा जाय उसके पीछे भावनाओं को समझकर गुणों को विकसित किया जाय।   

Sunday, May 3, 2015

Yaaden

              यादें                                       
बच्चो के बस स्टाप पर 
एक पेरेन्ट ने पूछा ड्राइवर से
‘खान’ सर चले गये क्या?
कहाँ
ऊपर
हाँ कल शाम पाँच बजे
आनमने से बस ड्राइवर न बस बढ़ा दी
मै पीछे बैठी सोच रही थी।
इन्सान चला जाता है रह
जाती है यादें और बातें
बाकी सब वैसे ही चलता है
वही सुबह, वही शाम वही संघर्ष
दौड़ धूप, आगे पीछे, मेन्यूपलेशन
का विचार विमर्श
एक अकेला घर का बापी
पीछे कुनबा नन्हे मुन्नोका
आपा धपी-----
यह सच है सबके पास
सब कुछ नही होता
लेकिन सबके पास कुछ
जरूर होता है। क्यों न हम उस याद करें
बात करे अच्छे स्मृतियों के फूलों से
खुद को भर ले, भर दे उसकी खाली झोली।



Matra Aandolan

                             मात्र आन्दोलन                                   
जब तक सेल्फ आॅनेस्टी नहीं आयेगी। भ्रष्टाचार नहीं हटेगा। हम में से हर आदमी भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार है। आज हम अन्ना हजारे के अगस्त क्रान्ति में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे है। नारे भजन कीर्तिन अहिंसा के माध्यम से बाह्य कर रहें है लोकपाल बिल के पारित होने के लिये। सभाये और धरने दिये  जा रहे है। और एक बार जन लोकपाल बिल पारित हो गया, कानूनी संरक्षण बन गया तो फिर क्या होगा उसके बाद? इस अनशन धरने में आम जनता के हर व्यक्ति को यह भी  संकल्प लेना होगा कि वह व्यक्तिगत रूप से न भ्रष्टाचार करेगा, न रिश्वत लेगा ना ही देगा। केवल धन में ही भ्रष्टाचार नही है वरन् काम करने नियमों का पालन करने, करवाने आदि सभी में यह घोषणा स्वयं के प्रति, इमानदारी के लिये प्रतिबद्धता ही इस आन्दोलन को सही मायने में सफल बनायेगी। जो जहा है जिस पद पर है जिस उत्तरदायित्व को निभा रहा है उसे अपनी जगह इमानदारी, निष्ठा और उत्साह से पूरा करें। तभी राष्ट्र भ्रष्टाचार मुक्त हो सकता है और हम आने वाली पीढ़ी को एक स्वच्छ सुन्दर नैतिक समाज विरासत के रूप में दे सकेंगे।


Jeewan Darshan

जीवन दर्शन मानवीय सम्बन्धों की निरर्थकता पर अब मन में अजीब सा भय और विरक्ति सी आती जा रही है। जीवन में कब कौन सा पक्ष प्रधन हो जाये और (जिसे हम मूल मुख्य धारा समझते है) मूल मुख्य धारा से आदमी कट जाये या हट जाय कुछ पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है तब मन शायद तटस्थ हो चुका होता हैं। कर्तव्य की प्रधानता की दुहाई देकर हर प्रतिक्रिया और कार्यों की वैधता, की मान्यता दी जाने लगी हे जब तक कोई स्वयं उन परिस्थितियों से नही गुजरता तब तक उस पक्ष की भावनाओं को, विचारों की सत्यता उपयोगिता पर मन को टिका ही नहीं पाता टिकाये भी तो कैसे? हर व्यक्ति, हर पक्ष हर पहलू सही है अपने-अपने दृष्टि कोण से वैसे तो हर व्यक्ति अपने परिस्थितियों के हिसाब से सर्वोत्तम निर्णय लेता है निर्णय और प्राथमिकता व्यक्तिगत है अन्ततः ‘‘ऐकला चलो रे की स्थिति आ जाती है’’ चाहे जहा से, चाहे जिस रास्ते से चलो गन्तव्य एक है। वृद्धावस्था की प्राप्ति और फिर मृत्यु का वरण। और जन्म से मृत्यु तक का यह पथ? यह मार्ग? इसे ही हम जीवन की संज्ञा दे देते है। समय सीमा ही जीवन है सारी भाग दौड़, धन सम्पत्ति न्याय अन्याय धोखा धड़ी इसी अन्तिम लक्ष्य की आपाधापी है शनैः-शनैः भावनाये मुस्काने लगती है। कार्यक्षमता कम होने लगती है टूटने लगता है और उजागर होकर यर्थाथता, स्र्वाथ सब हावी हो जाता है। मुख्य धारा में अनेक धारायें या यूँ कहिये अनेक नन्ही-नन्ही धाराये (सोते) फूट पड़ते हे और जीवन की नैया अनेक विभिन्न प्रकार के थपेड़े खाती, भाग्य के पतवार के सहारे हवा के रूख पर झकोले खाती डोलती रहती है। सागर का जल चंचल हे लहरे उत्ताल है कभी शान्त कभी आन्धी और तूफान। कभी हल्की और सूकून देने वाली ठंडी हवा। कुनमुनाती धूप। मगर किसी का स्थायित्व नही शायद कर्तव्य भावना से प्रधान है हर कोई यही कहता है एक जन्म से, एक बूँद से एक चैतन्य से विस्तृत होते-होते अति विशाल होकर फैल जाता है जीवन और पचास वर्षाें के बाद संकुचन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है वह विशाल तैल बिन्दु, खण्ड से बिन्दु में और छोटे बिन्दु में अपने में सीमित हो जाता है व्यक्ति

Sunday, February 22, 2015

Jnhit ka suurj

   जनहित का सूरज चमकने लगा है                                                
          समय के दुष्चक्र में, छलावे में भुलावे में, आँखे बन्द कर हम सोचते रहे, वह घना अंधकार है रास्ते ऊबड़-खाबड़ है कंकरीले है----- पथरीले है------शुतुरमुर्ग की तरह अपने पंखों में सरछुपाकर सोचते रहे हमारे आगे कुछ भी नहीं है विकास के मार्ग अवरूद्ध है हमारी यही दुनियाँ है हमारा यही, यही ठिकाना है मगर ऐसा कुछ भी नही है।
      वह एक ऐसी धुन्ध थी जो छँट रही है महानता की परत थी जो कट रही है जागरण की थपथपाहत है जो जग रही है कुनमुनाते हुये, अलसाते हुये हमारी आँखे हो रही है आहत सुनाई पड़ने लगे है। सुनहली धूप, प्यारी हवायें, रंगीन सपने नन्हे -मुन्नो का आँगन, प्यारा-सा बचपन युवाओं का दमखम बुढ़ापेे का दर्शन जरूरत है एक लक्ष्य हो हमारा जरूरत है एक पथ हो हमारा
       जरूरत है साथ मिलकर चलें हम हिम्मत से सबको लेकर चले हम खुशियाँ खुशियाँ बिखरी पड़ी हैं चलों दौड़ कर हम आँचल में भर ले प्यार से हर घर में दीपक जला दें चलों हम आशा के मोती लुटा दे अन्धेरा छटा है सवेरा हुआ है। जनहक का सूरज चमकने लगा है।


  

Vasudhaav kutumbkum

            समस्त पृथ्वी ही कुटुम्ब है
                       वसुधैवकुटुम्ब्कम 
                                           वसुधैव कुटुम्बकम् का अर्थ सही रूप में मैं अब समझ सकी हूँ। छोटे-छोटे एक परिवार दूर देश विदेश में नौकरी के लिये जाते है और फिर आवश्यकतानुसार नई जगह, देशों में अपने तथाकथित परिवार के लोगों से रक्तसम्बन्धों की पकड़ से दूर वही बस जाते हैं। जहाँ बच्चे है नौकरी है पत्नी है या अकेले भी है तो वही पर आस-पास पड़ोस जान पहचान भी हो ही जाती है कुछ से मन मिलता है। कुछ विचारों के मिलने की वजह से जुड़ते है तो कुछ जरूरत के कारण जुड़ते है और धीरे-धीरे वहाँ परिवार के सदस्य ही बन जाते है।  
   
  
  

   

Saturday, February 14, 2015

Bitiya Meri

                              बिटिया मेरी                                        
गूँज उठी कलरव से
     फूलों की बगिया मेरी
घर आँगन में बोल
     उठी बिटिया मेरी
चहक-चहक कर फुदक रही
     फूल-फूल पर थिरक रही
तितली और रंग बिरंगे कीट-पतंगे
     भनभन-गुनगुन मधुर ध्वनि से
गूज रही बगिया मेरी
     फूलों की बगिया मेरी
मम्मा-पाप्पा, बाबा-दादी
     कहती घर आँगन में डोल रही
थमक-थमक कर नाच रही, कभी
     पीठ पर कभी पाँव पर बैठी
झूला झूल रही बिटिया मेरी
कभी नाचती धुन पर,
     टी0वी0 के गानों पर
कभी ठुमकती रूनक झुनक कर
     पायल को छनकाती
घर आँगन में धुम मचाती
     बोल रही बिटिया मेरी  
बेटी और चिडि़या का कलरव
     घर आँगन की रौनक
सतरंगी किरणों की छाया
     है गुलाब सी कोमलकाया
दमक रही बिटिया मेरी
     घर आँगन में ठुमक रही
बिटिया मेरी गूँज उठी कलरव से
     फूलों की बगिया मेरी---

Sunday, February 1, 2015

Mansik Sahcharita Mental Companionship

मनसिक सहचारिता    
      मध्य आयु की बढ़ती हुई मांग               

 ‘मेंटल कंपेनियनशिप’ (मानसिक सहचारिता) के विषय में आए दिन सुनी जाने वाली बातों ने मुझे यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि क्या इस में कुछ तथ्य भी हैं अथवा यह पुरूषों के लिए अन्य स्त्रियों से संबन्ध बनाने की एक आड़ मात्र है। पत्नी व परिवार के अन्य सदस्यों और समाज की आंखों में धूल झोंकने का यह एक अच्छा साधन है, जिसे आजकल के कामूक व्यक्तियों न बचाव का एक सरल रास्ता मान कर अपना लिया है। 
      उस दिन में अपनी एक सहेली के घर गई थी। अच्छाभला खातापीता परिवार है। समाज में पदप्रतिष्ठा और सुखसुविधाओं के साथ संतान सुख से भी संपन्न है। वह अकेले घर में बच्चों के साथ उदास बैठी थी। मैनें यों ही मजाक करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, किन खयालों में खोई हुई हो? क्या भाई साहब से इतना प्यार है कि वह आँखों से ओझल हुए नहीं कि तुम गमगीन हो गईं?’’
    ऐसा लगा वह पहले से ही भरी बैठी थी। मेरा इतना कहना था कि उसकी आँखें भर आई बोली, ‘‘हाँ अब तो तुम लोग भी यही कहोगी। जिस पर बीतती है वही जानती है। जानती हो, मेरा मन इनके प्रति घृणा से भर उठा है। जब देखो तभी मोहिनी की बातें मैं तो अब उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाती। कुछ कहने पर कहते है, ‘क्या मुसीबत है? छोटी-छोटी बातों को ले कर झींकना तुम औरतों की आदत है। क्या किसी से मिलना-जुलना, हँसना बोलना भी गुनाह है? हर वक्त यही रोना रोती रहती हो कि आप की फलां से दोस्ती है मान लिया कि दोस्ती है तो इस से क्या हुआ? किस बात की कमी है तुम्हें? तुम्हें जो मिलना चाहिए वह तो तुम्हें मिल ही रहा है न।
    ‘‘पुरूष क्या जाने कि स्त्री सब चीजों में अपना भागीदार या साझीदार बना सकती है। बिना कसक गृहशोभा के, बिना किसी पीड़ा के ऐसा सब कुछ कर सकती है, किंतु पति को उसके सानिघ्य और सामीप्य को किसी दूसरे के साथ बाँटने की कल्पना मात्र ही उसे निष्प्राण और संज्ञा शून्य कर देती है। वह भी भारतीय स्त्री! आज समाज और परिवेश चाहे कितने भी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित क्यों न हो, भारतीय स्त्री अंर्तमन से रत्ती भर भी नहीं बदली है।
      ‘‘पुरूष की संकीर्णता भी ज्यों की त्यों है। स्त्रियों को अपने अधिकर में रखने, बात-बात पर दबाने, अपने से हीन समझने की कुत्सित भावना उन में यथावत है समाज में आधुनिकता का आवरण ओढ़ कर वह घर से बाहर आदर्श का  पुतला लगता है, पर घर में रात के एकांत में वह आना कुत्सित नग्न रूप शायद स्वयं नहीं पहचान पाता।’’
       इस घटना के बाद तो कितनी ही घटनाएँ इस प्रकार की सुनाई पड़ने लगी कि अपनी अच्छीभली पत्नी के सानिध्य से ऊब कर पति दूसरी स्त्रियों से मित्रता रच कर जीवन को नए दृष्टिकोण से देखने लगे हैं। उन सब का एक ही तर्क हे कि उन की पत्नी में वह ऊँची मानसिकता नहीं हैं, जो अमुक में हे इसी लिए मैं ने तो इस से केवल मानसिक तुष्टि पाने के लिए मित्रता की हैं।
      सब से अधिक आश्चर्यजनक बात मैं ने यह देखी है कि यह बीमारी--मन का मन से मिलन-- उम्र के तीसरे चरण यानी 35-40 वर्ष में शरू हो कर 50 वर्ष तक चलती है। दूसरे शब्दों में, प्रौढ़ावस्था में इस का जोर रहता है।
      जो व्यक्ति सामान्य पद पर रहा हो और अचानक ही उच्च वर्ग के वातावरण में आ जाए अथवा वैसा पद व सम्मान प्राप्त कर ले तो उसे अपनी पत्नी का मानसिक स्तर अपने से हीन लगने लगता हे और यह कमी उसे इस कदर खलने लगती है  िकवह किसी भी कीमत पर और कहीं से भी मानसिक तादात्म्यता का एहसास कराने वाली सहचरी पाने के लिए बेताब रहता है। इस के लिए यह आवश्यक नहीं कि ऐसी महिला मित्र कम उम्र की हो अथवा अधिक की। वह समवयस्क भी हो सकती है। पर इतना निश्चित हे कि ऐसी जरूरत महसूस करने वाले पुरूषों में ऐसी महिला को खोज लेने की विशिष्ट शक्ति का शीघ्र विकास होने लगता है।
       क्यों हो जाता है ऐसा? पति में सहसा ऐसी प्रवृत्ति का विकास क्यों होने लगता है कि उसे अपनी पत्नी, जिस के साथ उस ने पिछले 15-20 वर्ष गुजारे हैं, मानसिक दृष्टि से एकदम निम्न स्तर की, हीन और सभा-सोसाइटी के लिए अनुपयुक्त लगने लगती है? क्यों उसे अन्य परिचित प्रायः सभी स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक समझदार प्रतीत होने लगती हैं? जो भी यह पढ़ेगा अथवा सुनेगा उसकी तत्काल यही प्रतिक्रिया होगी, कि पत्नी में ही कोई दोष होगा, कमी होगी, जिससे पति दूसरी जगह भटकने लगता है जो ची जवह बाहर खोजता है, अगर वह घर में ही मिल जाए तो फिर बेचारा दूसरी स्त्रियों से दोस्ती ही क्यों करे?
    मनसिक सहचारिता (मेंटल कंपेनियनशिप) शब्द आजकल सभय समाज और उच्च वर्ग में कुछ ज्यादा ही प्रयुक्त होने लगा हे यदि यह मानसिक सहचारिता अथवा तादात्म्यता पुरूष की पुरूषों तक ही सीमित रहे तो भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर जब व्यक्ति इस लक्ष्मण रेखा को पार कर अन्य स्त्रियों में यह भावना देखने लगता हे तो बेचारी पत्निी का माथा ठनकना स्वाभाविक है।
     एक साहब है, एक कालिज में प्रिंसिपल है। बुढ़ापे में पहुँच कर इस मानसिक सहचारिता की इस बीमारी ने उन्हें इतना अकेला कर दिया हे कि बड़े-बड़े इण्टर, बीÛ एÛ में पढ़ने वाले अपने बच्चों और पत्नी को छोड़ कर उस स्त्री के साथ रहने लगे हैं जो कभी उन्हीं के कालिज में पढ़ाती थी। पत्नी बेचारी गाँव में पड़ी  है और अपना भाग्य कोस रही है। उधर पति महाशय सब परेशानियों, उत्तरदायित्वों से एकदम अलग हो ‘मानसिकसहचारिता’ का आनन्द लूट रहे है गाँव की पत्नी उतनी पढ़ीलिखी भी नहीं, जितनी यह शहर की एमÛ एÛ डाक्टरेट प्राप्त आधुनिका सहचरी है।
    मुझे लगता है कि पुरूषों को मानसिक सहचारिता की अचानक आवश्यकता इस लिए पड़ने लगती है, क्योंकि अधेड़ होते-होते उनकी यौवनावस्था की उच्छखलता, रोमानी कल्पनाएँ और ऊँची उड़ान भरने की शक्ति यथार्थ के कठोर धरातल से टकरा कर चूरचूर हो चुकी होती है। नित नए ‘एडवेंचर’ का प्रेमी पुरूष परिवार की जिम्मेदारियों के भार से अंतर्मुखी हो जाता है। उस का सारा जीवन एक सा समरस हो जाता है, कोई नवीनता उस में नहीं रह पाती। सब ठीकठाक चल पड़ने से और जीवन में कोई चुनौती न रहने से पुरूष का अहं जोर मारने लगता है। धीरे-धीरे वह घर को भूल कर अपने काम, वातावरण, राजनीति और दफ्तर की पालीटिक्स में, अपनी पदोन्नति, प्रतिष्ठा आदि में अधिकाधिक रूचि लेता जाता है।
    तब उस को आवश्यकता पड़ती है एक ऐसे सहयोगी की जो उसी के ढ़ंग से वैसी ही परिस्थितियों की सर्जना कर, कल्पाना कर उस विषय पर उससे विचारविमर्श कर सकें। ऐसा कर के वह आत्मसंतुष्टि का अनुभव करता है। वैसे इस श्रेणी के अंतर्गत पुरूष मित्रों की संख्या अधिक होती है, किंतु बहुत सी ंिस्त्रयों के भी नौकरीपेशा जगत में आ जाने के कारण उनकी बुद्धि भी अब इस दिशा में काफी जागरूक हो चली है।
      पुरूष और स्त्री का विपरीत यौन आकर्षण तो शाश्वत है उस में यदि कहीं मानसिक सहचारिता का एहसास कराने वाली अपने जैसे बौद्धिक स्तर की स्त्री मिल गई तो उस उम्र में आ कर पुरूष प्राथमिकता स्त्रियों को ही देने लगते है। यह स्वाभाविक ही है, कोई अप्राकृतिक नहीं है।
      प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में पत्नी स्वयं को उस मानसिक धरातल तक पहुँचा कर पति को मानसिक सहचरी क्यों नहीं हो सकती? किंतु अधिकतर स्त्रियाँ अर्थात पत्नियाँ घरपरिवार तक ही सीमित रहती है। उनकी विश्लेषणात्मक बुद्धि पारिवारिक मामलों में जितनी चलती है, उतनी पति के कार्यक्षेत्र के विषय में नहीं चल सकती। यों कहिए कि पति को यह भरोसा ही नहीं होता कि पत्नी के विचार उसके कार्यक्षेत्र में व्यवहारिक होंगे। वह उसके कार्य की जटिल परिस्थितियों की कल्पाना भी कर पाएगी। इसलिए घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत के हिसाब से वह इस बारे में पत्नी से बात तक नहीं करता।
      इसके विपरीत मानसिक सहचारिता के साथ ही वह दूसरी स़्त्री के साहचर्य का अनोखा आनन्द भी पाता है। 
      इस प्रश्न को स्त्रियों के दृष्टिकोण से समझना भी उचित ही होगा। स्त्रियाँ, जो अकसर केवल गृहिणी मात्र होती हैं, चाह कर भी पति के काम में अपना पर्याप्त सहयोग नहीं दे पातीं। घर परिवार, बच्चों आदि की देख-भाल में वे इतनी अधिक व्यस्त रहती है कि पति की सुखसुविधाओं की पूर्ति तो वे किसी तरह कर देती है, पर उस को घर से बाहर कौन सी परेशानी मथ रही है, इस से वे लगभग अनभिज्ञ ही रहती है।
      समय पर खाना, कपड़ा अतिथियों को स्वागत सत्कार, क्लब आदि में पति की अन्य तम सहयोगिनी बन कर ही पत्नी यह सोचने लगती है कि यह एक आदर्श पत्नी है, जो हर क्षेत्र में पित से कदम से कदम मिला कर चल रही है।
      वह कहाँ चूक जाती है, इस की जब उसे खबर होती है तो काफी देर हो चुकी होती है। पति सुख, संतोष और शान्ति की प्राप्ति के लिए एक और नीड़ बना चुका होता है, जहाँ वह जितनी देर रहता है, मुक्त अनुभव करता है। उसे लगता है कि उसकी यह स्त्री मित्र उस तक ही सीमित है। केवल उसके बारे में ही सोचती है। पत्नी का प्यार, आदर और बच्चों का स्नेह तो वह तब भी पा रहा होता है, इसलिए उस की दृष्टि में उस का कोई मोल नहीं होता।
      असल में इस स्थिति में पुरूष का प्रेम शारीरिक संबन्धों से ऊपर उठ चुका होता है। ऐसी परिस्थिति में पत्नी को धैर्य और समझदारी से काम लेना चाहिए भरसक यही प्रयास करना चाहिए कि पति के मानसिक संघर्ष तथा तनाव को महसूस करने का प्रयास करें।
     जब अपने पति के अनुकूल उसकी परिस्थितियों में स्वयं को रख कर सोचने लगेगी तो कभी भी कोई दरार आपसी संबंधों में नहीं आ पाएगी।
     न ही ऐसी स्त्री अपने पति को दूर होते हुए और घर को बिखरते हुए देखेगी। स्वस्थ, संतुलित दांपत्य जीवन में  ‘मानसिक सहचारिता’ का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। ऐसा हो तो पुरूष को कहीं और भटकने की जरूरत ही क्या?
                        
                          

Khushiya

           खुशियाँ              
यह सच है खुशियाँ, वर्फ की फाहों की तरह
आकाश से बरसती नही है
जमीन पर उगने वाले मशरूमों की तरह
हरदम किलकती नहीं है।
ये तो बिखरी पड़ी है समन्दर-सी
फैली पड़ी है, कही सीपियों-सी
कही कंकड़ो सी, कहीं मोतियों-सी
मन को लुभाती, कही लाल, पीली, छोटी-बड़ी सी
चुन लो, उठा लो, जो अच्छी लगे और प्यारी लगे
ये तो कन-कन में जैसे लिपटी पड़ी है
समय की नदी पर बहती चली है खुशियाँ
आस-पास ही तो बिखरी पड़ी है खुशियाँ
वो देखो वो देखो पकड़ लो उन्हें
तितलियों से उड़ी वो चंचल चपल-सी।




             The amount of Joy and pleasure that we gat in floating the tiny paper boat in the water of rains, in our daily life too. We can gather joy and happiness.               
         Collecting pebbles at the seashore like wise in our daily life too we can seek, gather and pickup happiness from the little things happening around us. It is all in the state of mind. Pleasure and joy does not fall from the sky like shower of snow or grow on earth like mushrooms.
  


Sunday, January 25, 2015

Zid aur zindagi

        जिद और जिन्दगी                                     

जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने,
अंगारो की जलन, नफरत की तपन, पिया है मैने!!
जो चाहा सोचा, समझा वही, बस वही किया मैने।
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
किसी के आँखों की किर-किर, मन का नश्तर हूँ मैं,
क्या कहूँ किसी के दिल का, दुख का मंजर हूँ मैं
आना-जाना तो मुकद्दर का सिला है प्यारों
हर आह! से निकला दुआ का समन्दर हूँ मैं
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
जो भी जिया है बड़ी शान से जिया है मैने
बड़ी गहरी है नीवें, बड़े पक्के है इरादें
बड़े सच्ची है दुआयें, बड़ी ताकत है शहादत
न गिलवा न शिकायत, बड़ी हिकमत है ‘‘जरूरत’’
प्यार से, मगर भरपूर जिया है मैने
जिन्दगी को अपनी शर्तों पर जिया है मैने।
 









   

Daddy



                              Daddy
You are my ideal
My hero, my force,
My courage, my pride and my source
I want to hold your hands, my steps are small
My dreams are high my ambitions and goal
I do not want to fall
Let me hold your hands
Let me have the confidence
You are my hero, my force wait, wait.
Do not hurry
Be slow, be low, do not worry
I am behind you, trying to reach you.




Gulmohar

                               गुलमोहर                                         
तुम मेरे गुलमोहर
हरे-हरे पत्तों के गुल्मगुच्छ में
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर
कड़ी धूप में शीतल छाया
अम्बरतम में विधु की माया
हरे-हरे पत्तों के गुल्म-गुच्छ में
प्रिय, तुम मेरे गुल मोहर
कितना भी हो आहत मन
बोझिल आँखें, तन्द्रिल मन
पोर-पोर हो टूट रहा जब
तुम निद्रा की एक लहर
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर
कितना लम्बा, कितना सूना
कभी-कभी यह जीवन का पथ
चुकती लगती जीवन शक्ति
और शिथिल मन जाता थक,
तुम, धनी भूत पीड़ा के अश्रुतरल
प्रिय तुम मेरे गुलमोहर।

Sunday, January 11, 2015

Kyuuin

                                      क्यों
      हमेशा की तरह हम दोनों ननन्द भौजाई माॅर्निंग वाक पर सुबह 5ः00 पर निकल पड़े। रोज की अपेक्षा आज शायद बीस मिनट जल्दी थी। सड़क पर चहल पहल न थी। सन्नाटा पसरा था। 5ः30 पाॅंच तक तो टहलने वालों की भीड़ दिखाई पड़ने लगती थी। कि अचानक सामने से दुबली पतली काया आती दिखाई पड़ी। स्पष्ट रूप से नही पहचान पा रही थी। तेजी से हमारे कदम बढ़ रहे थे ब्रिस्क वाक् कि अचानक कदम ठहर गये अरे मीना। तुम क्या तुम भी माॅर्निंग वाक कर रही हो? रूक गयी वह उदास थकी हुई, सुस्त लगा कि रात भर सोई न हो। क्या हुआ तबियत ज्यादा खराब है? कल तुम आई नहीं इसलियें क्या हुआ? इतनी सुबह-सुबह।
         हाॅ मीना! मेरी कामवाली बाई! एकदम सपाट स्वर में पथराई आॅखों से देखते हुए बोली चली गई, चली गई माता जी! क्या? क्या कह रही हो? डेथ हो? गई क्या? हाॅ कल दोपहर में घर में कोई था या नहीं? वह तो अकेले रह रही थी? बहू बेटा तो बम्बई गये है न? हाॅ क्या हो गया था? आस पड़ोस ने हेल्प नही किया? नहीं।
दो दिन से तो मैं नहीं गई थी दीदी मेरी तबियत जो खराब थी। कल गई थी तो हालत बहुत खराब थी। डायरिया -- लैट्रिन हो रहा था ले जाने की हालत नही थी। किसी तरह बम्बई फोन लगाया तो उन्होंने कहा डाक्टर के यहाॅं ले जाओं ले जाने वाली हालत नही थी।
      कुछ बोल रही थी? मैने पूछा! नहीं बस कस कर मेरा हाथ पकड़े थी और एक टक मुझे देख रही थी। मानों कह रहीं हो मुझे छोड़ कर मत जाओं और फिर बस देखते-देखते उड़ गये प्राण पखेरू।
    पाँच बेटियाँ, दो बेटे बहू, पोते उनकी बहुयें मगर ऐसी भयानक मौत। पास में कोई दिया जलाने वाला भी नहीं दीदी कल दोपहर से रात सुबह अभी तक मै ही तो थी अभी किसी को बुलाकर कह दिया और अगरबत्ती जला देना। मै नहा धोकर आती हँू वही इतनी सुबह घर जा रही हूँ नहाने खाने भइया जी हवाई जहाज से चल दिये है फिर भी शोम से पहले तो नही पहुँचेंगे।
   मेरे आँखों से आँसू गिरने लगें। कौन सा अव्यक्त स्नेह था जो मुझे उनसे जोड़ गया था मेरी कामवाली मीनू ही शायद माता जी और मेरे बीच की सम्पर्क सूत्र थी। जब मेरे लिये रोटियाँ सेकती। झाड़ू पोछा लगाती तो माता जी के बारे में चश्मा जरूर करती। कई सालों से उनके यहाॅं काम कर रही थी। अस्सी के ऊपर की यह माता जी नितप्रति अपने घर में कोहराम मचाया करती। अपनी बहू को गन्दी-गन्दी गालियाँ और अपशब्द कहतीं। किसी की न सुनती। और उनकी बहू भी अब नई नवेली बहू न थी। स्वयं उनके भी दो बेटे बहुये और बेेटी दामाद थे। मगर घर की बड़ी बुजुर्ग माता जी की जबान, उस पर कोई भी नियंत्रण नहीं रखवा सका था। नित्य प्रति के कठोर शब्दों उदण्ड व्यवहार और क्रोधी स्वभाव ने उन्हे घर में ही सबसे अलग थलग कर दिया था। जब घर मे स्नेह प्यार न था तो आस पड़ोस से क्या होते। जब चाहा अपनी गठरी मठरी या प्लास्टिक का थैला उठाती बिना किसी को बताये रिक्शा पकड़ती और पहुँच जाती आर्यसमाजमन्दिर, या कहीं जा उनका मन करता खोज मचाती बेटा दौड़ता मना कर समझाया बुझा कर लाता। पाक सफाई धूत छात इतनी कि किसी का काम पसन्द न आता। स्वयं ही नौकरानी से आटाछीन कर रोटी सेकती, खिचड़ी खाती बनाती। कोई कुछ न बोलता।
    इन सारी घटनाओं की खबर भी मुझे मीनू ही देती। यह भी उसने ही बताया कि भैया जी और बहू जी बम्बई अपने बेटे के पास गये है एक दो महीने के लिये --उनका बेटा बहुत परेशान है। बहू अपने घर का सारा सामान जेवर पैसा लेकर अपने पिता के साथ मैके चली गई। जब भैया जी आॅफिस गये थे तभी। टिकट वगैरह सब पहले से बुक करा रखा था भैया जी को कुछ नही मालूम था। पिता उसके आये उनके आॅफिस जाते ही टैक्सी बुलाई और पिता बेटी अपने घर लखनऊ। बहुत सुन्दर बहू है दीदी--- डाॅक्टर है डाॅक्टर मगर ऐसा क्यों।
     इकलौती थी पता नही क्या बात हुई डाइवोस का केश चल रहा है।
 माता जी को ले जानाा चाहिए था? किसके भरोसे छोड़ गई किसके क्या? मुझसे कह गई है? देख लेना खाना बना देना? ज्यादा तंग करेंगी तेा छोड़ देना अपने आप बनायेंगी खायेंगी?
   मगर दीदी मुझसे नही होता अगर कुछ बोलती हूँ तो मैं सोचती हूँ बूढ़ी है बड़बड़ाती है? इस कान से सुन कर निकाल देती हूँ। फिर भी किसी को रखकर तो जाती। मगर अब क्या------                                                 

Saturday, January 10, 2015

Sardiuun ki dhoop

                 सर्दियों की धूप                       
सर्दियों की धूप
कुनमुनी-सी गुनगुनी सी धूप
मेरे घर आंगन की धूप
कभी झांकती उपर नभ से
कभी घूम जाती मुंडेर पर
मेरे घर आंगन की धूप
और कभी खिल-खिल, ठिलठिलकर
अकड़ दिखाती, ढ़ीठ बनी
छा जाती तन पर-----
मेरे घर आंगन की धूप
अहा! सुनहली, कभी रूपहली
कभी लालिमा लिये हुये
पोर-पोर को कर आहलादित
मेरे घर आंगन की धूप।
प्यारी कुनमुन, शान्त मनोहर
मेरे घर आंगन की धूप।।
कुनमुनी सी गुनगुनी सी
मेरे घर आंगन की धूप।